मप्र हो या राजस्थान, देश में कोई राज्य सरकार यह कबूल नहीं करती कि उसके यहां प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं (Primary Health Services) का ढांचा कमजोर और बदहाल है, यही नवजात बच्चों (Newborn Baby) की अकाल मौतों की वजह है. क्योंकि इस कबूलनामे के साथ ही उसकी उन तमाम योजनाओं की कलई खुल जाएगी, जो उसने मातृ-शिशु स्वास्थ्य सेवा, जननी सुरक्षा योजना, जननी एक्सप्रेस, शिशु और बाल पोषण, बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के नाम पर चला रखी हैं. इसलिए बच्चों की मौत कहीं भी होती है, तो उसके लिए निमोनिया, डायरिया, संक्रमण, दूध पिलाने में मां की गलती, अस्पताल लाने में परिजनों की देरी जैसे कारण गिना दिए जाते हैं. हाल ही मप्र के शहडोल जिला अस्पताल में बीते 12 दिन में 18 और राजस्थान के कोटा में 9 दिसंबर को 24 घंटे में 9 शिशुओं की मौतों में ऐसे ही कारण गिनाकर, उन्हें सामान्य बताकर अपनी जिम्मेदारियों पर पल्ला झाड़ने की कोशिश की गई. दोनों ही राज्यों में एक बात समान देखने को मिली, जब यहां के स्वास्थ्य मंत्रियों ने कहा कि बच्चों के इलाज में अस्पताल की ओर से कोई लापरवाही नहीं बरती गई और मौतें अलग-अलग कारणों से होना बताया.
बच्चों की कब्रगाह बने इन अस्पतालों के अधीक्षकों ने दलील दी कि जो बच्चे अस्पताल पहुंचे, वह पहले ही दम तोड़ चुके थे अथवा गंभीर यानी क्रिटिकल कंडीशन में थे. दोनों ही राज्यों में हल्ला मचने पर जांच के लिए कमेटियां (Committees for investigation) बना दी गईं. आनन-फानन इलाज के तात्कालिक इंतजाम कर दिए गए और कुछ अफसरों को हटा दिया गया. सिस्टम के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं है कि अस्पताल में शिशु-स्त्री रोग विशेषज्ञों (Pediatric Gynecologists) के पद वर्षों से क्यों खाली पड़े हुए हैं? बिस्तरों की कमी क्यों है? क्यों एक ही बेड पर दो-दो, तीन-तीन शिशुओं का इलाज चल रहा है? क्यों गर्भवती माताएं कड़कड़ाती ठंड में फर्श पर लेटने को मजबूर हैं? क्यों दवा, गोली, जांच के पर्याप्त इंतजाम नहीं हैं? सरकारी अस्पतालों की बदहालियों और तंत्र की नाकामियों से उपजे यह तमाम सवाल हैं, जिन पर विधानसभाओं तक में बहस तो खूब होती है, लेकिन नतीजा सिफर रहता है.
शहडोल अस्पताल में हुई 18 बच्चों की मौत
मध्य प्रदेश के शहडोल जिला अस्पताल में 26 नवंबर से 8 दिसंबर तक 18 शिशुओं की मौतों की खबर सुर्खियों में आने के बाद हड़कंप मच गया था. पहले इन मौतों को छिपाया गया और कुल 13 मौतें होना बताया, लेकिन बीते मंगलवार को जब स्वास्थ्य मंत्री डॉ. प्रभुराम चौधरी वहां पहुंचे, तो 18 बच्चों की मौतें होने का पता चला. इससे पहले चौधरी कह रहे थे कि बच्चों के इलाज में कोई लापरवाही की बात सामने नहीं आई है. यह भी हकीकत सामने आई कि 20 बिस्तरों वाले इस अस्पताल में 33 से ज्यादा शिशु भर्ती हैं. समीक्षा बैठक के बाद मंत्रीजी एक्शन में आए और मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. राजेश पाण्डे और सिविल सर्जन वीएस वारिया को हटा दिया. जांच के लिए कमेटी बना दी गई. 18 में से करीब 10 बच्चों की मौतें निमोनिया से होने की बात कही गई है. बता दें कि शहडोल जिला अस्पताल में बुढ़ार, बरतरा बिरूहली, बरतरा सोहागपुर, छाता, खैरहनी सहित सैकड़ों गांवों की लोग इलाज और महिलाएं प्रसूति के लिए आती हैं, इन सभी जगहों में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र या प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तो हैं, लेकिन सभी सुविधा शून्य हैं, डॉक्टर, विशेषज्ञ नदारद हैं. शहडोल के डिवीजनल कमिश्नर नरेश पाल के अनुसार अब नई गहन शिशु चिकित्सा इकाई (NICU) भी शुरू की जा रही है और जरूरी मशीनें भी खरीदी जा रही हैं. जिला अस्पताल में भी बच्चों के बेहतर इलाज के लिए बेड्स की संख्या बढ़ाई जा रही है, रोज मॉनिटरिंग के इंतजाम किए जा रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि यह कदम पहले ही उठा लिए जाते और निगरानी मुस्तैद रखी जाती तो गरीबों के बच्चों को जान क्यों गंवाना पड़ती. बता दें कि इसी अस्पताल में पिछले 8 महीनों में 362 शिशुओं की मृत्यु हो चुकी है.
