जरा सोचिए कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद से देश में करीब 2 लाख सरकारी स्कूल खस्ताहाल और अनुपयोगी बताकर बंद कर दिए गए हैं. क्या आपके मन में यह सवाल नहीं उठता कि जब सरकारी स्कूल बंद हो जाएंगे तो दूर गांवों में बसे वो बच्चे, जिन्हें पगडंडियों से होकर बाहर आने में ही घंटों लग जाते हैं, उनकी शिक्षा का क्या होगा?
Source: News18Hindi Last updated on: August 10, 2020, 5:51 am IST
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नई शिक्षा नीति का एक प्रमुख लक्ष्य है कि उच्च शिक्षा में वर्ष 2035 तक जीइआर यानि सकल नामांकन अनुपात को 50 प्रतिशत तक पहुंचाना है.
शिक्षा हर बच्चे का संवैधानिक अधिकार है और उसे यह अधिकार दिलाने की जिम्मेदारी सरकार की है, लेकिन जिस उतावलेपन के साथ सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं, क्या उसे देखकर आपको लगता है कि बच्चों को उनका यह अधिकार मिल पाएगा? जरा सोचिए कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद से देश में करीब 2 लाख सरकारी स्कूल खस्ताहाल और अनुपयोगी बताकर बंद कर दिए गए हैं. क्या आपके मन में यह सवाल नहीं उठता कि जब सरकारी स्कूल बंद हो जाएंगे तो दूर गांवों में बसे वो बच्चे, जिन्हें पगडंडियों से होकर बाहर आने में ही घंटों लग जाते हैं, उनकी शिक्षा का क्या होगा? जब सरकारें खुद खस्ताहाल स्कूलों को सुधारने का काम नहीं करेंगी, तो स्कूलों का ड्रॉप आउट रेट कैसे कम होगा? कहीं सरकारी स्कूल बंद करना खुद शिक्षा की जिम्मेदारी से मुक्ति पा लेने और बच्चों को निजी स्कूलों तक पहुंचने के लिए मजबूर करने की कोई साजिश तो नहीं है?
यहां बता दें कि यह तमाम डर, आशंकाओं और सवालों के जख्म अभी इसलिए ताजा हो उठे हैं कि हाल ही मध्यप्रदेश में इस साल करीब 13000 सरकारी स्कूलों को बंद करने के आदेश जारी किए जा चुके हैं. 2019 में भी करीब 15000 स्कूल बंद किए गए थे. यह अभियान 2018 से चल रहा है, जब राज्य सरकार ने 0 से 20 छात्र संख्या वाले 35 हजार स्कूलों को "एक शाला-एक परिसर" जैसे खूबसूरत नाम देकर चरणबद्ध तरीके से बंद करने का फैसला किया था. यह कदम तो 29 जुलाई को घोषित नई शिक्षा नीति पर कुल्हाड़ी चलाने जैसा है. सवाल है कि नई शिक्षा नीति में बंद होते स्कूलों को बचाने का क्या कोई प्लान है? अगर है तो स्कूल क्यों बंद किए जा रहे?
क्या कहती है राष्ट्रीय शिक्षा नीति
केन्द्र सरकार ने 29 जुलाई को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 लागू करने की घोषणा की. नीति का दस्तावेज कहता है कि शिक्षा के अधिकार का विस्तार होना चाहिए. 2009 में जो शिक्षा का संवैधानिक अधिकार दिया गया था, उसमें 6 से 14 साल की आयु तक मुफ्त शिक्षा की बात कही गई थी, अब उसका दायरा बढ़ाकर 3 से 18 साल की आयु तक कर दिया गया है. यह बहुत ही बेहतर कदम कहा जा सकता है. नई नीति सबसे महत्वपूर्ण बात कहती है कि जो 2 करोड़ बच्चे अभी शिक्षा नहीं ले पा रहे हैं, उन्हें शिक्षा से जोड़ा जाएगा और स्कूल तक लाया जाएगा. सरकार की नीति कहती है कि बच्चों के ड्राप आउट रेट को कम करना चाहिए, याने जो 100 बच्चे पहली क्लास में एडमिशन लेते हैं, उनमें से आगे जाते-जाते सिर्फ 40 बच्चे रह जाते हैं, स्कूल छोड़ने वालों में बहुत बड़ी तादाद लड़कियों की होती है. नीति 2030 तक 100 फीसदी बच्चों को स्कूल तक वापस लाने का लक्ष्य रखती है, दूसरी तरफ मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, ओडिशा समेत कई राज्यों की सरकारें स्कूल बंद कर आम बच्चों की शिक्षा की उम्मीद, उनके अधिकार को न सिर्फ छीन रही हैं, बल्कि नीति के लक्ष्यों में पलीता लगाने का काम भी कर रही हैं.
