हमारी जिंदगी पर तो सामाजिक कलंक की टैगलाइन है, हम ऑनलाइन की दुनिया से आजीविका नहीं कमा सकते. हमारी
जिंदगी की डोर तो समाज से ही जुड़ी है, उसी के लिए तीज-त्यौहार, शादी, सौहर, जन्मदिन, मुंडन के बधाई और दुआओं के गीत गाते-बजाते हैं, बदले में मिले पैसों से अपना घर चलाते हैं. लॉकडाउन के 82 दिनों से ट्रेनें, बसें, बाजार बंद हैं. शादियां कैंसल और लोग घरों में कैद हैं. कोरोना और
लॉकडाउन ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है. न पैसा बचा है, न राशन, भविष्य भी अंधेरे में दिख रहा है. सरकार और समाज हमें पीछे छोड़ते जा रहे हैं. यह दर्द हैं भोपाल में किन्नर समुदाय मंगलवारा घराने की सबाब गुरु देवी रानी का. देवीरानी मध्य प्रदेश किन्नर समाज कल्याण समिति की अध्यक्ष भी हैं.
कोरोना महामारी के कारण देशव्यापी लॉकडाउन से कई लोगों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित हुई है. इनमें ट्रांसजेंडर्स यानी किन्नर समुदाय भी शामिल है. इस समुदाय को अब अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए दूसरों की दया पर निर्भर रहना पड़ रहा है. भोपाल हो, इंदौर हो, दिल्ली या हैदराबाद, देश में इनके हालात एक जैसे हैं. भोपाल की बात करें तो यहां ट्रांसजेंडर्स मंगलवारा और बुधवारा नाम के दो घरानों में रहते हैं. दोनों घराने अपने सबाब गुरु की सरपरस्ती और निगहबानी में चलते हैं.
इन घरानों का चलन भोपाल में नवाबी दौर से रहा है. नवाबों के लिए यह उनके मनोरंजन का साधन हुआ करते थे. हर घराने में 200-250 ट्रांसजेंडर्स जुड़े हैं. इनमें से कुछ चेले-नाती के रूप में अपने गुरु के साथ और कई स्लम या पुरानी बस्तियों में किराए के मकानों में रहते हैं, जिनका मासिक किराया 2000 से 5000 हजार रुपये तक है.
सबके लिए पैकेज, हमारे लिए क्या?
लॉकडाउन के बाद हालातों से दुखी गुरु देवीरानी कहती हैं कि सारे मजदूरों-गरीबों के बारे में तो बात हो रही है, बड़े-बड़े लाखों करोड़ों के पैकेज घोषित किए जा रहे, लेकिन हमारे बारे में कोई बात नहीं कर रहा है. सहायता उपलब्ध कराने वाली संस्थाओं या सरकारी तंत्र की सहायता सूची में हम शामिल ही नहीं हैं. बुरे वक्त में सरकार ने भी कोने में फेंक दिया. हम भी तो इंसान हैं, हम भी तो समाज का हिस्सा हैं. हमारी जरूरतें भी तो आम इंसान की तरह रोटी, कपड़ा और मकान ही हैं. लॉकडाउन में रोटी छिन चुकी है. मकान मालिक किराए के लिए सता रहा है, क्योंकि उसे चुकाने के लिए अभी हमारे पास पैसे नहीं हैं.
आने वाला वक्त खतरनाक
बकौल देवीरानी, हमारी कोई नौकरी तो है नहीं, रोज कमाते खाते हैं. मार्च से अब तक होली निकल गई, आखातीज, शादी-ब्याह के मुहूर्त भी लॉकडाउन में निकल गए. लोग घरों में कैद रहे, सरकारी, निजी अस्पतालों की ओपीडी बंद रही, तो पता ही नहीं चल पाया कि किसके, कहां, कितने बच्चे जन्मे. सावन के महीने और दीवाली की कमाई भी कोरोना निगल जाएगा, क्योंकि सोशल डिस्टेंसिंग आड़े आएगी. लॉकडाउन में कइयों की नौकरी चली गई, कइयों की वेतन कटौती हो गई, ऐसे में अधिकांश लोगों का जवाब होगा कि हमारी ही कमाई नहीं हो रही, तुम्हें कहां से दें.
