बाघों (Tiger) के संरक्षण के लिए पहली बार 1973 में टाइगर रिजर्व (Tiger Reserve) की घोषणा की गई थी. 2005 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority) बनाया गया. 2006 में बाघों की पहली गणना हुई.
Source: News18Hindi Last updated on: July 29, 2020, 5:46 am IST
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राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की वेबसाइट के अनुसार देश में 2019 में कुल 81 बाघों की मौत हुई (फाइल फोटो)
याद कीजिए पिछले साल यानी 2019 की 29 जुलाई का वो दिन, जब अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस (International Tiger Day) के मौके पर नई दिल्ली (New Delhi) में राष्ट्रीय बाघ आकलन रिपोर्ट, 2018 (National Tiger Assessment Report, 2018) पेश करते वक्त प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Narendra Modi) “एक था टाइगर” से “टाइगर अभी जिंदा है” की कहानी सुनाते हुए गर्व के साथ देश में बाघों की संख्या 2226 से बढ़कर 2967 होने की जानकारी दे रहे थे. मप्र (MP) के लिए भी ये दिन ऐतिहासिक उपलब्धि लेकर आया था, क्योंकि राज्य ने सर्वाधिक 526 बाघों की संख्या के साथ करीब एक दशक बाद टाइगर स्टेट (Tiger State) का अपना खोया हुआ दर्जा कर्नाटक से हासिल किया था. लेकिन पिछले डेढ़ साल में करीब 41 बाघों की मौतें सामने आने के बाद राज्य के “टाइगर स्टेट“ (Tiger State) के खिताब पर खतरा एक बार फिर मंडराता दिख रहा है. इस साल बाघ दिवस मनाते समय उसके संरक्षण से जुड़े वनविभाग के अधिकारियों को आत्ममंथन करते हुए खुद से यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि आखिर चूक कहां हो रही है? सियासत (Politics) के जंगल “मैं टाइगर हूं, टाइगर अभी जिंदा है“ जैसे जुमलों में मैं..मैं..मैं करते रहने वाले नेता और सरकार भी अपने गिरेबां में झांकें कि वह खत्म होते टाइगर के लिए फिक्रमंद क्यों नहीं हैं?
समय के साथ विलुप्त होते वन्य प्राणियों में बाघ भी ऐसा प्राणी है, जिसकी संख्या देश में तेजी से घट रही है. इसके संरक्षण के लिए पहली बार 1973 में टाइगर रिजर्व (Tiger Reserve) की घोषणा की गई थी. 2005 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ( National Tiger Conservation Authority) बनाया गया. 2006 में जब बाघों की पहली गणना हुई और उनके संरक्षण का कार्यक्रम टाइगर प्रोजेक्ट (Tiger Project) लागू किया गया, तब देश में बाघों की संख्या केवल 1411 थी और मप्र में सबसे ज्यादा 300 बाघ थे. मप्र पहला टाइगर स्टेट राज्य कहलाया. वर्तमान में देश में कुल 50 टाइगर रिजर्व फारेस्ट हैं, जिनमें से 5 मप्र में हैं.
हर चार साल में गणना
एनटीसीए हर चार साल में देश में बाघों की गणना करता है. 2006 के बाद 2010 में हुई दूसरी गणना में ही मप्र में शिकार और दूसरी वजहों से मौतों के कारण केवल 257 बाघ रह गए और राज्य अपना टाइगर स्टेट का दर्जा खो बैठा, तबसे यह खिताब कर्नाटक के पास था. 2014 में तीसरी गणना के बाद मप्र में बाघों की संख्या तो 308 हुई, लेकिन वह उत्तराखंड से भी पिछड़ गया. इसके बाद 2018 की अंतिम और चौथी गणना में सुकून और खुशी देकर वाली खबर पिछले साल अंतराष्ट्रीय बाघ दिवस पर मिली थी, जब बाघ आंकलन रिपोर्ट में बताया गया कि देश में बाघों की संख्या के मामले में मप्र पहले पायदान पर आया है और यहां 526 बाघ हैं. मध्यप्रदेश से संख्या में केवल दो बाघ कम (524) होने के कारण कर्नाटक पिछड़ गया, लेकिन मप्र में अब बड़ी संख्या में बाघों की मौतें हो रही हैं और टाइगर स्टेट का ताज फिर खतरे में पड़ गया है. 442 बाघों के साथ उत्तराखंड तीसरे नंबर पर है.