क्या है मप्र सरकार का फैसला
मध्यप्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र ने हालिया जारी आदेश में सभी जिलों के अधिकारियों से कहा है कि उन स्कूलों की समीक्षा की जाए, जहां छात्रों की संख्या 0 से 20 है. ऐसे स्कूलों को तुरंत बंद किया जाएगा. इस काम के लिए उस प्रावधान का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसमें कहा गया है कि स्कूल संचालित करने के लिए छात्रों की संख्या 20 से ज्यादा होनी चाहिए. वहीं प्राइमरी स्कूलों के लिए छात्र संख्या 40 होनी चाहिए. इससे कम छात्र संख्या होने पर सरकार संख्या बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं करेगी. उस स्कूल को बंद कर नजदीक के ही किसी स्कूल में मर्ज कर दिया जाए. बंद होने वाले स्कूलों के शिक्षकों की सेवाएं विभाग के किसी कार्यालय या अन्य स्कूल में स्थानांतरित की जाएं. यानी सरकार का फोकस खस्ताहाल सरकारी स्कूलों की दशा सुधारना नहीं, बल्कि उन्हें बंद करने पर ही है. शिक्षा केन्द्र की जो सूची मिली है, उसके मुताबिक राजधानी भोपाल, ग्वालियर, इंदौर और जबलपुर संभाग में सबसे ज्यादा स्कूल बंद होने वाले हैं. साथ ही देवास जिले के 18, शिवपुरी के 16, धार के 21, खरगोन के 27, सागर के 48, दमोह, पन्ना के 27-27 सहित अन्य जिलों में शून्य छात्र संख्या वाले स्कूल बंद होंगे. इस बारे में राज्य शिक्षा केन्द्र के आयुक्त का जो बयान सामने आया है, उसमें वह कहते हैं कि जिन स्कूलों में छात्र ही नहीं है, वहां शिक्षकों की क्या जरूरत है, उन्हें दूसरे स्कूलों में मर्ज किया जाएगा या दूसरे काम में लगाया जाएगा, अभी हम समीक्षा कर रहे हैं.
सरकार क्या दे रही है कारण
राज्य सरकार का कहना है कि स्कूल बंद करने के पीछे बच्चों की कम होती संख्या है. स्कूल के बड़े-बड़े परिसरों में सिर्फ कुछ ही बच्चे बैठकर पढ़ते हैं. स्कूल के मर्जर से शिक्षा को और बेहतर किया जाएगा तथा रखरखाव पर खर्च भी कम किया जा सकेगा. सवाल है कि शिक्षा के अधिकार कानून के अनुसार एक किलोमीटर के दायरे में स्कूल मुहैया कराना सरकार की न केवल नैतिक बल्कि संवैधानिक जिम्मेदारी है, तो वह अपनी इस जिम्मेदारी से क्यों मुकर रही है. क्यों वह स्कूलों की दशा सुधारने की बजाय उन्हें बंद करने पर आमादा है. होना तो ये चाहिए था कि खस्ताहाल स्कूलों को बंद करने की बजाय इसकी वजहों की पड़ताल और उन वजहों को दूर करने के प्रयास किए जाते. वहां पानी, शौचालय, खेल मैदान, बेहतर शिक्षक जैसे संसाधन उपलब्ध कराने के साथ नामांकन बढ़ाया जाना चाहिए था, लेकिन हो रहा है इसका उल्टा. दूरदराज के पिछड़े इलाकों तक स्कूलों के फैलाव की जरूरत है, लेकिन वहां स्कूल बंद किए जा रहे हैं. गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में शिक्षा की हालत का अंदाजा आप केवल इस स्थिति से लगा सकते हैं कि यहां 1 लाख 42 हजार प्राइमरी, मिडिल स्कूल हैं. इन स्कूलों में शिक्षकों के 70 हजार पद खाली पड़े हैं. 17 हजार से ज्यादा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं.
स्कूल बंद करने वाले और भी राज्य
ऐसा नहीं है कि स्कूलों में ताले डालकर बच्चों से शिक्षा का अधिकार छीनने वालों की फेहरिस्त में केवल मप्र है, बल्कि ओडिशा, राजस्थान, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश में हजारों स्कूलों में ताले डाल दिए गए हैं. दो साल पहले उड़ीसा के बारे में एक रिपोर्ट बताती है कि यहां 828 स्कूल बंद कर दिए गए. वजह बताई गई कि इनमें 10 में से भी कम बच्चे रह गए थे, इसी तरह यहां साढ़े आठ हजार से ज्यादा ऐसे स्कूलों की पहचान की गई, जहां 25 से भी कम बच्चे रह गए.
