यूं तो मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) की गिनती मक्का उत्पादक प्रदेशों में नहीं होती, लेकिन सिवनी, छिंदवाड़ा जिलों में मक्का ही सबसे ज्यादा पैदा होता है.
Source: News18Hindi Last updated on: June 23, 2020, 1:52 pm IST
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किसान का ऑनलाइन सत्याग्रह करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गौरव, शुभम, सतीश, विजय बताते हैं कि अभी तो लड़ाई की शुरूआत है, बारिश का दौर थमने के बाद पूरे ऑनलाइन धरना शुरू करने की तैयारी है.
भोपाल. मिसाल बने मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के उन किसानों का मस्ताभिषेक करिए, उनके संघर्ष के जज्बे को सलाम कीजिए, जो सरकार की दोहरी नीतियों, कोरोना और कुदरत की मार के चलते अपना सब कुछ लुटाने के बावजूद न झुकने को तैयार हैं, न टूटने को. लॉकडाउन ने जमीन पर तो उनका आंदोलन लॉक कर दिया, लेकिन यू-ट्यूब, ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया (Social Media) प्लेटफॉर्म्स को हथियार बना कर हक के लिए उनकी लड़ाई ने देश भर के किसानों को सरकारों और ध्वस्त सिस्टम से भिड़ने का नया रास्ता जरूर दिखा दिया है. सिवनी, छिंदवाड़ा (Chhindwara) जिले के गांवों से निकला अन्नदाता का ऑनलाइन आंदोलन अब आधा दर्जन से अधिक राज्यों का आंदोलन बन चुका है. मक्का के लिए तय एमएसपी याने न्यूनतम समर्थन मूल्य पाने के लिए ऑनलाइन सत्याग्रह की सफलता से अनूठी मिसाल का कायम कर अब यह किसान ऑनलाइन धरने के जरिए मशाल जलाने की तैयारी कर रहे हैं.
राजनीतिक दलों को आपने तो ट्विटर, इंस्टाग्राम पर अपनी सुबह से लेकर शाम की गतिविधियों को संचालित करते और सियासी जंग लड़ते खूब देखा होगा, लेकिन अपनी मांगों को लेकर प्ले कार्ड, कविता, नारे, वीडियो और तो और पूरे प्रदेश में अन्नदाता के लिए अन्नत्याग के नारे लिए क्रमबध्द उपवास का वचुर्अल आंदोलन संभवत: मप्र में ही पहली बार देखने को मिला. करीब तीन हफ्ते पहले इस आंदोलन की नींव रखी सिवनी जिले के 10-12 युवा किसानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने, जो शिक्षित हैं और जिन्होंने हिन्दुस्तान हो या हांगकांग या मिस्र अथवा तेहरान सभी जगह आंदोलनों में सोशल मीडिया के महत्व को बखूबी देखा, समझा है.
इन्हीं युवाओं की टीम में से एक सदस्य गौरव जायसवाल कहते हैं कि क्या करें, सरकारें किसानों का दर्द सुनने को तैयार ही नहीं. पिछली बार भी मक्का की फसल के पंजीयन के लिए हजारों किसानों को आंदोलन करना पड़ा था. इस बार कोरोना महामारी के बाद लॉकडाउन के कारण ऑनलाइन आंदोलन को प्रयोग के तौर पर आज़माने का सोचा. सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया और आंदोलन को नाम दिया किसान सत्याग्रह. इसी नाम से उन्होंने फेसबुक पेज, ट्विटर एकाउंट और वॉट्सऐप ग्रुप बनाए हैं. फेसबुक पेज से ही दो लाख से ज्यादा लोग जुड़ चुके हैं. रोज दो से ढाई लाख लोगों का समर्थन मिल रहा है. राष्ट्रीय स्तर पर किसान नेता वीएम सिंह और मुल्ताई के पूर्व विधायक डॉ. सुनीलम् ने समर्थन में अपने-अपने वीडियो जारी किए हैं.
मध्यप्रदेश में मक्का
यूं तो मप्र की गिनती मक्का उत्पादक प्रदेशों में नहीं होती, लेकिन सिवनी, छिंदवाड़ा जिलों में मक्का ही सबसे ज्यादा पैदा होता है. राज्य के कई अन्य जिलों में भी मक्का की खेती होती हैं, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं. बंपर मक्का की पैदावार देखने के बाद तो पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने छिंदवाड़ा में कॉर्न फेस्टिवल याने मक्का उत्सव का आयोजन भी किया था, बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुई, बड़े बड़े सपने दिखाए गए. 22 मार्च 2020 आते-आते कमलनाथ मुख्यमंत्री नहीं रहे. शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में नई सरकार बनने के बाद सारे सपने धड़ाम हो गए.
