तू बोलेगी, मुंह खोलेगी, तब ही तो जमाना बदलेगा

सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में संशोधित हिंदू उत्तराधिकार कानून को लेकर अदालत के ही विरोधाभासी फैसलों से पैदा असमंजस और भ्रम को दूर करते हुए साफ कहा कि पिता की संपत्ति में बेटियां भी बराबर की हकदार होंगी, चाहे पिता की मृत्यु 2005 से पहले ही क्यों न हो गई हो.

Source: News18Hindi Last updated on: August 12, 2020, 12:33 pm IST
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तू बोलेगी, मुंह खोलेगी, तब ही तो जमाना बदलेगा
2005 में कानून में संशोधन से पहले हिंदू अविभाजित परिवार के हमवारिस बेटे ही हो सकते थे.
मेरी बहना, राखी की रीत निभाऊंगा मैं,

जब-जब कमजोर पड़ोगी तुम, ढाल बन जाऊंगा मैं,

मेरी बिटिया, तुम तो हो इस घर का गहना,

तुम हो देवी, त्याग की देवी,

तुम हो बुलबुल, हो बगिया की फूल

घर-आंगन की बगिया में खूब फुदकना,

खूब चहकना, खूब महकना।



भावनाओं की लहरों पर सवार ये कविताओं जैसे जुमले अक्सर सुने होंगे. शायद खुद भी कभी बोले हों, लेकिन यही बेटी जब वक्त आने पर अपने हक की बात करती है, तो अपने ही भाई, मां-बाप की आंखों की किरकिरी बन जाती है, दुश्मन सी दिखने लगती है. धर्म चाहे जो हो, सदियों से पितृसत्तात्मक मानसिकता और रूढि़वादी परंपराओं के बोझ तले दबा समाज आसानी से पैतृक संपत्ति पर बेटियों के हक को बर्दाश्त नहीं करता. उसकी आवाज को अमानत में खयानत करार देता है.



यही वजह है कि तमाम अदालती फरमानों के बावजूद बेटियों का उसी घर में उनका कोई हक नहीं समझा जाता, जहां वह जन्मी होती हैं. ऐसे में सोते, अकड़े और जकड़े समाज को झकझोर कर जगाने जब कुछ बेटियों ने आवाज बुलंद की, याचिकाओं की शक्ल में अदालतों का दरवाजा पीटा. इंसाफ की इन पुकारों और गुहारों के बाद सुप्रीम कोर्ट का मंगलवार को बेटियों के हक में आया फैसला बेहद अहम है. ये निश्चित ही मील का पत्थर साबित होगा.



इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में संशोधित हिंदू उत्तराधिकार कानून को लेकर अदालत के ही विरोधाभासी फैसलों से पैदा असमंजस और भ्रम को दूर करते हुए साफ कहा कि पिता की संपत्ति में बेटियां भी बराबर की हकदार होंगी, चाहे पिता की मृत्यु 2005 से पहले ही क्यों न हो गई हो. देश की सबसे बड़ी अदालत ने तो अपना काम कर दिया, लेकिन अब बारी सरकार, समाज और संगठनों की है, जो बेटियों को उन्हें मिले हक, कानूनी कवच के बारे में बताए और जगाए.



क्यों उठा था विवाद?

बता दें कि साल 2005 में संसद ने 1956 के उत्तराधिकार कानून में संशोधन किया. इसमें कहा गया कि बेटा और बेटी दोनों का पिता की संपत्ति पर बराबर का अधिकार होगा, लेकिन इसमें यह स्पष्ट नहीं था कि अगर पिता की मृत्यु 2005 से पहले हुई है, तो यह कानून ऐसे परिवार पर लागू होगा या नहीं. संसद में कानून बनने के बाद कोर्ट में बेटियों की याचिकाएं दाखिल होने लगीं, तो 2016 में कोर्ट ने कहा कि यदि पिता की मौत नया कानून बनने से पहले हो गई है, संपत्ति का बंटवारा पहले हो चुका है, तो पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं मिलेगा.



इसके विपरीत 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि यदि पिता की मौत पहले भी हुई है, तो बेटियों को संपत्ति में अधिकार रहेगा. विरोधाभासी फैसलों से उपजे यही सवाल न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ के सामने याचिकाओं के जरिए उठाए गए. पूछा गया कि 9 सितंबर 2005 में संशोधित उत्तराधिकार कानून में पिता की संपत्ति में बेटियों को समान अधिकार है या नहीं? इस मसले पर कई सुनवाई के बाद अदालत ने अपना फैसला सुनाया.



