जब आदमी के हाल पे आती है मुफलिसी,
किस तरह से उसको सताती है मुफलिसी,
प्यासा तमाम रोज बिठाती है मुफलिसी,
भूखा तमाम रात सुलाती है मुफलिसी,
यह दुख वो जाने, जिस पे आती है मुफलिसी.
मुफलिसी यानी गरीबी (Poverty), जब-जब गरीबी की बात होती है, तब-तब करीब डेढ़ सौ साल पहले देश के पहले जनवादी शायर नजीर अकबराबादी की लिखी ये नज्म याद आ जाती है. इस साल भी 17 अक्टूबर को जब पूरी दुनिया में गरीबी उन्मूलन दिवस मनाया जा रहा था और दुनिया में बढ़ती गरीबी के डराने और चौंकाने वाले आंकड़े सामने आ रहे थे. उससे लड़ने, उसे मिटाने के संकल्प लिए जा रहे थे, तब बार-बार दिलो-दिमाग में एक ही सवाल कौंधता रहा कि तमाम नारों, कस्मे-वादों, घोषणाओं, योजनाओं के बाद भी गरीब और उनकी गरीबी बढ़ती ही क्यों जा रही है? क्या आंकड़ों से परे हटकर कुछ सोचा जा सकता है? क्या उन युवाओं के काम से सरकारें कुछ सबक ले सकती हैं, जो अपनी ऊंची सोच, मजबूत इरादों और छोटे-छोटे कदमों से सैकड़ों लोगों को रोजगार से जोड़कर भूख, गरीबी की जकड़न से आजादी दिलाने की कोशिश कर रहे हैं?
ये सवाल इसलिए, क्योंकि सर्वशक्तिमान सरकारें गरीबों के लिए योजनाएं तो खूब बनाती हैं, उनकी ब्रान्डिंग (Branding) कर वाहवाही भी खूब लूटती हैं कि उनसे बड़ा गरीबों का मसीहा कोई नहीं, लेकिन अमल के वक्त सरकार का विजन और सिस्टम (Vision And System) का एक्शन विपरीत दिशा में मुंह किए खड़े दिखते हैं. सोच को अमल का साथ नहीं मिलता. लिहाजा उदासीनता, लापरवाही, भ्रष्टाचार में फंस कर योजनाएं फेल हो जाती हैं, गरीब और गरीब होता जाता है.
मैंने जबसे होश संभाला, तबसे आज तक ऐसा कोई चुनाव नहीं देखा, जिसमें गांव, गरीब, किसान, मजदूर की बात न हुई हो.
पहली बार सन 1971 के लोकसभा चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में गरीबी हटाओ का नारा दिया था. यह नारा उन्होंने सर्वाधिक भुखमरी और गरीबी के प्रतीक उड़ीसा के कालाहांडी से दिया था. तब देश में गरीबी की दर 57 फीसदी थी. 'गरीबी हटाओ' उस दशक का सबसे लोकप्रिय नारा था. देश में गरीबी उन्मूलन के लिए 20 सूत्रीय कार्यक्रम चलाए गए, लेकिन गरीबी कम न हुई. गरीबी की दर 1977 में 52 फीसदी, 1983 में 44 फीसदी और 2018 में जब गरीबी के आंकड़े आए तो यह दर 27.5 फीसदी थी. सरकारों की कोशिश गरीबी कम करने की बजाय गरीबों को कम करने में ज्यादा रही है. मोदी सरकार ने गरीबी के सभी पैमानों को मानने से इनकार करते हुए बीते फरवरी माह से नए सिरे से गरीबों के सर्वे का काम शुरू कराया है, इसके बाद मार्च से कोरोना की महामारी का प्रकोप बढ़ता गया, तबसे अभी तक यह सर्वे भी रफ्तार नहीं पकड़ पाया.