क्यों गिरे मक्का के दाम
गौरव जायसवाल बताते हैं कि देश में मक्का के दाम गिरने की दो प्रमुख वजहें सामने आई हैं. पहली-पिछले सीजन का मक्का दिसंबर और जनवरी तक खुले बाजार में 2100-2500 रुपए क्विंटल तक बिका. हालांकि सरकार ने मक्का का समर्थन मूल्य 1760 रुपए तय कर रखा था, लेकिन जब किसानों को अच्छे दाम मिल रहे थे, उसी समय सरकार ने रूस, यूक्रेन और बर्मा से मक्का का आयात शुरू कर दिया. नतीजतन मक्का के दाम गिरकर 1400 रुपए क्विंटल तक आ गए. तब किसानों ने इस उम्मीद में अपना मक्का बेचना रोक लिया, कि शायद महीने-दो महीने में आयात रुकने पर दाम 100-200 रुपए बढ़ जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. दूसरी-मार्च में भारत में कोरोना महामारी फैल गई.
लॉकडाउन के बीच देश में यह अफवाह फैल गई कि अंडा-चिकन खाने से कोरोना हो सकता है. इस अफवाह के बाद पूरा पोल्ट्री उद्योग धराशायी हो गया. पोल्ट्री फीड के रूप में मक्का की सर्वाधिक मांग होती है. मक्का की मांग एकदम खत्म हो गई और दाम गिरकर 800 से 1000 रुपए तक आ गए. बाजार में केवल स्टॉक करने वाली कंपनियां ही बचीं. शुरुआत में आंदोलन से कुछ दबाव बना और जबलपुर मंडी बोर्ड ने आदेश दिया कि कृषि उपज मंडी अधिनियम 1972 की धारा 36(3) के तहत मक्का समर्थन मूल्य से कम में नहीं बिकना चाहिए, लेकिन दामों में गिरावट जस की तस रही.
अनाज की एमएसपी पर बिक्री सरकारों की जिम्मेदारी
केन्द्र सरकार एमएसपी तय करती है. राज्य का काम मंडियों में एमएसपी पर बिक्री सुनिश्चित कराना है. सरकार का ये कैसा मजाक है कि जिस वक्त किसान का मक्का 800-900 रुपए क्विंटल बिक रहा है, तब उसने मक्का का एमएसपी 1760 रुपए से बढ़ाकर 1850 रुपए क्विंटल कर दिया गया. वास्तव में जमीन पर तो वह आधी कीमत पर ही बिक रहा है, यह तो मंडी एक्ट का भी सरासर उल्लंघन है. कमीशन कॉस्ट एंड प्राइसेस के मुताबिक एक क्विंटल मक्का पैदा करने के लिए किसान को 1,213 रुपए खर्च करना पड़ने हैं, हालांकि गौरव बताते हैं कि एक एकड़ में 8 किलो मक्का बोया जाता है, जिसकी लागत किसान को 3500 रुपया आती है, क्योंकि 400 से 450 रुपए किलो की अनुमानित दर से मक्का बीज किसान को खरीदना पड़ता है, दीगर खर्चे सो अलग.
किसानों को करोड़ों का नुकसान
एक युवा किसान शुभम के मुताबिक मध्यप्रदेश के सिवनी जिले का उदाहरण लें, तो यहां पिछले सीजन में लगभग 4 लाख 35 हजार एकड़ में मक्का बोया गया था. एमएसपी न मिलने से किसानों को प्रति एकड़ 15 से 16 हजार रुपए के करीब घाटा हो रहा है. अकेले सिवनी जिले में किसानों को करीब 600 करोड़ रुपए के नुकसान का अनुमान है. इसी प्रकार छिंदवाड़ा में 2.95 लाख हेक्टेयर में मक्का बोया गया. इस साल फरवरी तक 12 लाख क्विंटल तक मक्का मंडी में आया, जबकि पिछले साल मंडी ने 36 लाख क्विंटल मक्का खरीदा था.