फैसले में अपनी एक टिप्पणी में न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा ने कहा कि ‘बेटियों को भी बेटों के जैसे बराबरी का हक मिलना चाहिए. बेटी ताउम्र प्यारी बेटी होती है. बेटे तो बस शादी होने तक ही बेटे रहते हैं बेटी हमेशा सह-भागीदार बनी रहेगी, चाहे उसके पिता जिंदा हों या नहीं. भले ही हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने से पहले पिता की मृत्यु हो गई हो.’हालांकि, मैं व्यक्तिगत रूप से इस फैसले का तो दिल से स्वागत करता हूं, लेकिन इस बारे में उदाहरण के रूप में की गई न्यायमूर्ति की टिप्पणी से पूर्णतः असहमत हूं, क्योंकि यह भी लैंगिक भेदभाव को प्रदर्शित करने वाली है.




पहले क्या था कानून?

2005 में कानून में संशोधन से पहले हिंदू अविभाजित परिवार के हमवारिस बेटे ही हो सकते थे. 11 अगस्त 2020 को जो फैसला आया, यही बात कुछ अलग शब्दों में अक्तूबर 2011 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा और जगदीश सिंह खेहर ने भी कही थी कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधित) अधिनियम 2005 के तहत बेटियां अन्य पुरुष सहोदरों के बराबर का अधिकार रखती हैं. उन्हें बराबरी से अपना उत्तरदायित्व भी निभाना पड़ेगा. अन्यथा यह संविधान द्वारा दिए गए समानता के मौलिक अधिकारों का हनन भी होगा, और दूसरी ओर यह सामाजिक न्याय की भावना के भी खिलाफ है.



इसके अलावा पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार पर हिन्दू कानून की दो पद्धतियां प्रचलित हैं, एक मिताक्षरा है, जो संपत्ति के सौंपे जाने जाने के दो तरीकों उत्तरजीविता और उत्तराधिकार पर केन्द्रित है. उत्तरजीविता का नियम संयुक्त परिवार की संपत्ति और उत्ताधिकार के नियम मरने वाले के पूर्ण स्वामित्व वाली संपत्ति पर लागू होते हैं. दूसरी प्रणाली दायभाग के नाम से जानी जाती है, जो केवल एक उत्तराधिकार को ही मान्यता देती है.



क्या कानून से कुछ बदलेगा?

लैंगिक समानता के मुद्दे पर काम करने वाली सशक्त हस्ताक्षर कमला भसीन सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करती हैं. वह तो बेटियों के संपत्ति में अधिकारों को लेकर एक अभियान भी लंबे समय से चला रहीं हैं. उनके अभियान के दो स्लोगन हैं. पहला- बेटी दिल में, बेटी विल में और दूसरा है. न दहेज न महंगी शादी, बेटी को देंगे संपत्ति आधी.



इसी मुद्दे पर काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता कुमुद सिंह सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक बेहतरीन फैसला बताते हुए कहती हैं, कि निश्चित ही यह बेटियों को उनका हक और आर्थिक असुरक्षा से मुक्ति दिलाने में मददगार साबित होगा,,लेकिन अकेले कानून से कुछ नहीं होगा, क्योंकि अगर ऐसा होता तो कानून होने के बाद भी दहेज हिंसा, महिला हिंसा, यौन शोषण की घटनाएं तेजी से न बढ़तीं. कानून के साथ समाज की मानसिकता भी बदलनी होगी और बेटियों को ही नहीं, बेटों यानी पुरुषों को भी जागरूक, संवेदनशील करना होगा.



सवाल मानसिकता का

कुमुद का मानना है दरअसल बेटियों से उनका हक छीनने की प्रवृति और उनसे जुड़े अपराध सदियों से समाज में जड़ें जमाए बैठी पितृसत्तामक मानसिकता और उसके अनुरूप बनाई गई व्यवस्था के कारण बढ़ रहे हैं, जिन्हें बदलने की जरूरत है. समाज रूढ़िवादी परंपराओं के बोझ तले दबा हुआ है. आसानी से पैतृक संपत्ति के हक को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा, जहां बचपन से पलती हुई हर बेटी के मन में यह विचार कूट-कूट कर भर दिए जाते हैं, कि तुम पराए घर की हो, इस घर में किसी और की अमानत हो. कानून पर ठीक से अमल हो, बेटियां इस अधिकार के प्रति जागरूक हों, उनके प्रति मानसिकता में सकारात्मक बदलाव आए, इसके लिए सरकारों, समाज और संगठनों के स्तर पर सतत् अभियान को तेज करना होगा.