कोरोना महामारी ने और बढ़ा दी गरीबी
वैश्विक कोरोना महामारी के चलते जहां देश में अप्रैल के महीने में ही 1 करोड़ 77 लाख युवा अपने नौकरी गंवा चुके थे. मई, जून, जुलाई तक यह आंकड़ा बढ़कर 1 करोड़ 89 लाख तक पहुंच गया था. देश की 25 फीसदी आबादी कामकाजी लोगों की है, जिस पर कोरोना की तरह-तरह से मार पड़ी है. किसी की नौकरी ही छिन गई, किसी के वेतन में भारी भरकम कटौती हो गई. इस मार से की भी सेक्टर अछूता नहीं रहा. काम धंधा छोड़कर अपने घरों को लौटे बड़ी संख्या में अभी तक काम पर नहीं लौट पाए हैं. इन सब आधिकारिक जानकारियों का सीधा मतलब यह है कि कोरोना की महामारी की वजह से गरीबों की संख्या कई गुना बढ़ने वाली है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में यह गरीबी दर वर्तमान में 50 फीसदी से भी ज्यादा पहुंच गई है. इसी स्थिति का आकलन करते हुए वर्ल्ड बैंक ने 7 अक्टूबर को अपनी एक रिपोर्ट के माध्यम से आगाह किया कि अगले एक-डेढ़ साल में 15 करोड़ अतिरिक्त लोगों को कोरोना की महामारी गरीबी की गहरी खाई में धकेल देगी.
सभी देशों को महामारी के बाद की चुनौतियों के मुकाबले अर्थव्यवस्था को नए सिरे से शक्ल देनी होगी. इसमें पूंजी, श्रम, कौशल और इनोवेशन को नए क्षेत्रों और कारोबार तक ले जाने की जरूरत होगी. गरीबी किस देश पर किस हद तक मार करेगी, यह उस देश की आर्थिक गिरावट पर निर्भर करेगा. भारत के लिए यह चिंताजनक स्थिति है, जहां चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था (जीडीपी) में 23.9 फीसदी तक की गिरावट आई और एक सप्ताह पहले ही रेटिंग एजेंसी फिच ने चालू वित्त वर्ष 2020-21 में देश की अर्थव्यवस्था में 10.5 फीसदी की भारी गिरावट का अनुमान लगाया है. भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिति बांग्लादेश से भी बदतर हो गई है, जहां प्रति व्यक्ति की सालाना आय भारत के प्रति व्यक्ति की आय की तुलना में कहीं ज्यादा है.
नए नजरिए की जरूरत
इस नाजुक घड़ी में जब विश्व के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था उलट-पुलट हो गई है, तब लगता है कि सरकार को उन उद्यमियों (Entrepreneurs) से सबक लेना चाहिए, जिन्होंने अपने बूते अपने उद्यम शुरू किए और सैकड़ों लोगों को रोजगार देते हुए उनकी गरीबी कम करने में बड़ा योगदान निभाया है. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि इन उद्यमियों के पास तो कुछ नहीं था, न सरकारी मदद, न पैसा, लेकिन सरकार के पास तो सब कुछ है, वह तो सर्वशक्तिमान होती है. उसके पास धन है, बड़े-बड़े नौकरशाह हैं, कर्मचारी हैं, किसी योजना को अमली जामा पहना सकने वाला पूरा सिस्टम है, पूरा निगरानी तंत्र है. वह चाहे तो स्थानीय स्तर पर रोजगार के उस संसार को आकार दे सकती है, जो मौजूदा वक्त की जरूरत है.
'खादीजी' एक मिसाल
उदाहरण के तौर पर मैं मध्यप्रदेश की एक युवा उद्यमी (Entrepreneur)सुश्री उमंग श्रीधर का जिक्र करना चाहूंगा, जिन्होंने महात्मा गांधी से ग्राम स्वराज और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के विचारों से प्रेरित होकर 'खादीजी' नाम का एक स्टार्टअप (Start up) शुरू किया. इस स्टार्टअप ने 2017 से मुरैना के गांधी सेवा आश्रम से अपनी असल उड़ान भरी और डिजिटल प्रिंट वाले खादी वस्त्रों को वैश्विक बाजार तक पहुंचा दिया. देश के अलावा उनका फेब्रिक लंदन, इटली समेत कई देशों में जा रहा है.

उमंंग श्रीधर.