एमपी अजब है
बाघों के मामले में दो बातों ने इस साल रिकार्ड तोड़ा. पहला तो यह मप्र में जनवरी से मार्च तक एक भी बाघ की मौत की खबर नहीं थी, लेकिन अप्रैल के एक महीने में ही बाघों की सबसे ज्यादा मौतें होने का रिकार्ड भी मप्र ने ही तोड़ा. कोरोना महामारी के चलते लाकडाउन के दौरान एक अप्रैल से 22 अप्रैल तक 8 और 2 मई को एक और बाघ शावक याने कुल 9 बाघों की मौत की खबर ने सबको हैरान करके रख दिया. इतनी बड़ी संख्या में मौतें देश के किसी भी अन्य राज्य में नहीं हुई. 1 अप्रैल को कान्हा में, 3 को पेंच, 9 को बांधवगढ़, 11 को बुरहानपुर, 13 को कान्हा, 17 को चित्रकूट और 22 अप्रैल को बांधवगढ़, मंकुदपुर जू सतना में यह मौतें हुई. 2 मई को बांधवगढ़ से एक बाघ मारे जाने की खबर आई. हैरान करने वाली एक और बात यह है कि सभी बाघों के शव सड़ी-गली हालत में मिले और सभी की उम्र 10 साल से कम थी.
अन्य राज्यों की बात करें तो पिछले चार महीनों में गोवा, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में 4-4. कर्नाटक और केरल में 2-2 तथा बंगाल, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार में एक-एक बाघ की मौत हुई है. अन्य राज्यों में कम मौतें और मप्र में ज्यादा मौतें बताती है कि बाघ प्रबंधन में कितनी लापरवाही और उदासीनता बरती जा रही.
आठ साल में सबसे ज्यादा मौतें मप्र में
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की वेबसाइट के अनुसार देश में 2019 में कुल 81 बाघों की मौत हुई. जनवरी से दिसंबर 2019 तक मध्यप्रदेश में 32 बाघों की मौतें हुई हैं. इसमें शुरूआती पहले तीन महीने में हुईं मौतों के आंकड़े भी शामिल हैं.
एनटीसीए के आंकड़े बताते हैं कि पिछले आठ साल में मध्यप्रदेश में सर्वाधिक 173 बाघों की मौत हुई. इसमें से 38 बाघों की मौत शिकार की वजह से, 94 की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई. 19 बाघों की मौत का मामला अभी जांच के दायरे में है. 6 बाघ अप्राकृतिक कारणों से मारे गए और 16 के दांत, खाल, नाखून, हड्डियां आदि अवशेष मिले. जानकारी के मुताबिक आठ साल में मौतों के मामले में महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर रहा, जहां 125 बाघों की मौत हुई. इसके बाद कर्नाटक में 111, उत्तराखंड में 88, तमिलनाडु में 54, असम में 54 केरल, उप्र में 35-35, राजस्थान में 17, बिहार और प.बंगाल में 11 तथा छत्तीसगढ़ में 10 बाघों की मौत हुई हैं. एनटीसीए के मुताबिक आठ साल की अवधि में ओडिशा और आंध्र प्रदेश में सात-सात, तेलंगाना में 5, दिल्ली, नागालैंड, हरियाणा और गुजरात मे एक-एक बाघ की मौत हुई है.
एनटीसीए का दावा
मीडिया में बाघों की मौतों की खबरें सामने आने के बाद राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने 6 जून 2020 को अपने एक स्पष्टीकरण में यह तो माना कि वर्ष 2012 से 2019 के बीच आठ साल में 750 बाघों की मौत का आंकड़ा तो सही है, लेकिन इसमें 60 फीसदी मौतों के मामले में शिकार कारण नहीं रहा है. इस अवधि में जो भी बाघ मरे, उनमें 369 बाघों की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई थी, 42 दुर्घटना या शिकार हुए, 101 बाघों के अंग तस्करी के प्रयास के प्रयास के दौरान पकड़े गए. शेष 70 मामलों की जांच की जा रही.
शिकारियों के पनाहगाह बने जंगल
कारण चाहे जो भी बताए जाएं, लेकिन सूत्र बताते हैं कि मप्र के भोपाल, होशंगाबाद, पन्ना, सिवनी, मंडला, बैतूल और छिंदवाड़ा के जंगल शिकारियों के पनाहगाह बन गए हैं. वन विभाग के अधिकारी और दीगर जानकार बताते हैं कि बाघों की मौतों के पीछे दो प्रमुख वजहें हैं, एक तो इनका आबादी में जाना. दूसरा-अपनी बादशाहत के लिए क्षेत्राधिकार की लड़ाई. इसके अलावा शिकार भी मौतों की एक बड़ी वजह है, लेकिन वन अधिकारी इस तथ्य को ज्यादा नहीं मानते. वास्तविकता यह है कि देश के दूसरे राज्यों में टाइगर कारिडोर बड़े जंगलों में फैले हुए हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं है, इसलिए शिकारी घात लगा लेते हैं. बताते हैं कि सीधी जिले में संजय गांधी, मंडला जिले में कान्हा किसली, सिवनी जिले में पेंच, पन्ना में पन्ना नेशनल पार्क और उमरिया जिले में बांधवगढ़ नेशनल पार्क, यह सभी छोटे-छोटे टुकड़ों और वनक्षेत्रों में बंटे हैं, उनको कारिडोर से जोड़ते हुए नए अभ्यारण्य बनाने की योजना है, ताकि बाघों के बीच अपने-अपने इलाकों को लेकर संघर्ष न हो. एक बाघ के लिए कम से कम 60 से 80 किलोमीटर के दायरे वाला क्षेत्र चाहिए, वो नहीं चाहता कि उसके रहते कोई दूसरा यहां आए, इसलिए संघर्ष में बाघों के मरने की खबरें आती हैं.