समाजसेवी डॉ. पूनम के मुताबिक ''कानून में भले ही बदलाव कर दिए जाएं, लेकिन मानसिकता आज भी वही है. अगर कोई लड़की अपना हक चाहती है तो घरवाले उसे रिश्तों का हवाला देकर भावनात्मक रूप से कमजोर कर देते हैं, अगर वो ऐसा करेगी तो सब नाराज हो जाएंगे, कोई उसका साथ नहीं देगा.



ग्वालियर में एसडीएम रहे एक अधिकारी का कहना है कि ''पिता की संपत्ति में महिलाओं को अधिकार का कानून तो है, लेकिन दावा करने वाले बहुत कम या न के बराबर हैं. इसका कारण यह है कि ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को इसकी जानकारी नहीं है. ''पिता की संपत्ति पर अधिकार मांगने वाली बेटियों के केस शहरी क्षेत्रों से ही आते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में तो पिता की मृत्यु के बाद चाचा या ताऊ के बेटों ने कब्जा कर लिया हो, इस तरह के मामले ही ज्यादा आते हैं, लेकिन सगे भाई-बहनों में लड़कियां अपना हिस्सा मांगने नहीं आती हैं. बेटियों से उनकी मर्जी से या बात करके या दबाव बनाकर पैतृक संपत्ति में हक न लेने के बारे में उनसे लिखवा लिया जाता है, यह ठीक नहीं.



भोपाल जिला अदालत के वकील अजितेष शर्मा का कहना है कि ''पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति में पत्नी और बेटे, बेटियों का बराबर का हिस्सा लगता है, लेकिन ज्यादातर केस में बेटियों से एनओसी (नो ऑबजेक्शन सर्टिफिकेट)पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं, जिससे सारी जायदाद भाइयों के नाम हो जाती है. ''आजकल ऐसे केस ज्यादा आ रहे हैं, जिनमें बहन-बेटी को पता भी नहीं चलता कि उसके नाम भी कोई जायदाद है.




जेंडर डायनेमिक्स बदलने बेटियों को संपत्ति में अधिकार देना होगा

महिला, बाल विकास विभाग में अधिकारी डॉ. सुरेश तोमर करीब एक दशक से ग्वालियर-चंबल संभाग में लिंग चयन आधारित गर्भपात और क्षेत्र में बिगड़ते लिंगानुपात को रोकने को लेकर काम करते रहे हैं. एक बातचीत में उनका कहना था कि महिला के कमजोर होने की सबसे बड़ी वजह यही समझ आती है कि वह आर्थिक तौर पर स्वतंत्र नहीं है या उनका शेयर नहीं है.



लड़की को आश्रय देना और अधिकार देने दोनों में बहुत फर्क है. यूएन का आंकड़ा है कि 100 वर्क आवर्स में से 67 घंटे काम महिला करती है, 37 घंटे पुरुष, लेकिन 90 फीसदी सैलरी पुरुषों और केवल 10 फीसदी सैलरी महिलाओं के हिस्से में आती है. संपत्ति के अधिकार पर नजर डालें तो 98 प्रतिशत संपत्ति पर पुरूषों का अधिकार है, केवल 2 प्रतिशत पर महिलाओं का अधिकार है. महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बराबर का अधिकार मिले, इस बारे में मानसिकता परिवर्तन के उद्देश्य से स्थानीय स्तर पर हमने चर्चा की, तो बंटवारा तो दूर, इस कन्सेप्ट से ही लोग इतना नाराज हो गए और बोले, आपको करना है कर लीजिए....चलिए, ठीक है, हिस्सा दे देते हैं, लेकिन तब हमारी बहन एक देहरी की होकर की जाएगी.



तोमर कहते हैं कि इस बदलाव की शुरूआत घर से ही करनी होगी, वरना उपदेश देने का क्या मतलब. ग्वालियर चंबल में हम अगर जेंडर का डायनेमिक्स बदलना चाहते है, बेटियों को संपत्ति में अधिकार देना होगा.



