स्मृति शेषः सिद्धांतों की पत्रकारिता पर आजीवन अडिग रहे ललित सुरजन

ललित जी, जिनसे हम सब ‘बड़े भैया’ कहते थे, वे नहीं रहे. ललित जी 74 वर्ष के थे और दिल्ली के एक निजी अस्पताल में अंतिम सांसें लीं. ललितजी, जो आखिरी सांस तक सही और सद्भाव के पक्ष में, सांप्रदायिकता और कूपमंडूकता के खिलाफ डटकर खड़े रहे. उनका स्पष्ट मानना था अगर आप सिद्धांतों और सच की पत्रकारिता कर रहे हैं, तो दबावों और तंगियों को झेलना आपकी नियति है.

Source: News18Hindi Last updated on: December 3, 2020, 6:47 pm IST
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स्मृति शेषः सिद्धांतों की पत्रकारिता पर आजीवन अडिग रहे ललित सुरजन
ललित सुरजन आखिरी सांस तक सही और सद्भाव के पक्ष में, सांप्रदायिकता और कूपमंडूकता के खिलाफ डटकर खड़े रहे.
मुझे याद है 8 जून 2003 की वो तारीख, जब भोपाल से रायपुर पहुंचने के तीसरे दिन ‘बहाना धर्मांतरण का, मंसूबा चर्च को मंदिर बनाने का’ हेडलाइन के साथ मेरी एक खबर देशबंधु के पहले पेज पर लीड छपी थी. खबर छपते ही दुर्ग, राजनांदगांव, महासमुंद में अखबार की कापियां जलाई जाने लगीं. दफ्तर में हलचल थी, तभी सुबह-सुबह एक सहयोगी को भेजकर प्रधान संपादक ललित सुरजन जी ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और मुझे देखते ही बोले, ‘क्या सुनील आते ही हंगामा शुरू कर दिया,’ फिर थोड़ा रुककर जोरदार ठहाका लगाया और बोले- ‘कीप इट अप, देशबंधु को आदत है इन सबकी, और हां..सुनो, सच लिखने से कभी डरना मत.’ ऐसे थे ललितजी, जो आखिरी सांस तक सही और सद्भाव के पक्ष में, सांप्रदायिकता और कूपमंडूकता (Communalism and coupism) के खिलाफ डटकर खड़े रहे. उनका स्पष्ट मानना था अगर आप सिद्धांतों और सच (Principles and truth) की पत्रकारिता कर रहे हैं, तो दबावों और तंगियों को झेलना आपकी नियति है.



ललित जी, जिन्हें हम सब ‘बड़े भैया’ कहते थे, वे नहीं रहे. ललित जी 74 वर्ष के थे और दिल्ली के एक निजी अस्पताल में बुधवार 2 दिसंबर रात करीब 8 बजे उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं. पिछले कई महीनों से उनका कैंसर का इलाज चल रहा था और हाल ही ब्रेन हैमरेज (Brain haemorrhage) के बाद उन्हें पुनः अस्पताल में भर्ती कराया गया था. छत्तीसगढ़ सरकार पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार करा रही है. उनका यूं चले जाना, मुझे ही नहीं, पूरे पत्रकारिता जगत को स्तब्ध कर गया और शून्य से भर गया. उनके साथ जुड़ी तमाम स्मृतियां मनोमस्तिष्क में उमड़ पड़ी. मैं ही नहीं, न जाने कितने पत्रकारों ने पत्रकारिता की शैशव अवस्था में उनके सानिध्य में अपनी आंखें खोलीं. चलना, लिखना, पढ़ना,  खुद को गढ़ना सीखा. उन्होंने जनपक्षधरता, मानवीय मूल्यों, सामाजिक सरोकारों और विकासपरक पत्रकारिता को जितना पल्लवित पोषित किया, एक दृषिट दी, उसका उदाहरण बिरले ही मिलेगा. उनका साथ, उनकी हर बात एक शिक्षा देती थी. यही बात रही कि देशबंधु अखबार पत्रकारिता के एक स्कूल, एक रिसर्च संस्थान की तरह विकसित हुआ और देश व समाज को अनगिनत अच्छे पत्रकार दिए.



जनपक्षधरता का साथ नहीं छोड़ सकते

पत्रकारिता आज जब एक बहुत बड़ा व्यवसाय का रुप ले चुकी है, पूंजी लगाने वाले हर व्यक्ति को मुनाफा चाहिए, ऐसे दौर में हमेशा अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे ललितजी कहते थे कि ‘भाई मेरी नजर में शहरों के साथ ही भारत गांवों में बसता है, मुझे ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता में सबसे ज्यादा खुशी मिलती है. अखबार की एक रिपोर्ट किसी व्यक्ति, स्थान या स्थितियों में बेहतर बदलाव का कारण बनती है, तो उससे बड़ी उपलब्धि और खुशी क्या हो सकती है, हम जनपक्षधरता का साथ नहीं छोड़ सकते.’ यह एक बड़ी वजह रही कि देशबंधु अपनी स्थापना से लेकर हमेशा आर्थिक चुनौतियों का सामना करता रहा. बता दें कि एक ऐसा अखबार है, जिसे ग्रामीण पत्रकारिता के लिए सुविख्यात स्टेट्समैन अवार्ड आधा दर्जन से ज्यादा बार मिला है. इन सबके पीछे पिता स्व. मायाराम सुरजन के साथ ही ललित सुरजन भी एक बड़े प्रेरणास्त्रोत रहे. मै कार्यकारी संपादक के रूप में भोपाल और फिर रायपुर देशबंधु में काम करते हुए खुद अनेक अवसरों का साक्षी रहा हूं कि कई विषयों पर मतभिन्नताओं के बावजूद ललित जी की सबसे बड़ी बात यह थी व्यक्तिगत हो या संस्थानगत कार्यसंस्कृति, कार्यप्रणाली को लेकर सहयोगियों की बात सुनने का उनमें धेर्य था, वह इसके लिए तत्पर रहते थे, सही को सुनने तैयार रहते थे और गलती सुधारने में जुट भी जाते थे. यह बात नई पीढ़ी में देखने को नहीं मिलती.