अस्पतालों में सुविधाओं का टोटा
स्वास्थ्य सेवाओं (Health Services) की हालत कितनी गंभीर है, इसका अनुमान एक अध्ययन से लगा सकते हैं. एक सामाजिक संगठन मप्र लोक सहभागी साझा मंच ने इसी साल अप्रैल में प्रदेश के 9 जिलों छतरपुर, जबलपुर, मंडला, दमोह, रीवा, शहडोल, शिवपुरी, राजगढ़ और सतना के जिला से गांव स्तर तक के स्वास्थ्य संस्थानों का अध्ययन किया था और इस बारे में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) भोपाल में पदस्थ ज्वाइंट डायरेक्टर मेटरनल हेल्थ सुश्री अर्चना मिश्रा को एक रिपोर्ट सौंप कर स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों को गिनाते सुधार की मांग की थी. मंच की राज्य समन्यवक (State Co-ordinator) सुश्री उपासना बेहार ने हमें बताया कि शहडोल जिला अस्पताल में, जहां 18 बच्चों की मौत के मामले सामने आये हैं, वहां स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत बेहद खस्ता है. उन्होंने बताया कि हमने जिला अस्पताल, सामुदायिक, प्राथमिक और उप प्राथमिक व उप स्वास्थ्य केन्द्रों का अध्ययन किया था. हमने पाया कि शहडोल में स्त्री रोग विशेषज्ञ के 4 पद स्वीकृत हैं, जबकि केवल एक पदस्थ हैं. एनेस्थेटिस्ट के 2 पद स्वीकृत हैं, लेकिन एक भी पदस्थ नहीं हैं. इसी प्रकार शिशु रोग विशेषज्ञ के 7 पद स्वीकृत हैं, लेकिन केवल 1 पदस्थ है. जनरल सर्जन के 2 पद स्वीकृत हैं, लेकिन एक भी पदस्थ नहीं है, स्टाफ नर्सों की कमी है. एंडोस्कोपी और सीटी स्केनर की व्यवस्था नहीं हैं.
विशेष नवजात यूनिट में बाल रोग विशेषज्ञ के 4 पद स्वीकृत हैं, जबकि एक भी पदस्थ नहीं है. पोषण पुनर्वास केन्द्र में 2 पद स्वीकृत हैं, लेकिन एक ही पदस्थ है. मंच ने अपने अध्ययन में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों को भी बदहाल पाया. उदाहरण के लिए जिले के बुढार सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र को लीजिए, तो मेडिसन, सर्जरी, बाल रोग, स्त्री रोग, आपातकालीन प्रसूति देखभाल, सोनोग्राफी के लिए कोई विशेषज्ञ चिकित्सक है ही नहीं. स्वास्थ्य सहायक और स्वास्थ्य प्रशिक्षक भी नहीं है. बीमार नवजात के लिए सिरम बिलरूबिन, सीमन विश्लेषण की जांच, हेपेटाइटिस बी, सीबीसी, ग्लूकोस टॉलरेंस जांच, प्लेटलेट काउंट, अल्ट्रासाउंड, सोनोग्राफी और गर्भाशय कैंसर से बचाव के लिए पेप स्मीअर जांच केन्द्र में होती ही नहीं है. वेंटीलेटर, सोनोग्राफी मशीन नहीं है. ब्लड बैंक, ब्लड स्टोरेज, अपशिष्ट प्रबंधन की व्यवस्थाओं का भी अभाव है. कमोवेश ऐसी ही बदहाली शहडोल जिले के बरतरा बिरूहली, बरतरा सोहागपुर प्राथमिक स्वास्थ्य और छाता, खैरहनी उपस्वास्थ्य केन्द्रों में भी है. इन केन्द्रों जरूरी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है.