फोर्ब्स अंडर-30 अचीवर्स की लिस्ट में जगह पाने वाली उमंग श्रीधर ने हमें बताया कि चंबल इलाके में बसे पिछड़े गांवों की महिलाओं के हाथ में चरखा थमाकर उन्हें स्वावलंबी बनाने की कोशिश से हमने शुरूआत की और आज “खादीजी” का काम मध्यप्रदेश के अलावा पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के 10 क्लस्टर्स में चल रहा है, जिसमें 1000 से ज्यादा कतिन और बुनकर (Katins and weavers) जुड़े हुए हैं. एक समय में कम से कम साढ़े तीन सौ लोगों के साथ तो लगातार काम करते ही रहते हैं. जिस तरह विशेष औद्योगिक परिक्षेत्र (Special Economic Zone) होते हैं, वैसे ही क्राफ्ट से जुड़े हुए क्षेत्रों (Region) को क्लस्टर्स कहा जाता है, जैसे मध्यप्रदेश में महेश्वर बाघ प्रिंट्स और चंदेरी अपनी साड़ियों के लिए विशेष शिल्प पहचाने जाते हैं. इन क्लस्टर्स में एक क्राफ्ट (Craft) की सभी विधाओं में काम करने वाले लोग रहते हैं, मसलन बुनकर, कतिन, प्रिंटर, ड्रायर आदि. हमारे “खादीजी” स्टार्ट-अप के काम का फोकस एरिया स्पीनिंग और वीविंग है. राज्य में वह मुरैना के अलावा महेश्वर, कसरावद, इंदौर, भोपाल आदि जिलों की महिलाओं को जोड़कर खादी वस्त्रों को बनाने और उनकी मार्केटिंग का काम कर रही हैं.
उमंग के मुताबिक कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन की वजह से आना-जाना बंद हो गया, तब उन्होंने भोपाल के महाशक्ति सेवा केन्द्र की करीब 60 महिलाओं को कोरोना संक्रमण से बचने के लिए मास्क, बैग आदि बनाने का काम में लगाया. उमंग कहती हैं कि कोरोना महामारी से अमीर-गरीब सभी समान रूप से प्रभावित हुए हैं, ये वक्त है आर्थिक स्तर पर असमानता (Economic disparity) की खाई को पाटने का और सरकार को चाहिए कि स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे उद्यमियों को सहयोग कर उन्हें खड़ा करने में मदद करे. उद्यमियों को भी चाहिए कि वह वक्त की जरूरत और मांग के अनुरूप प्रयोग कर अपने उत्पादों में नयापन लाने, आकर्षक बनाने का प्रयास करें, जैसा मैनें खादीजी में किया.

खादीजी.
सरकार और सिस्टम के साथ समस्या
उमंग कहती हैं कि सरकार चाहे केन्द्र की हो या राज्य की, सबके साथ एक ही समस्या होती है, कि वह लोकल के लिए वोकल, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, हर बेरोजगार को रोजगार जैसे नारों और योजनाओं की ब्रांडिंग तो खूब कर दी जाती है, लेकिन सरकार की सोच के साथ अमल करने वाले सिस्टम की मानसिकता और कार्यप्रणाली एक धरातल पर नहीं खड़ी हो पाती. घोषित योजनाओं का लाभ लेने जब कोई उद्यमी अमलीजामा पहनाने वाले सिस्टम के पास जाता है, तो वह सहयोग या सही काउंसलिंग करने की बजाय कभी धन की कमी, कभी अलग से धन की मांग, कभी पात्रता की कमी से लेकर तरह-तरह से रोड़े अटकाता है. किसी का उद्यम या रोजगार शुरू भी हो गया था, तो सरकारी विभाग योजना के अनुरूप उसका सामान नहीं खरीदते. उद्यमियों के अधिकारों की बात करने वाली यूनियनों को भंग कर दिया जाता है. ऐसे में कोई युवा उद्यमी कैसे आगे बढ़ेगा? सिस्टम को सहयोगी की भूमिका निभानी होगी, ताकि सरकार की योजनाएं साकार हो सकें.
बंधु सबके बंधु
इंदौर में समान सोसायटी के माध्यम से काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र बंधु का काम सरकार से लिए एक राह दिखाने वाला हो सकता है. राष्ट्रीय स्तर पर अनेक सम्मान पाने वाले राजेन्द्र बंधु ने वंचित समुदाय की अशिक्षित, एससी एसटी वर्ग की 300 महिलाओं को जोड़कर उनके लिए एक ट्रेनिंग माड्यूल (Training Module) तैयार किया. इन महिलाओं को स्कूटर, मोटर साइकिल, आटो, कार, ट्रक से लेकर हर वाहन को चलाने के लिए ड्राइविंग और उन्हें सुधारने की ट्रेनिंग दी. इनमें से आज कई महिलाएं नगर निगम के वाहनों को चलाती हैं, कई महिलाओं ने अपने गैराज, सर्विस सेंटर खोल लिए हैं. कई महिलाएं आटो-कार ड्राइवर हैं. याने जो महिला कल तक घर में रहकर ही काम करती है, घरेलू हिंसा का शिकार होती थी, वह आज आर्थिक रूप से आत्म निर्भर है, अपने फैसले खुद कर रही है. राजेन्द्र बंधु ने हमसे चर्चा में बताया कि आज इन सभी महिलाओं का यंत्रिका नामक अपना प्लेटफार्म है, जिसमें जुड़ी महिलाएं सारा हिसाब-किताब खुद रखती हैं. ट्रेनिंग के बाद महिलाओं ने करीब दो करोड़ रुपए अपनी मेहनत से कमाए हैं. वह कहते हैं कि सरकार के पास तो आईटीआई, पालिटेक्निक जैसे संस्थान हैं, जिनमें अगर किताबी ज्ञान के साथ युवाओं का कौशल पहचान कर उन्हें ट्रेनिंग दी जाए, तो कोई बेरोजगार न रहेगा और कोई गरीब भी नहीं रहेगा. इसके लिए योजनाओं के अमल करने वाले सिस्टम को ईमानदार व समर्पित होना पड़ेगा.
हेल्प फॉर हृयूमिनिटी
रेहान नाम है उस शख्स का, जो पेशे से डाक्टर हैं, लेकिन अपने पेशे से इतर उन्होंने लाकडाउन के दौरान लोगों से मदद लेकर करीब 45 लोगों का ठप हो चुका रोजगार शुरू करवाया. हेल्प फार ह्यूमिनिटी (Help for Humanity) नामक संस्था संचालित करने वाले रेहान ने इस काम के लिए कोई सरकारी मदद नहीं ली, बल्कि आपसी मदद से किसी की बंद दुकान शुरू करवा दी, किसी का खराब पड़ा आटो सुधरवा दिया. वह कहते हैं कि जब कोई मदद के लिए आता है, तो पहले उसका पूरा सर्वे खुद करते हैं, और वास्तविक जरूरत की पूरी तस्दीक करने के बाद उसका काम शुरू हो जाए, इसके लिए मददगारों को तलाश कर काम शुरू करवा देते हैं.
डॉ. रेहान कहते हैं कि कोरोना की महामारी के संकट के दौरान मानवता का दामन थामे एक-दूसरे के साथ खड़े होने की ताकत ने ही तो हम सबको बचाया. सरकारें भी चाहे तो सिस्टम को लोगों का मददगार बनाकर उन्हें भूख और गरीबी से बचा सकती हैं.
खुद सरकार मत बनिये
सामाजिक उद्यमिता विषय में टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज से सोशल आंत्रप्रेन्योरशिप में मास्टर्स डिग्री अर्जित करने वाले संदीप मेहतो होशंगाबाद जिले के पथरौटा गांव से संचालित भारत कालिंग नामक संस्था के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हैं. यह संस्था आदिवासी इलाकों के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए फार्म भरने से लेकर यूनिवर्सिटी में दाखिले, कोचिंग तक में मदद करती है. संदीप कहते हैं कि सरकार का काम सरकार करे, न कि संस्था या कोई सामाजिक कार्यकर्ता. हमें सरकार बनने की बजाय स्वयं को एक सोशल साइंटिस्ट की तरह देखना चाहिए, कि हम किसी भी काम के लिए एक यूनिक माडल (Unique model) विकसित करें और उसे संचालन के लिए सरकार के सामने प्रस्तुत करें, न कि वह खुद माडल को चलाने में फंस जाए.
चाइल्ड लाइन का माडल आप उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं. लोकल के लिए वोकल का वाक्य भी तभी आकार ले सकता है, जब बैठने के लिए, आपस में चर्चा करने के लिए जगह हो, उसकी गुंजाइश हो, जो कि अभी नहीं है. गरीब के मुद्दे को केवल आर्थिक आधार पर देखते की बजाय मनोवैज्ञानिक दृषिट से भी देखना चाहिए. आखिर कोई व्यक्ति क्या कर सकता है, वह क्या करना चाहता है, किस काम में उसकी दिलचस्पी है, उसकी सोशल आडेंटिटी को परख कर सपोर्ट दिया जाना चाहिए, तभी उसे मदद का माडल सफल हो पाएगा. किसी को इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया करा देने भर से विकास नहीं होगा, या गरीबी नहीं हटेगी, उसके लिए लीगल और मनो-सामाजिक पहलुओं को भी ध्यान में रखना होगा.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)