सामाजिक बदलावों के लिए प्रतिबद्ध रहे

ललित सुरजन सामाजिक बदलाव के लिए आजीवन बेहद प्रतिबद्ध रहे. उनके दौर में ही रूचिर गर्ग, आलोक पुतुल, बसंत गुप्ता जैसे पत्रकारों ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों, नक्सलियों, उनकी जिंदगी, उनके इरादों को लेकर तथ्यपूर्ण, खोजी और सिस्टम को चौकन्ना करने व आइना दिखाने वाली दर्जनों रिपोर्ट कीं. सुनील कुमार, गिरिजाशंकर जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार अपनी खोजी, राजनीतिक और प्रशासनिक खबरों से सिस्टम को हिलाकर रखते थे. मैं खुशकिस्मती मानता हूं कि ललित जी सानिध्य मे रहते हुए मुझे इन सभी के साथ काम करने और सीखने का अवसर मिला. वह हमेशा संगठनों के अस्तित्व को जरूरी मानते थे और कहते थे कि आपस में बैठकर विचार-विमर्श करने से ही बदलावों के विचारों का बीजारोपण होता है. इसलिए आपस में बैठिए, बात कीजिए, कहीं भी कीजिए, वह काफी हाउस हो, घर हो, बगीचा हो या संगठन का दफ्तर.



अपने टाइम मैनेजमेंट पर गर्व

एक बार ललित सुरजन जी से किसी ने पूछा कि पत्रकारिता और अखबार के कामों में व्यस्त होने के बावजूद आप पढ़ने के लिए समय कहां से निकाल लेते हैं, तो इस पर उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि मैं अपना टाइम मैनेजमेंट ठीक से कर लेता हूं. तमाम व्यस्तताओं के बावजूद रोज कम से कम 6 घंटे पढ़ने की मेरी आदत है. मेरी पहली प्राथमिकता पढ़ना, दूसरी घूमना और तीसरी लेखन हैं. पढ़ने से विचारों, घूमने से अनुभवों का संसार बढ़ता है और लेखन से आप अपने विचारों और दृष्टि को अभिव्यक्ति देते हैं. इसलिए हर पत्रकार को पढ़ना जरूर चाहिए, मैं तो कहूंगा कि पढ़ने की आदत बचपन से ही सबको डाली जानी चाहिए. सबको प्रेमचंद का कथा संग्रह मानसरोवर, महात्मा गांधी के सत्य के प्रयोग, हरिशंकर परसाई की व्यंग रचनाओं को जरूर पढ़ना चाहिए, जब अच्छा पढ़ेंगे, तो अच्छा लिखेंगे, ये मेरा विश्वास हैं. ललित जी ऐसे बिरले संपादकों में से रहे, जिनका स्तंभ पिछले 19 साल से हर सप्ताह लगातार छपता रहा.



जन्म, जीवन और पत्रकारिता

जबलपुर से 1961 में एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में अपनी पत्रकारिता की शुरुआत करते हुए संपादन, प्रबंधन से लेकर उत्पादन तक अखबार के हर काम से जुड़े रहे, वह खुद कहते थे कि उस दौर में जब कई चुनौतियां थी, तब उन्होंने अखबार के बंडल भी बांधे. उनका कोई शत्रु नहीं था, वह देशबंधु को पत्रकारों, पाठकों का अखबार मानते थे. इसलिए उनके अखबार की टैगलाइन ही रही है ‘पत्र नहीं मित्र ’. अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उन्हें पढ़ने-लिखने का माहौल विरासत में मिला. साहित्य से पत्रकारिता की ओर जुड़ाव पिता से मिला. पत्रकारिता के शुरूआती गुर प्रख्यात पत्रकार राजू दा याने पं. राजनारायण मिश्रा से सीखे.



अपने लगभग 6 दशक के पत्रकारिता के सफर में साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता रही. देशबंधु संदर्भ से मिली जानकारी के मुताबिक 1969 में वह रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर में पत्रकारिता विभाग के मानसेवी विभाग अध्यक्ष रहे. ललित सुरजन को 1977 में थामसन फाउण्डेशन (Thomson Foundation UK) यूके की वरिष्ठ पत्रकार फैलोशिप के लिए चुना गया. वह शिक्षाविद् भी थे. उन्होंने राष्ट्रीय प्रौद्योगिक संस्थान बोर्ड आफ रायपुर (National Institute of Technology Board of Raipur) बोर्ड आफ गवर्नर्स के चेयरमेन रहने के अलावा राष्ट्रीय साक्षरता मिशन तथा सर्व शिक्षा अभियान, तकनीक शिक्षा परिषद में उपाध्यक्ष और सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निभाई. वह अनेक सामाजिक साहित्यिक और पर्यावरण की दिशा में काम कर रहीं संस्थाओं से जुड़े रहे और उनके पोषक, प्रेरक के रूप में काम करते रहे. उनकी पहचान के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रही. अब तक उनके कई कविता संकलन, निबंध संग्रह, यात्रा संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं. (डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
सुनील कुमार गुप्ता

सुनील कुमार गुप्तावरिष्ठ पत्रकार

सामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.

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First published: December 3, 2020, 6:47 pm IST

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