देवीरानी आगे कहते हैं, 'शादी-ब्याह में भी दोनों पक्षों से 50 से ज्यादा लोगों के जमा होने पर पाबंदी है, तो हमें कौन घुसने देगा और कौन बधाई गाने देगा या उसका नेग देगा. अगले साल-दो साल तो हमारे हालात सुधरते नहीं दिख रहे. वह कहती हैं कि अधिकांश किन्नर समुदाय के लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है, इसलिए उन्हें राशन भी नहीं मिल पा रहा. कुछ स्वयंसेवी संगठनों से मिली राशन की मदद से अब तक जिंदा हैं, पर वो भी कब तक देंगे.'
केंद्र सरकार की तरफ से आधार, बैंक अकाउंट और राशनकार्ड धारकों में से कुछ लोगों को 1500-1500 रुपए मिले हैं और कुछ राशन भी मिला है, लेकिन एक ट्रांसजेंडर के लिए इतने में जीवन बिता पाना संभव नहीं है. ट्रांसजेंडर किन्नर समुदाय की ओर से आवाज उठाने वाली लैला कहती हैं कि दूध, सब्जी तक के लिए पैसे नहीं है. हेमा का कहना है किन्नर समुदाय की बड़ी संख्या में ट्रांस महिलाएं अपनी आजीविका के लिए यौन कार्य पर निर्भर हैं, यह सब भी अब लंबे समय के लिए बंद हो गया है.
जाएं तो जाएं कहां
देवीरानी का दर्द है कि प्रवासी कामगारों और ट्रांसजेंडर्स (किन्नरों) में एक ही अंतर है साहब, वो तो अपने घर लौट सकते हैं, अधिकांश लौट भी गए या लौट रहे हैं, लेकिन हमारे लिए तो वह रास्ते भी बंद हैं. अधिकांश ट्रांसजेंडर्स छोटी उम्र में ही अपने परिवार छोडक़र ट्रांसजेंडर कम्युनिटी में आ जाते हैं, जिसके कारण ये अपने परिवार के पास भी नहीं जा पाते. जो ट्रांसजेडर्स अपने परिवारों के साथ रह रहे हैं, वह भयानक प्रताड़ना वाली स्थितियों में रह रहे हैं. पूरे समय यह डर बना रहता है कि उनके शारीरिक प्रदर्शन, हावभाव, भविष्य को लेकर घर में होने वाली बातें, हिकारत के भाव शारीरिक प्रताड़ना में न बदल जाए.
स्वास्थ्य सुरक्षा बड़ा संकट
भोपाल के बजरिया क्षेत्र में रहने वाली 40 वर्षीय ट्रांसजेंडर बम्बईया काजल ब्लड शुगर की मरीज है. लॉकडाउन के चलते उसकी जांच नहीं हो पा रही. निजी डाक्टर दूर से झिड़क देता है. सरकारी अस्पतालों की ओपीडी अभी तो बंद है, लेकिन जब खुलती थी, तो स्त्री और पुरुषों के लिए तो अलग-अलग लाइनें हैं, लेकिन ट्रांसजेंडर्स के लिए कोई लाइन नहीं है. जिस लाइन में लगो, वहां ही दुत्कारे जाते हैं.
डॉक्टर्स कोरोना से बचने इम्युनिटी पॉवर याने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की नसीहत देते हैं. अब जब पौष्टिक भोजन ही नहीं मिल रहा, तो इम्युनिटी कैसे बढ़ेगी? स्वास्थ्य सुरक्षा के प्रति जागरूकता की कमी के कारण ट्रांसजेंडर कम्युनिटी में यह डर भी पैदा हो रहा है कि कोरोना बहुत तेजी से उनके एचआईवी पॉजिटिव लोगों पर हमला करेगा. हालांकि, इस बारे में बहुत स्पष्टता उनके सामने नहीं आई है.
यूएन एड्स के मुताबिक भारत में 2017 के आंकड़े के अनुसार 3.1 फीसदी ट्रांसजेंडर्स एचआईवी पॉजिटिव है. 2011 के जनगणना के दस्तावेजों के अनुसार भारत में कुल 4.08 लाख ट्रांसजेंडर्स हैं, वर्तमान में यह संख्या कई गुना ज्यादा हो सकती है. इनमें से केवल 10 फीसदी के पास मतदाता परिचय पत्र है. भोजन की कमी और पैसों के अभाव के साथ ही ट्रांसजेंडर समुदाय भेदभाव का भी शिकार है, जिसके कारण उन्हें स्वास्थ्य सुरक्षा नहीं मिल पा रही है, यह एक बड़ा संकट है. डॉक्टर्स के सामने भी एक समस्या आ रही है कि क्वॉरंटाइन में या कोरोना पॉजिटिव हो रहे ट्रांसजेंडर्स को किस वार्ड में रखें, महिला या पुरुष?