उपासना बताती हैं कि बच्चों की मौतों के पीछे बड़ा कारण कुपोषण तो है ही, जिसके चलते प्रसूति योग्य माताओं और उनके होने वाले बच्चे की इम्युनिटी बेहद कमजोर होती है और वह शीघ्र ही निमोनिया, डायरिया, संक्रमण या अन्य बीमारियों के जल्द शिकार हो जाते हैं. इसके अलावा अस्पताल तक कैसे पहुंचे, इसके प्रति ग्रामीण जनता में जागरूकता की बेहद कमी है. सड़कें खराब हैं. इन स्थितियों में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि राज्य सरकार द्वारा चलाई गईं मातृ, शिशु स्वास्थ्य सेवा, जननी सुरक्षा योजना, जननी एक्सप्रेस, शिशु और बाल पोषण, बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम सहित कई योजनाएं क्या केवल कागजों पर चल रही हैं, कई सालों बाद भी गांवों तक इनकी पहुंच क्यों नहीं हो पायी है? दर्जनों इस तरह की खबरें मिलती हैं, कि गर्भवती महिला के एबुंलेंस या अन्य साधन नहीं मिलने से अस्पताल की चौखट तक पहुंचने से पहले ही रास्ते में डिलिवरी हो गई. दुनिया में आने पर नवजात की जिंदगी नहीं, मौत देखने को मिली.
सागर में तीन महीने में 92 बच्चों की मौत
शहडोल की तरह मप्र के सागर जिले के बुंदेलखंड मेडिकल कॉलेज के सघन चिकित्सा इकाइयों में तीन महीनों के दौरान भर्ती 92 नवजातों की इलाज के दौरान मौत की खबर ने भी सबको चौंका कर रख दिया है. सिर्फ नवंबर माह ही 37 नवजातों की मौत हो गई थी. इससे पहले अक्टूबर के महीने में 32 और सितंबर में 23 नवजातों की जान जा चुकी है. कालेज के डीन डॉ. आरएस वर्मा ने माना कि अस्पताल में डॉक्टरों और संसाधनों की कमी तो एक कारण है ही, लेकिन कहा कि बच्चों की मौतों की सबसे बड़ी वजह परिजनों द्वारा बच्चों को देरी से इलाज के लिए लाना है.
कोटा में 24 घंटे में 9 बच्चों की मौतों ने हिलाया
वहीं राजस्थान के कोटा का जेके लोन अस्पताल (JK Lone Hospital) 9 दिसंबर को तब सुर्खियों में आया, जब यहां 24 घंटे में 9 बच्चों की मौत हो गई. गुरुवार को राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा ने मेडिकल कालेज के डीन डॉ. सरदाना और जेके लोन अस्पताल के अधीक्षक एससी दुलारा से बात करने के बाद कहा कि स्टाफ की लापरवाही की वजह से बच्चों की मौत होना नहीं पाया गया है. 3 बच्चे मृत अवस्था में अस्पताल लाए गए थे. 3 बच्चे जन्मजात बीमारी की वजह से मरे. बाकी तीन बच्चों की मौत के पीछे सीओटी याने दूध पिलाते वक्त मां से गलती के चलते दम घुटना कारण था. मरने वाले सभी बच्चों की उम्र 1 से 7 दिन थी. यहां भी 65 बिस्तरों वाले अस्पताल में सौ से ज्यादा बच्चों का इलाज होता पाया गया.
मीडिया की पड़ताल में अस्पताल में सुविधाओं का अभाव देखने को मिला. एनआईसीयू में ईसीजी मशीन, वार्मिंग सिस्टम खराब पाए गए. एक-एक वार्मर पर दो-दो बच्चों का इलाज हो रहा था. इन मौतों के बाद यहां 12 और बिस्तरों वाला एनआईसीयू शुरू करने की कवायद शुरू हुई है. अधीक्षक के मुताबिक इस अस्पताल में ज्यादातर मरीज कोटा, बूंदी, झालावाड़ और बरन जिलों से आते हैं, जिस वक्त वो यहां आते हैं, उनकी तबियत बहुत बिगड़ी होती है. बड़ी संख्या में शिशुओं की मौत के पीछे भी देर से अस्पताल पहुंचना बड़ा कारण है. बता दें कि इसी अस्पताल में 2019 में 963 बच्चों ने दम तोड़ा था. अकेले दिसंबर 2019 में यहां 107 बच्चों की मौत हुई थी, जिस पर काफी हंगामा मचा था और जबरदस्त सियासत देखने को मिली थी, लेकिन अभी साल बीतने से पहले ही व्यवस्थाएं पुराने ढर्रे पर पहुंच गई हैं.
बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें मप्र में
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली (HMIS) की एक रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य संकेतकों की लिस्ट में मप्र सबसे निचले पायदान पर है. राज्य में वर्ष 2019-20 में शिशु मृत्यु (Infant Deaths) की अधिकतम संख्या 31,586 है. इस लिस्ट में सबसे ऊपर राजधानी भोपाल का नाम है, जहां 1,431 शिशुओं की मृत्यु हुई हैं. इसके बाद सतना और छतरपुर का नंबर है, ये दोनों ही जिले कुपोषण के लिए कुख्यात हैं. राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं की खराब स्थिति का इससे भी अनुमान लगाया जा सकता है कि बीमारू की श्रेणी में शुमार किए जाने वाल यूपी, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का भी प्रदर्शन मप्र से बेहतर है. 2019-20 के लिए HMIS डेटा के मुताबिक मप्र में 31,586 शिशुओं की मृत्यु के विरुद्ध, यूपी ने केवल 11,288 और बिहार और छत्तीसगढ़ ने 8,913 और 7,868 शिशुओं की मृत्यु दर्ज की है. सेम्पल रजिस्ट्रेशन सर्वे (SRS) की 2018 की इस साल जून में जारी रिपोर्ट बताती है कि देश में शिशु मृत्यु दर (IMR) 1000 में से 32 बच्चों की है, लेकिन मप्र में यह 48 है और राजस्थान में 38 है, जो मौतों के राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है.
लगातार बढ़ती जा रहीं बच्चों की मौतें
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन द्वारा जारी हेल्थ बुलेटिन के अनुसार बीते 5 सालों में प्रदेश में शिशुओं की मौत के आंकड़ों पर नजर डालें तो 2014-15 में 23634, 2015-16 में 23152, 2016-17 में 22003, 2017-18 में 27560 और 2018-19 में 31944 शिशुओं की मौत हुई. आंकड़ों पर गौर करने पर आप पाएंगे कि राज्य में इन पांच वर्षों में शिशु स्वास्थ्य सेवाओं की हालत कमजोर होती चली गई है और बच्चों की मौतें बढ़ती जा रही हैं. मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में हालात अच्छे हैं. ग्रामीण इलाकों में शिशु मृत्युदर का आंकड़ा प्रति हजार पर 52 और शहरी क्षेत्र में 36 है. राज्य में कुल आबादी में से 20.3 फीसदी आबादी अनुसूचित वर्ग के लोगों की है, यह एक बड़ी संख्या है, जहां साक्षरता, पोषण, स्वास्थ्य सुविधाएं सभी कुछ कम है.
देश की मौजूदा स्थिति, कितना हुआ सुधार
अभी देश में शिशु मृत्यु दर प्रति हजार शिशुओं पर 32 है. देश में शिशु मृत्युदर में कुछ सुधार भी हुआ है. 11 साल में 42 प्रतिशत की कमी आई है. 2006 में पैदा होने वाले प्रति 1000 बच्चों में 57 मर जाते थे तो 2017 में मरने वाले बच्चों की संख्या प्रति एक हज़ार पर 33 हो गई. इसके बाद भी यह दुनिया भर में सबसे अधिक है. मध्य प्रदेश, असम और अरुणाचल प्रदेश में नवजात शिशु मृत्यु दर बहुत अधिक है. यूपी में 1000 बच्चों पर 41 बच्चे मर जाते हैं. इस मामले में नागालैंड, गोवा, केरल, सिक्किम, पुड्डूचेरी और मणिपुर का सबसे अच्छा रिकार्ड है. केरल की बात करें तो वहां शिशु मृत्यु दर प्रति हजार सिर्फ 7 है. 11 सालों में सबसे अधिक सुधार दिल्ली और तमिलनाडु ने किया है. केरल में सामाजिक नीतियों का लंबा इतिहास है. केरल में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र विकेन्द्रीकृत हैं और पंचायत के नीचे आते हैं, जिससे लोग भी जवाबदेही मांग सकते हैं. साथ ही केरल में महिलाओं को समाज में बेहतर दर्जा दिया गया है.