कैसे बनेगा आत्मनिर्भर किसान
गौरव जायसवाल कहते हैं कि जो फसलें भारत में उग रही हैं, अगर आप उनका ही विदेशों से आयात करोगे तो भारत कैसे आत्मनिर्भर बनेगा. सबसे पहले यह तय होना चाहिए कि जिन फसलों का भारत में उत्पादन हो रहा है, जब तक वह पूरा सौ फीसदी उत्पादन देश में ही नहीं बिक जाता है, तब तक उसका आयात नहीं करना है, आत्म निर्भर भारत का यही पहला कदम होना चाहिए, जबकि हो इसका उल्टा रहा है. ऐसे में किसान फसल क्यों उगाएगा? पिछले साल भी सरकार ने 5 लाख मीट्रिक टन मक्का आयात किया था, जिसकी सीधी चोट देश के किसानों पर पड़ी थी.
इन राज्यों से मिला आंदोलन को समर्थन
बिहार, तमिलनाडु, हरियाणा, राजस्थान, उप्र से किसान संगठनों का आंदोलन को भारी समर्थन मिला। इन राज्यों के किसान, सामाजिक कार्यकर्ता समर्थन में अपने-अपने वीडियो भेज रहे हैं. देशभर में ऐसे हजारों मक्का किसान हैं, जिन्हें इस साल लागत मूल्य भी नहीं मिल पाया. उदाहरण के रुप में बिहार में मक्का बहुत पैदा होता है, वहां कम दामों में मक्का की बिक्री बड़ा मुद्दा है. बिहार में विधानसभा चुनाव भी होने हैं, इसलिए माना जा रहा है कि वहां शायद किसानों को राहत मिल जाए.
न दाम मिला, न बोनस, न भावांतर
गौरव जायसवाल कहते हैं कि मप्र में भी 24 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं, लेकिन यदि सिवनी, छिंदवाड़ा में ये चुनाव होते तो यहां भी राहत मिल गई होती, लेकिन यहां अभी किसी का वोट नहीं चाहिए, तो कोई सुन भी नहीं रहा. उम्मीद थी कि किसानों को सरकार की ओर से राहत मिलेगी, लेकिन न दाम मिला, न बोनस, न भावांतर योजना का लाभ। हर साल की तरह इस बार भी मध्यप्रदेश के मक्का उत्पादक किसान सरकार की दोगली नीतियों के चलते निजी कारोबारियों के हाथों लुट गए. हमारी सबसे प्रमुख मांग है कि सरकार किसानों का मक्का न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खुद खरीदे.
अब मार रहा मानसून
मक्का प्रदेश में मानसून को दस्तक दिए एक हफ्ता होने को आया है. अभी भी किसानों का हजारों क्विंटल मक्का नहीं बिक पाया है. सिवनी जैसी जगहों पर वेयर हाउस जैसी बेहतर सुविधाएं तो हैं नहीं, ऐसे में बाड़ों में तिरपाल के भरोसे रखा यह मक्का खराब हो रहा है, उसका प्रोटीन लॉस हो रहा, दाना काला पड़ रहा है. दूसरी ओर नए सीजन की बोआई भी होनी है, जिसके लिए किसान बारिश कुछ थमने का इंतजार कर रहे हैं, ताकि खेतों को बोआई के लायक बना सकें. इस मौसम में मक्का और धान की बोआई की जाना है. मक्का एक ऐसी फसल है जो रबी और खरीफ दोनों सीजन में बोयी जाती है.
हार नहीं मानेंगे
किसान का ऑनलाइन सत्याग्रह करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गौरव, शुभम, सतीश, विजय बताते हैं कि अभी तो लड़ाई की शुरूआत है, बारिश का दौर थमने के बाद पूरे ऑनलाइन धरना शुरू करने की तैयारी है. गौरव कहते हैं कि देखेंगे कि अहिंसा की राह पर चलते हुए कैसे-कैसे आंदोलन किया जा सकता है. हम नवाचार अपनाएंगे, किसानों को जगाएंगे, क्योंकि अभी आंदोलन रुक गया, तो इस मौसम में जो मक्का की फसल उपजेगी, उसकी खरीदी के लिए सरकार पंजीयन तक नहीं करेगी, पिछले आंदोलनों से हमें यह सीख मिली है. इस बार और जोश-खरोश के साथ पूरे देश के लोगों को जोड़ा जाएगा, क्योंकि ये सबकी बात है, दो-चार दस की बात नहीं.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
सामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.