सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से मर जाना
तड़प का न होना, सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर और काम से घर लौट कर आना
सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना.
अवतार सिंह संधू "पाश" की ये कविता पढने के बाद अब बालाघाट के घनेन्द्र कावड़े को सुनिये..."मैं मौन नहीं रह सकता, जी हां मैं बांसुरी बजाता हूं अपने शहर का जंगल बचाने के लिए, उसकी सांसों पर आरी चलाने को तैयार बेरहम सिस्टम को जगाने के लिए. ये जंगल हमारी सांसें हैं. ये जंगल हमारी योगशाला है, प्रयोगशाला है, खूबसूऱत जिंदगी का सपना है, ये जंगल मेरा अपना है, ये जमीं मेरी अपनी है. यहां हम सुबह-शाम की सैर करते हैं, त्यौहार, पिकनिक मनाते हैं, बच्चे यहीं साइकिलिंग कर मैडल जीत लाते हैं. यहां हजारों वन्यप्राणियों, पक्षियों का डेरा है. हम तरक्की के नाम पर इसे नहीं कटने देंगे. मुर्दा शांति से मर जाना हमें मंजूर नहीं."
घनेन्द्र बालाघाट शहर की माटी से जुड़ा एक बेटा है, जो मुंबई में थियेटर और एक सहायक निर्देशक के रूप में काम करता है. कोरोना से जब सारी दुनिया परेशान है, लॉकडाउन के दौर में वह भी अपने शहर में हैं. सड़क पर घूम नहीं सकता, लिहाजा जंगल में घूम कर बांसुरी बजाता है और अपने अनूठे अंदाज आते-जाते लोगों को जंगल बचाने का संदेश देता है.
जंगल बचाने के मिशन में घनेन्द्र ही नहीं, उनके साथ आदेश प्रताप, हर्षित, ज्ञान गौतम, शिवांश मेश्राम, राज सोनवाले, संकेत उईके जैसे युवाओं की टोली और पर्यावरण प्रेमी अभय कोचर, दिल्ली हाईकोर्ट में वकील अक्षिता, शिक्षक शरद ज्योतिषी जैसे कई प्रोफेशनल्स भी जुड़े हैं. दरअसल, ये आंदोलन तो करीब 1 महीने से भी ज्यादा समय से चल रहा है, लेकिन 8-10 दिन पहले से सुखिर्यों में तब आना शुरू हुआ, जब जंगल में घनेन्द की बांसुरी गूंजी और कुछ युवाओं ने 60 किलोमीटर की मैराथन रेस का आय़ोजन किया और फेसबुक, यू-ट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स के जरिए अपने संदेश को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की गई.
भौतिकता के लिए ताक पर नैतिकता
हमेशा यही होता है कि भौतिकता के लिए सारी नैतिकताएं ताक पर रख दी जाती है. सरकारें उसे ही नैतिकता मान लेती हैं, जो भौतिकता के लिए जरूरी या सही होती है. उसके लिए सारे नियम और कानून किनारे रख दिए जाते हैं, सिस्टम की ओर से विकल्प की तमाम दलीलें पेश कर दी जाती है. चाहे वह मुंबई के ऐतिहासिक आरे कॉलोनी के जंगल कटाई का मामला हो, भोपाल में विधायकों के नए आवास के लिए जेल पहाड़ी एरिया के सैकड़ों वृक्षों की कटाई का मामला.
बालाघाट में भी यही कहानी दोहराई जा रही है. यहां भी फॉरेस्ट के डीएफओ अनुराग कुमार जल-जंगल-जमीन बचाने के लिए उठने वाले विरोध के स्वरों को दबाने के लिए हमेशा की तरह रटा-रटाया जवाब देते हैं कि कटने वाले पेड़ों से पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए नई जगहों पर पेड़ लगाए जाएंगे.
दरअसल, यहां मध्य प्रदेश के बालाघाट में जिस जंगल को बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा गया है, वह भी मुंबई के आरे के जंगलों की तरह शहर के लिए ऑक्सीजोन है. उसे भी बालाघाट के फेफडे की संज्ञा दी जाती है. अब इसका वजूद खतरे में हैं. शहर को एक छोर से दूसरे छोर तक यह घना जंगल शहर को दो भागों में बांटता है. शहर के बीचों-बीच इतना घना जंगल देश में बिरले ही देखने को मिल सकते हैं. यहां हिरण, चीतल, लोमड़ी, भेड़िए, सियार से लेकर कई जंगली जानवर रहते हैं। शाम अंधेरा होते लोग आने-जाने से डरते हैं, इसलिए ये जंगल डेंजर रोड के नाम से मशहूर है.