पैतृक संपत्ति में अधिकार के रास्ते में रोड़ा बन रहा धर्म परिवर्तन

किसी महिला का पैतृक संपत्ति से अधिकार क्या सिर्फ इस वजह से खत्म हो जाता है कि उसने हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम अपना लिया है? कुछ अरसा पहले दिल्ली की तीसहजारी कोर्ट में एक मामला सामने आया था, जहां 33 वर्षीय एक महिला ने अपने मृत पिता द्वारा खरीदी गई संपत्ति में हिस्सेदारी को लेकर अदालत में केस दायर कर रखा है. महिला के दो भाइयों ने कहा है कि उनका संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है. वर्ष 2011 में पहले पति की मृत्यु के बाद महिला ने 2013 में एक मुस्लिम से शादी की थी और उसके बाद इस्लाम धर्म कबूल कर लिया था.



महिला ने अदालत से मांग की है कि वह उन्हें पूर्वी दिल्ली के शाहदरा, अशोक नगर में संपत्ति की एक तिहाई मालिक घोषित करे. उनके भाइयों ने हालांकि कहा कि इस्लाम कबूल करने के बाद वह एक हिंदू परिवार की संपत्ति पर किसी तरह के अधिकार का दावा नहीं कर सकतीं. अपने केस में महिला ने कहा कि उसके भाइयों ने उसके साथ छल किया और उनके हिस्से की संपत्ति जाली दस्तावेज तैयार कर अपने नाम करा ली. उन्होंने कहा कि जब उनके पिता और माता की क्रमश: 2010 और 2008 में मृत्यु हुई, तो उनके तीनों बच्चे उस वक्त करीब 20 लाख रुपये मूल्य की अविभाजित संपत्ति के संयुक्त स्वामी थे.




फैसले पर भरोसा, नाराजगी और सवाल भी

सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले को लेकर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर लोग अपनी प्रतिक्रियाओं में कई सवाल उठा रहे हैं. कुछ लोगों का कहना है कि यह फैसला बेटियों के सुरक्षित भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होगा. टाटा ट्रस्ट में मैनेजर अर्चना रेलन ने अपनी फेसबुक पोस्ट में कोर्ट के फैसले का स्वागत किया, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि अभी लड़ाई लंबी है, क्योंकि माता-पिता की देखभाल करने वाले बेटों के लिए तो टैक्स में छूट है, परन्तु यह सुविधा बेटियों के लिए नहीं हैं.



फैसले को लेकर कुछ लोग कह रहे हैं कि संपत्ति में उत्तराधिकार में बेटियों को शामिल करने का फैसला घर-घर में कलह, अलगाव और हिंसा की वजह बनेगा. कुछ सवाल उठा रहे हैं कि हिन्दुओं की तरह अलग समुदायों पर भी क्या यह उत्ताधिकार कानून लागू होगा और अन्य धर्मों, समाजों की बेटियों को भी संपत्ति में अधिकार दिलाना सुनिश्चित करेगा. यह भी कहा जा रहा है कि अगर पिता किसी बेटे के नाम पर पूरी संपत्ति लिख दे, तब क्या होगा.




बहरहाल जितने मुंह उतनी बातें. कानून अपनी जगह है, वह अपना काम करेगा. सबसे महत्वपूर्ण है कि बेटियों को अपना हक पहचानना होगा और इस काम में सरकारें और सिस्टम, समाज और संगठन बेटियों को जागरूक करने और उन्हें संपत्ति में अधिकार दिलाने कितनी कितनी तेजी और ताकत से साथ खड़े हो पाते हैं, यह देखना होगा. इसमें सबसे अहम भूमिका होगी खुद बेटी की, जिसे अपने लिए आवाज बुलंद करना होगा. मसला अहम है, जिसमें बेटियों को बराबरी के अधिकार के साथ जिम्मेदारी की बात भी है.



एक मशहूर जनगीत की चंद पंक्तियां हैं....



दरिया की कसम मौजों की कसम

यह ताना बना बदलेगा

तू खुद को बदल, तू खुद को बदल

तब ही तो जमाना बदलेगा....।

तू चुप रहकर जो सहती रही तो

क्या यह जमाना बदला है,

तू बोलेगी, मुंह खोलेगी।
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
सुनील कुमार गुप्ता

सुनील कुमार गुप्तावरिष्ठ पत्रकार

सामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.

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First published: August 12, 2020, 12:33 pm IST

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