एक समुदाय और है एलजीबी, जो समाज में है भी, नहीं भी
हमारे समाज के भीतर ट्रांसजेंडर के अलावा एक और समाज है, जिसमें एलजीबी कम्युनिटी के लोग रहते हैं याने लेस्बियन, गे और बाइसेक्सुअल. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट से मान्यता के बाद भी प्रकृतिजन्य इनके यौन व्यवहार और संबंधों को समाज बीमार मानसिकता के संबंध मानता है और मान्यता नहीं देता. देशव्यापी लॉकडाउन में इनकी भी सुध लेने वाला कोई नहीं है. इन कम्युनिटी के लोगों के लिए चेन्नई की संस्था वायआरजे, मुंबई के हमसफर ट्रस्ट और सिविल सोसायटी ग्रुप एनएसआईडी से जुडक़र भोपाल में काम करने वाले अनमोल समाजसेवी संस्था के प्रमुख अब्दुल माजिद के मुताबिक उनकी समिति से इन समुदायों के 2000 सदस्य जुड़े हैं.
इनकी स्वास्थ्य सुरक्षा को लेकर काम करने वाले माजिद कहते हैं कि इन समुदायों के लोग हम और आप जैसे ही दिखते हैं. इनमें से अधिकांश अपने परिवारों के साथ रहते हैं, कुछ अलग अपने संगी साथी के साथ और कुछ छिपकर किराए के मकानों में रहते हैं. ये नौकरियां भी करते हैं. ज्यादातर लोगों के साथ यही होता है कि 14-15 साल की उम्र तक आते-आते इन्हें अपनी पहचान, शारीरिक इच्छाओं, रूझानों का पता चलता है. लॉकडाउन के दौरान इनमें से अधिकांश की नौकरियां छूटी हुई हैं.
भविष्य में कोरोना का डर इन्हें लोगों से जुड़ने नहीं देगा. मप्र एड्स कंट्रोल की लक्ष्यगत हस्तक्षेप परियोजना में एचआईवी पॉजिटिव ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है, जिन्हें अभी लॉकडाउन के दौरान अपेक्षित इलाज नहीं मिल रहा, नियमित जांच टल रही है. अनमोल संस्था की कोशिश ऐसे लोगों को समय पर दवाएं उपलब्ध कराने की है.
अदालत के आदेश भी इंसाफ नहीं दिला पा रहे
लॉकडाउन के कारण ट्रांसजेंडर्स समुदाय की दुर्दशा को लेकर पिछले महीने दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जिसपर कोर्ट की टिप्पणी आना बाकी है. इस याचिका में इस समुदाय की मदद करने के लिए दिल्ली सरकार को निर्देश देने की मांग की गई है. याचिका में समुदाय के सदस्यों को वित्तीय सहायता, भोजन का संकट दूर करने के अलावा मकान किराए के भुगतान में छूट और बिना भेदभाव के स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की मांग की गई है. 2014 में सुप्रीमकोर्ट के फैसले के अनुसार ट्रांसजेंडर्स भारत के आम नागरिक के समान सुविधाओं के अधिकारी हैं, लेकिन इसके बावजूद उनके खिलाफ पूर्वाग्रहों के कारण वह अपने परिवार, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से भी वंचित किए जाते हैं.
सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को भी याद कीजिए, जिसमें धारा 377 को निरस्त करते हुए कहा गया कि एलजीबीटी समुदाय को समाज का कलंक न मानें. सरकारें अफसरों को संवेदनशील बनाएं. एलजीबीटी समुदाय को भी दूसरों के समान अधिकार हैं. यौन प्राथमिकताओं के अधिकार से इनकार करना निजता के अधिकार को देने से इनकार करना है.
जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा इतिहास को एलजीबीटी समुदाय से उनकी यातना के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए, लेकिन जरा सोचिए कि अदालत के आदेशों के बाद भी समाज का नहीं बदल रहा. लॉकडाउन के इस दौर में समाज से ही इस समुदाय को सहारा मिलना चाहिए, लेकिन हिकारत, नफरत, भेदभाव से भरी नजरें करीब आने ही नहीं देतीं.
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