उत्तराखंड में तो अकेले 2015-16 में 3500 से ज्यादा स्कूल बंद कर दिए गए थे. उसके बाद भी यहां हजारों स्कूल बंद किए जा चुके हैं, वास्तविक संख्या उपलब्ध नहीं है. इसी तरह मौजूदा वक्त में सियासी घमासान से जूझ रहे राजस्थान में पिछली वसुंधरा सरकार के कार्यकाल के दौरान 20 हजार प्राथमिक शालाओं का माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में विलय कर दिया गया था. तब वहां की भाजपा सरकार का बहुत विरोध हुआ, लेकिन किसी की नहीं सुनी गई. नागर समाज अपने भारी विरोध के बाद तीन हजार स्कूलों को बंद होने से बचा पाया था.
सरकारी स्कूलों में घट रहे, निजी स्कूलों में बढ़ रहे बच्चे
2017 में लंदन के इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशन की प्रोफेसर गीता गांधी किंगडन ने भारत के स्कूलों के बारे में एक अध्ययन किया था, उनकी रिपोर्ट बयां करती है कि 2010 से 2016 तक भारत के 20 राज्यों के सरकारी स्कूलों में होने वाले दाखिले में 1.3 करोड़ की गिरावट आई है, जबकि निजी स्कूलों में इसी दौरान 1.75 करोड़ नये छात्रों ने प्रवेश लिया. सर्व शिक्षा अभियान में करोड़ों फूंकने के बावजूद छात्रों की संख्या हर साल गिरावट दर्ज कर रही है, जबकि निजी स्कूलों में प्रवेश बढ़ रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि लोग अपने बच्चों को शिक्षा तो दिलाना चाहते है, लेकिन सरकारी स्कूल अपनी कुव्यवस्था के चलते भरोसा खो चुके हैं. वंचित समुदाय और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर हैं.
गीता गांधी अपने अध्ययन में बताती हैं कि भारत में सरकारी स्कूल के शिक्षकों को चीन के शिक्षकों के मुकाबले 4 गुणा ज्यादा सैलरी मिलती है. बावजूद इसके सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था में कोई सुधार नहीं दिख रहा है. इसके कारण औसत दाखिला पिछले 5 साल में प्रति स्कूल 122 से 108 घटा है. वहीं दूसरी ओर गैर सरकारी स्कूलों या निजी स्कूलों में इस दौरान दाखिले में प्रति स्कूल औसतन 202 से 208 की बढ़ोतरी हुई है. गीता गांधी की रिपोर्ट को नई शिक्षा नीति के अनुमान भी सही साबित करते हैं, कि स्कूलों में शिक्षा से वंचित 2 करोड़ बच्चों को वापस लाने की जरूरत है.
राजस्थान का उदाहरण लें तो जब वहां पिछली वंसुधरा सरकार के शुरूआती कार्यकाल के तीन सत्रों में 15000 सरकारी से ज्यादा सरकारी स्कूल बंद हुए तो ढाई लाख बच्चे घट गए. इसका सबसे ज्यादा फायदा निजी स्कूलों को हुआ. इस दौरान 1122 निजी स्कूल बढ़ गए और उनमें बच्चों की तादाद भी 1 लाख 11 हजार बढ़ गई. बाकी बच्चों क्या हुआ पता नहीं, शायद उनकी पढ़ाई ही छूट गई हो. शायद उनके मां-बाप के पास निजी स्कूलों में देने के लिए फीस न हो.
क्या असर पड़ेगा
-सरकारें अपने स्कूलों को बंद करने और निजी हाथों में शिक्षा को सौंपने का खेल खेल रही हैं. इसके घातक परिणाम होंगे. निजी स्कूलों की भारी भरकम फीस का बोझ गरीब बच्चों के अभिभावकों पर पड़ेगा, क्योंकि आज के समय में सरकारी स्कूलों में आमतौर पर गरीब, आदिवासियों, पिछड़े, निम्न आय वर्ग के बच्चे ही पढ़ते हैं.
-गांवों-दूरदराज के स्कूलों को बंद कर दूसरे स्कूलों मे मर्ज करने पर बच्चों के घर से स्कूलों की दूरियां बढ़ जाएंगी. ऐसे में रास्ते सुरक्षित न होने और स्कूल दूर होने की स्थिति में बड़ी संख्या में बच्चों की पढ़ाई छूटेगी, विशेषकर लड़कियों के लिए शिक्षा बहुत दूर की कौड़ी हो जाएगी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
सामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.