क्या है प्रोजेक्ट?
लोक निर्माण विभाग शहर के बीच की सड़क आउटर रिंग रोड में बदलकर बायपास बनाना चाहता है, लेकिन करीब 3 हेक्टेयर के उसके रास्ते में बालाघाट का ऑक्सीजोन यानी डेंजर रोड जंगल के करीब 700 पेड़ आ रहे हैं, जिन्हें काटने के लिए वन विभाग ने अपनी अनुमति दे दी है. यह कुदरती जंगल वैनगंगा नदी के बैक पर है, रिजर्व फारेस्ट एरिया है, बहुलता में वन्यजीव विचरण करते हैं. जिन पेड़ों को काटा जाना है, वहां वनविभाग अपना सर्वे पूरा कर चुका है. पेड़ों पर लाल निशान लगा दिए गए है.
सर्वे और निशान देखकर जंगल में मॉर्निंग-इवनिंग वॉक पर जाने वाले लोग चौंके. इन सबके बाद पर्यावरण, वन्यप्राणी सुरक्षा और फॉरेस्ट प्रोटेक्शन एक्ट को ताक पर रख वन विभाग द्वारा दी गई अनुमति पर सवाल के साथ जनता के बीच विरोध के स्वर उठने लगे है. यह विरोध अब आंदोलन की शक्ल में खुलकर सामने आ रहा है.
क्या कहते हैं पर्यावरण प्रेमी
पर्यावरणविद सुभाषचंद्र का कहना है कि बालाघाट के डेंजर रोड जंगल से बायपास रोड बनाकर क्या मिलेगा. अभी थोड़े से फायदे के लिए आने वाली पीढ़ी का खतरा और बढ़ा रहे हैं. जंगल छोटा करने से पर्यावरण का नुकसान तो होगा ही, लोगो को शुद्ध ताजी हवा नहीं मिलेगी. वन्यप्राणियों का रहने का ठिकाना छिनेगा, तो वह शहर में, लोगों के घरों में घुसेंगे.
एक पर्यावरणविद गौरीशंकर कहते हैं कि यदि सड़क आवश्यक है तो जंगल को छोड़कर अन्य विकल्प पर विचार करना चाहिए. दिल्ली हाईकोर्ट अधिवक्ता, बालाघाट की अक्षिता कहती हैं कि यह वन्यप्राणियों के लिए कुदरती क्षेत्र है. वैनगंगा नदी एक हिस्से में केवल 50 मीटर दूरी पर बहती है. कानूनन नदी के 500 मीटर तक कोई निर्माण नहीं किया जा सकता.
जहां तक 700 पेड़ काटे जाने की बात है, तो यह सिर्फ शुरुआती आंकड़ा है. आने वाले दिनों में कम से कम 1500 पेड़ कटेंगे, ऐसा अनुमान है. यह पूरा रिजर्व फॉरेस्ट एरिया है. ये संरक्षित क्षेत्र है, इसमें तो वैसे भी पेड़ काटने की अनुमति नहीं दी जा सकती. हम इसका विरोध करते हैं, पेड़ नहीं कटने देंगे.
मुंबई के आरे के जंगल जरा याद कीजिए
याद कीजिए मुंबई के फेफड़े कहे जाने वाले आरे कॉलोनी के जंगल को बचाने के लिए पिछले साल यानी 2019 में छिड़े मुंबईकरों के उस आंदोलन को, जहां मेट्रो रेल परियोजना के डिपो प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए महाराष्ट्र सरकार 2700 पेड़ों की बलि लेने के लिए आमादा थी. पर्यावरण के प्रति सचेत लोगों की वजह से ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, हाईकोर्ट के रास्ते से होता हुआ यह मामला सुप्रीमकोर्ट की चौखट तक जा पहुंचा था.
भारी विरोध के बीच 4 अक्टूबर 2019 को मुंबई हाईकोर्ट पेड़ों को काटने पर रोक के लिए तमाम याचिकाएं खारिज कर देती है, तो पर्यावरण के लड़ाके तुरंत सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाते हैं. तीन दिन बाद यानी 7 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट आगे कोई पेड़ नहीं काटने का आदेश देती है.