क्या कहती हैं WHO की गाइडलाइंस
देश के सरकारी अस्पतालों में 81 फीसदी बाल रोग विशेषज्ञों की कमी है. देश में करीब 75 हजार बाल चिकित्सक हैं. इसमें से मप्र में करीब 2 हजार शिशु रोग विशेषज्ञ ही हैं, ऐसे में बेहतर इलाज की बात बेमानी साबित हो रही है. सोचिए जब डॉक्टर ही नहीं होगा, तो अस्पतालों और वहां भर्ती शिशुओं, माताओं का क्या हाल होगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइंस के अनुसार प्रति हजार बच्चों पर एक चिकित्सक होना जरूरी है, लेकिन मप्र में डॉक्टरों की कमी का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि राज्य में औसतन ढाई से तीन हजार बच्चों पर केवल एक डॉक्टर की उपलब्धता है.
स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. वीणा कहती हैं कि शिशु मृत्यु के कई कारण होते हैं, मसलन कम उम्र में शादी होना, गर्भावस्था में माता के पोषण में कमी, दो बच्चों के बीच कम अंतराल, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव. उन्होंने बताया कि नवजात बच्चों की मृत्यु का कारण जन्म संबंधी जटिलताएं, सेप्सिस, इंफेक्शन, डायरिया, सांस लेने में दिक्कत, प्रीमैच्योर जन्म, हैपोथेरमिया और कम वजन से जुड़ी समस्याओं में से कुछ भी हो सकता है. केरल और तमिलनाडु में जहां हालात बेहतर हैं, उसके पीछे महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहन देना, शादी की उम्र को बढ़ाया जाना और मां के पोषण का ख्याल रखना बड़े कारण हैं. साथ ही माताएं काम पर ना जाए उसके लिए मातृत्व भत्ते की व्यवस्था भी की गई है.
मप्र में ज्यादा मौतों के लिए कुपोषण जिम्मेदार
राज्य के शहडोल ही नहीं, बल्कि मंडला, डिंडोरी, अलीराज पुर समेत तमाम आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर बहुत अधिक है. इन सबके पीछे कुपोषण बड़ा कारण है. राज्य सरकार विभिन्न योजनाओं के माध्यम से पोषण आहार पर सालाना करीब 2000 करोड़ रुपए खर्च करती है, लेकिन फिर भी बच्चों में कुपोषण कम होने की बजाय बढ़ता ही जाता है और मौतों की संख्या में भी वृद्धि हो रही है. सामाजिक कार्यकर्ता सुश्री उपासना बेहार कहती हैं कि अगर मां कमजोर और कुपोषित है, तो बच्चा तो कमजोर होगा ही, साथ ही कई बीमारियों का शिकार भी होगा. इसके के लिए वह सारे विभाग जिम्मेदार हैं, जो इस काम से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं.
एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता का आरोप है कि पोषण आहार बनाने से लेकर बांटने तक खर्च होने वाले इस बजट में नेता, अफसर से लेकर आंगनबाड़ी कार्यकर्ता तक बड़े पैमाने पर बंदरबाट होती है. पोषण आहार वितरण में भ्रष्टाचार की वजह से जरूरतमंद लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है. पूरी प्रणाली को विकेन्द्रीकृत करने की बजाय केन्द्रीकृत कर दिया गया. अब जब एक बार फिर कुपोषण के कारण मौतों की बात उठ रही है, तो राज्य की शिवराज सरकार पोषण आहार का काम स्व-सहायता समूहों के माध्यम से करवाने की बात कर रही है. संभवतः नए साल में यह काम समूहों को सौंप दिया जाए. अभी इस प्रस्ताव पर कैबिनेट की मुहर लगनी है, जल्द शुरू होने वाले विधानसभा के नए सत्र में बिल पेश किया जा सकता है. अर्थशास्त्री प्रो. डॉ. रेखा आचार्य मानती है कि राज्य के घरेलू सकल उत्पाद का स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च मात्र 2.8 फीसदी है, जो भारत के 18 राज्यों में सबसे कम है. इसे बढ़ाए जाने की जरूरत है. यह बात ध्यान में रखना होगा कि लोगों के जीवनयापन का स्तर, पोषण आहार का परिवार के सदस्यों में बंट जाना और गर्भवती महिला की कम कमाई, ये सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
(डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.)