मौतों का बड़ा कारण सरकारी उदासीनता
मध्यप्रदेश में बाघों के संरक्षण के मकसद से 8 साल पहले स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स बनाने की योजना बनी थी, जिसके तहत हथियार बंद सुरक्षा दस्तों को ट्रेनिंग देकर जंगल में उतारा जाना था, लेकिन इतनी लंबी अवधि बीत जाने के बावजूद कुछ हुआ नहीं. पिछली कमलनाथ सरकार के कार्यकाल में योजना की फाइलें कुछ आगे बढ़ी थीं, लेकिन इस साल मार्च के तीसरे हफ्ते मे ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट के कांग्रेस मंत्री-विधायकों ने कांग्रेस से बगावत कर भाजपा से गठजोड़ कर सरकार गिरा दी. शिवराज सिंह के नेतृत्व में नई सरकार बनी, तो कोरोना की महामारी ने जकड़ लिया.
बाघ संरक्षण की चुनौतियां
- अवैध शिकारः देश की सरकार और सारे जंगल महकमें की नाक में दम कर देने वाले और 40 साल तक पुलिस से चंगुल से आजाद घूमने वाले वन्यजीवों के तस्कर गिरोह के सरगना संसारचंद कोई नहीं भूला होगा. मौजूदा वक्त में ऐसे न जाने गिरोह और जंगल माफिया बाघ समेत तमाम वन्यजीवों की जान के दुश्मन बने हुए हैं. बता दें कि अवैध बाजारों में बाघ के शरीर के हर हिस्से का कारोबार होता है. बाघों का शिकार मुख्यतः दो कारणों से किया जाता है, पहला उनके खतरे को देखते हुए, दूसरा लाभ कमाने के मकसद से
- जंगल पर कब्जेः मौजूदा दौर में बाघों की आबादी के लिए सबसे बड़ा खतरा उनके प्राकृतिक निवास स्थान का नुकसान है. एक अनुमान के मुताबिक विश्वभर के बाघों ने अपने रहने के 93 फीसदी प्राकृतिक स्थान खो दिए हैं. मध्यप्रदेश में तो भोपाल के ही उदाहरण से उनके इलाके खोने का अनुमान लगाया जा सकता है. राज्य के वनविभाग के पास भोपाल का 1960 का एक नक्शा मौजूद है, जिसमें बताया गया है कि बाघों का कहां-कहां डेरा था. नक्शे के मुताबिक नए भोपाल का लगभग पूरा इलाका बाघों का था. पुराने भोपाल के जहांगीराबाद इलाके में पुलिस मुख्यालय के पास तक बाघों का आना-जाना और दिखना हुआ करता था. केरवा और कलियासोत क्षेत्र बाघों से भरा हुआ था. 1980 के दशक तक इन जंगली इलाकों में नेताओं, अफसरों और रसूखदारों ने अपने आशियाने तानकर बाघों के आशियाने उजाड़ दिए. इस इलाके में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह की भी मशहूर केरवा कोठी भी है.
- मानव से संघर्षः बाघों के प्राकृतिक निवास स्थान और शिकार के स्थान छोटे होने के कारण कई बाघ अपना पेट भरने पशुधन को मारने के लिए मजबूर होकर गांवों या आबादी में घुस आते हैं, तो किसान अक्सर जवाबी कार्रवाई में बाघों को मार देते हैं.
बाघ बचाना बड़ी जिम्मेदारी है
वन्य जीव कोष(WWF) के मुताबिक दुनिया में वर्तमान में केवल 3900 जंगली बाघ बचे हैं. इनमें से 2967 बाघ तो केवल भारत में हैं. 29 जुलाई 2010 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में एक टाइगर समिट में दुनिया के तमाम देशों के बीच एक समझौता हुआ था, जिसका मकसद था बाघों की घटती आबादी के बारे में बताना और बाघ संरक्षण के लिए जागरूक करना. तभी से 29 जुलाई को विश्व बाघ दिवस के रूप में मनाया जाता है. समझौते में शामिल देशों का मानना है कि 2022 तक दुनिया में बाघों की आबादी दोगुनी हो जाएगी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
सामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.