इस आदेश के आने के पहले ही महाराष्ट्र सरकार आरे के जंगल के 2000 पेड़ काट चुकी होती है. सरकार की ओर से बताया जाता है कि अदालत के हर आदेश का पालन होगा. जितने पेड़ काटने जरूरी थे, वह काटे जा चुके हैं. अब आगे कोई कटाई नहीं होगी. बताइए इससे बड़ा मजाक क्या होगा? क्या नतीजा निकला आंदोलन का, लेकिन सेव आरे आंदोलन ने देश में चिपको आंदोलन, एप्पिको, केरल के सेव साइलेंट वैली और बिश्नोई आंदोलन की यादें ताजा कर दी थी और इतिहास में हमेशा याद रखने वाले आंदोलनों में दर्ज हो गया.
भोपाल की कहानी
भोपाल में भी नई विधानसभा के पीछे पुरानी जेल पहाड़ी क्षेत्र में 8 एकड़ परिक्षेत्र में कुदरती जंगल पसरा हुआ है. यहां विधायकों के लिए आवास बनाए जाने की योजना प्रस्तावित है. 2016 में जब यह योजना बनी तो उस समय एक हजार पेड़ काट डाले गए. भारी विरोध के बाद कटाई का काम रूक गया.
पर्यावरण प्रेमियों की चिंता इस बात को लेकर है कि भोपाल के बीचों-बीच इस तरह का कुदरती जंगल बनना मुश्किल है. शहर में पहले की तुलना में सिर्फ 11 फीसदी हरियाली बची है. भोपाल अब और पेड़ों की कटाई नहीं झेल सकता. नवंबर 2019 में जब एक बार फिर कटाई की तैयारी हुई, कुछ पेड़ काट भी दिए गए, तो भोपाल में सड़क से सोशल मीडिया तक बवंडर मच गया. सैकड़ों पर्यावरण प्रेमी, शहर के वाशिंदे घंटों पेड़ों से लिपटकर उन्हें काटने से रोकने उठ खड़े हुए थे.
मुख्यसचिव निर्मला बुच ने तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष को पत्र लिखकर विधायकों के लिए नए आवास का प्रस्ताव वापस लेने की मांग की. उस समय पूर्व मुख्यमंत्री रहते हुए शिवराज सिंह चौहान ने भी इस प्रोजेक्ट को आगे नहीं बढ़ाने का आग्रह किया था. अभी तो प्रस्ताव और विरोध दोनों ठंडे बस्ते में है, शिवराज सिंह चौहान वर्तमान में मुख्यमंत्री हैं, अब क्या होता है, देखना बाकी है.
बता दें कि एक समय भोपाल को ग्रीन कैपिटल के नाम से जाना जाता था, लेकिन अब इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस की रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक भोपाल में केवल 4 फीसदी हरियाली रह जाएगी. बार-बार नए पेड़ लगाने की बात होती है, लेकिन पेड़ रातों-रात तो तैयार नहीं किए जा सकते है. नए पेड़ लगाने का फायदा तो कम से कम 20 साल बाद से मिलना शुरू होगा.
कुदरत से सबक लीजिए
कुदरत ये कभी नहीं देखती कि जहां पेड़ कटे वह जंगल था या नहीं. वह सरकारों के दांव-पेंच भी नहीं देखती, अदालतों की पैंतरेबाजी या फैसलों में जल्दी या देरी भी नहीं देखती. वह यह भी नहीं देखती कि आपने इसे पर्यावरण के लिए संवेदनशील माना या नहीं. वह अपना हिसाब खुद रखती है और अपना फैसला खुद सुनाती है. जवाब जला देने वाली गर्मी, बाढ़, तूफान, भूकंप की शक्ल में देती है. आंदोलनों के नतीजे चाहे जो हो, लेकिन पर्यावरण के लिए इंसानियत को बचाने के लिए जल-जंगल-जमीन से जुड़े अधिकारों के लिए लड़ाई जारी रहनी चाहिए.
इसलिए 1974 में शुरू हुए चिपको आंदोलन के उस सूत्र वाक्य को मत भूलिए, जो कहता है...
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार,
मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार.