International Day of the Girl Child: बेटी तू बेखौफ, आजाद आवाज बने, तेरी परवाज चढ़े परवान

International Day of the Girl Child: संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को मानते हुए पूरी दुनिया में 2012 से हर साल 11 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया ही इसलिए जाता है, ताकि बेटियों के साथ हो रहे भेदभाव को खत्म करने, हिंसा, शिक्षा, सेहत, सुरक्षा, दहेज, बाल विवाह, बाल तस्करी, लिंग चयन आधारित भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियों पर बात कर अंधे-गूंगे-बहरे-सोए समाज को जगाया जा सके.

Source: News18Hindi Last updated on: October 11, 2020, 1:17 pm IST
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बेटी तू बेखौफ, आजाद आवाज बने, तेरी परवाज चढ़े परवान
देश में 32 लाख 97 हजार एनजीओ हैं.
'प्यार की दवात में डुबोकर

विश्वास की कलम से,

जिस दिन पिता ने लिखा दिया “बेटी”,

उस दिन बेटी को

आसमान छूने से कोई नहीं रोक सकता....'



विरासत में मिले अपने पिता के हर घड़ी में साथ होने के भरोसे को जिस दिन मेरी जीवनसाथी ने अपनी कलम से इन शब्दों को कविता की शक्ल में कागज पर उतारा था, उसी दिन से मेरे दिलो-दिमाग में यह ख्याल बिजली की तरह कौंधता रहा है कि मैं अपने दिल की धड़कन अपनी बेटी को कैसा संसार दूंगा? आखिरकार वो घड़ी आ ही गई, जब मेरी बेटी ने मुझसे पूछ ही लिया कि पापा आज अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस (International Day Of The Girl Child) पर आप मुझे तोहफे में क्या देंगे? मैं मुस्कुराया और बरसों से खदबदाते सवाल का जवाब जुबां की कश्ती पर सवार होकर भावनाओं के दरिया में बह निकला. मैं बोला- मेरी चाहत, दुआ और तोहफा यही है कि तू बेखौफ-आजाद आवाज बने, केवल अपनी ही नहीं, सबकी आवाज. तुझे समानता (Euality) का हर वो अधिकार मिलेगा, जो बेटे को दिया है, जो हर इंसान के लिए संविधान में लिखा है. तुझ पर न दिन का पहरा होगा, न रात की बंदिश. तेरे हौसलों की उड़ान, तेरे सपनों, तेरी उम्मीदों को हर पल मेरा साथ और मेरे विश्वास के पंख बुलंदियां देंगे. जा खूब पढ़, अपना संसार गढ़ और अपने अंदाज में जी ले अपनी जिंदगी, एक रोशन दुआ की तरह...



इस साल तो अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस की थीम भी यही है 'मेरी आवाज, हमारा समान भविष्य (MY VOICE, OUR EQUAL FUTURE). पीढ़ियों से पितृसत्तात्मक मानसिकता(Patriarchal mindset) से निकलने की कोशिश कर रहे मेरे जैसे बहुतेरे पिता संभवतः ऐसा ही सोचते होंगे.



मेरी तरह उनके दिल में यह सवाल जरूर उठेंगे, क्या पीढ़ियों से बंधनों में जकड़े समाज की पथरीली जमीन पर बेटी को यह सुकून और सम्मान भरी जिंदगी दे पाना आसान होगा, जहां बेटियों को जन्म से पहले ही मार दिया जाता है.




वरना संयुक्त राष्ट्र (United Nation) की रिपोर्ट यह न कहती कि दुनिया भर में अब तक 14 करोड़ 20 लाख से ज्यादा लड़कियां गायब हो चुकी हैं? केवल भारत में ही 4 करोड़ 60 लाख लड़कियों के गुमशुदा होने की रिपोर्ट न छपती? दिल्ली, हाथरस, भदोही से लेकर नरसिहंपुर, भोपाल तक देश भर में बेटियों के साथ बलात्कार, बेटियों की तस्करी, बाल विवाह की बढ़ती संख्या के आंकड़े नहीं डराते? बलात्कार हो या बदसलूकी की घटनाएं कहीं भी होना शर्मनाक है, लेकिन भोपाल की राजधानी भोपाल का बाशिंदा होने के नाते इस हकीकत को बयां करते हुए सिर शर्म से झुक जाता है कि मध्यप्रदेश पिछले 8 साल से नाबालिग बेटियों से रेप के मामले में सबसे ऊपर है. एनसीआरबी (NCRB) ने पिछले साल 2017 के आंकड़े जारी करते हुए बताया था कि 2479 यहां नाबालिग बच्चियों से रेप की घटनाएं हुई और इन अपराधों को अंजाम देने वाले 90 फीसदी से ज्यादा अपराधी घर का व्यक्ति या कोई नजदीकी रिश्तेदार रहे हैं यानी बेटी घर में भी सुरक्षित नहीं.



मप्र वही राज्य है, जहां सबसे ज्यादा बेटियों के सुरक्षित होने का दावा किया जाता है, जहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद को बेटियों का मामा कहते हुए फूले नहीं समाते. 5 अक्टूबर 2011 से यहां बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का अभियान भी जोर-शोर से चल रहा है. रेप और महिला हिंसा के मामलों में एमपी, यूपी, महाराष्ट्र में आगे निकलने की जैसे होड़ लगी हुई है. भारत में हर 6 घंटे में एक महिला बलात्कार की शिकार होती है.



हम जानते हैं कि स्कूलों में पानी, शौचालय न होने से माहवारी की दिक्कत और स्कूल घर से दूर होने के कारण हर साल लाखों लड़कियों का स्कूल छूट जाता है, पढ़ाई बंद यानी भविष्य खत्म. इसके बाद बेटी की बढ़ती उम्र मां-बाप से देखी नहीं जाती और इज्जत पर खतरे के डर से उसकी जल्दी शादी कर दी जाती है. बेटा कुंवारा बैठ सकता है, लेकिन बेटी घर में बोझ लगने लगती है. वो सड़क पर निकले तो कोई भी उसकी छाती पर हाथ मार कर निकल सकता है, फिकरे कस सकता है यानी इज्जत का सारा बोझ बेटी पर. बेटी काम पर जाए तो कार्यस्थल पर यौन हिंसा (Sexual violence) से लेकर भेदभाव तक का शिकार होना पड़ता है, यहां भी इज्जत बचाने की सारी जिम्मेदारी बेटी की.



तस्वीर बेहद डराने वाली

बेटियों देश की मौजूदा तस्वीर बहुत डराने वाली है. शायद इन्हीं हालातों को देखते हुए थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन ने अपनी सर्वे रिपोर्ट में भारत को औरतों के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश बताया था और कहा था कि बेटियों, महिलाओं को कहीं भी सुरक्षा और सुकून नसीब नहीं है. सड़क पर जाएं तो छेड़खानी (Flirting) होगी, बलात्कार होगा. घर में रहेंगे तो पीटा जाएगा, पलटकर जवाब दें तो बदजुबान कहलाएंगी. बेटी हैं, मगर संपत्ति में अधिकार (Property rights) की बात की तो घरवाले ही जान और रिश्ते के दुश्मन बन जाएंगे.



फिर भी घबराना मत बेटी

मौजूदा तस्वीर कितनी भी भयावह हो, लेकिन बेटी इससे डरने की नहीं, निराश होकर मरने की नहीं, सिक्के के स्याह पहलू को रोशन पहलू में बदलने, अपना वजूद और मुकाम हासिल करने के लिए रणनीति बनाकर लड़ने की जरूरत है. यह काम तुम्हें खुद ही करना होगा. मशहूर और मरहूम शायर राहत इंदौरी का एक शेर हमेशा याद रखना, जिसमें वह कहते हैं... 'न हमसफर, न किसी हमनशीं से निकलेगा, हमारे पांव का कांटा हमीं से निकलेगा.' अगर सब कुछ बेहतर होता तो शायद आज हमें अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की जरूरत न पड़ती. ये लड़ाई लंबी है, लंबी चलने वाली है, क्योंकि समाज के कुएं में घुले पितृसत्तात्मक मानसिकता के जहर को पीढ़ियों से सब पीते, बेटियों पर जुल्म ढाते और कुरीतियों को ढोते आ रहे हैं. इस जहर से मुक्ति में समय तो लगेगा, मेरी पीढ़ी के काफी लोग तो मुक्ति के लिए लड़ रहे हैं, अब अगली उम्मीद तुम हो, इसलिए घबराना मत मेरी बेटी. न ही बेटी को दुर्गा, लक्ष्मी, देवी जैसे जुमलों के झांसों में आना.



जरा इतिहास पर नजर डालो

संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को मानते हुए पूरी दुनिया में 2012 से हर साल 11 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया ही इसलिए जाता है, ताकि बेटियों के साथ हो रहे भेदभाव को खत्म करने, हिंसा, शिक्षा, सेहत, सुरक्षा, आत्मसम्मान, लड़कियों को समान रूप से अधिकारों के साथ और बेटों के बराबर समानता देने, दहेज, बाल विवाह, बाल तस्करी, लिंग चयन आधारित भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियों पर बात कर अंधे-गूंगे-बहरे-सोए समाज को जगाया जा सके. इस काम के लिए बेटी, मेरी तुमसे ही नहीं, देश-दुनिया की हर बेटी से अपेक्षा है कि उसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रूप से जागरूक और सक्षम बनना होगा.



तुम्हें बता दूं कि कि अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस का 2011 से पहले कोई वजूद न था. सबसे पहले उसे प्लान इंटरनेशनल नाम गैरसरकारी संगठन एक प्रोजेक्ट के रूप में लेकर आया और क्योंकि “मैं एक लड़की हूं” नाम से अभियान भी शुरू किया.




इसके बाद विस्तार के लिए संगठन ने कनाडा सरकार से संपर्क किया. फिर कनाडा सरकार ने 55वें संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में इस प्रस्ताव को रखा. अंततः संयुक्त राष्ट्र ने 19 दिसंबर 2011 को इस प्रस्ताव को पारित और इसके लिए 11 अक्टूबर का दिन चुना. इस प्रकार पहला अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस 11 अक्टूबर 2012 को मनाया गया.



इस साल की थीम

पहले साल अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस की थीम थी, बाल विवाह को समाप्त करना. हर साल नई थीम पर यह दिवस मनाया जाता है. इस साल 2020 में दिवस की थीम है मेरी आवाज, हमारा समान भविष्य ( MY VOICE, MY EQUAL FUTURE).



वक्त बदल रहा, अंधेरा छंट रहा

बेटी, ऐसा नहीं है कि सब कुछ खराब है, देश-दुनिया में हो रही जागरूकता की बातों और बेटियों की बेहतर जिंदगी के लिए हो रहे आंदोलनों के चलते ही घूंघट में कैद बेटियां घर की चौखट से निकल कर जमीं से लेकर आसमान तक, खेतों से लेकर युद्ध के मैदान तक, पानी से लेकर हिमालय की चोटियों तक अपने हौसले, अपने संघर्ष के बूते सफलता के परचम लहरा रही हैं. दरअसल बेटियों की हर सफलता के पीछे उसका खुद का संघर्ष ज्यादा रहा है. यह संघर्ष ही है, जिसे करने वाली मैरीकाम मुक्केबाजी में ओलंपिक में कई बार स्वर्ण पदक जीतकर लाईं. वेटलिफ्टर कर्णम मल्लेश्वरी, बैंडमिंटन में साइना नेहवाल, पीवी सिंधू, कुश्ती में साक्षी मलिक, हिमालय में विजय पताका फहराने वाली अरूणिमा सिन्हा, देश की पहली फाइटर प्लेन उड़ाने वाली अवनि चतुर्वेदी, भावना कंठ, मोहना सिंह, राफेल उड़ाने वाली बनारस की शिवांगी सिंह, महिला क्रिकेटर मिताली राज जैसी बेटियों ने बुलंदियों को हासिल करने का सफर कोई आसान नहीं रहा.



ये बेटियां भी देती हैं हौसला

इन बड़े हो चुके नामों को हम छोड़ भी दें तो छतरपुर जिले में अंगरौठा गांव की 19 साल की बबीता के हौसले को सलाम नहीं किया जाना चाहिए, जिसके नेतृत्व में 200 से ज्यादा महिलाओं ने 107 मीटर पहाड़ों को काटकर पानी के लिए रास्ता बना डाला और बरसों से भुगत रहे जलसंकट को हमेशा के लिए खत्म कर दिया. बबीता कहती हैं कि यह कहानी इन महिलाओं की मुश्किलों पर जीत की दास्तां है. अंगरौठा में भी पानी की वजह से महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है. इसके साथ लड़कियों की कम उम्र में शादी और स्कूल छोड़ने में भी जलसंकट की भूमिका मानी जाती है. हम भोपाल में 14 साल की उम्र में शादी से इनकार करने वाली उस पूनम को भी नहीं भूल सकते, जो कम उम्र में शादी के खिलाफ और आगे पढ़ने के लिए अपने परिवार से लड़ गई थी और उसकी कहानियां यूनिसेफ की बुकलेट में छपकर यूएन तक पहुंची थीं. क्या पंचशीलनगर की उस शिवानी को शाबासी नहीं दी जानी चाहिए, जो तमाम मुश्किलों के बावजूद अपने घरेलू कामकाज को भी संभालते हुए न सिर्फ खुद डाक्टरी पढ़ रही है, बल्कि अपने ही जैसे वंचित समुदाय में पढ़ने वाले बच्चों को भी प्रेरित कर रही है. पन्ना जिले की कोटा गांव में रहने वाली 16 साल की गिरजा गोंड और उसके साथ दस्तक समूह से जुड़कर आगे पढ़ाई की कोशिश करने वाले 12 साथियों के हौसले भी तारीफ के काबिल हैं. गिरजा आजकल संदर्भ केन्द्र में आईं संविधान नामक किताब पढ़ रही है, जिसे भोपाल के विकास संवाद केन्द्र की ओर से भेजा गया है. 8वीं के बाद पढ़ाई छोड़ चुकी गिरजा अब आगे आदिमजाति जनजाति छात्रावास में जाकर पढ़ने की ललक रखती है, तो उसकी तारीफ की जाना चाहिए.



एक दर्द हमेशा सालता है

बेटी मैं तुम्हारा पिता हूं, इससे पहले किसी का बेटा था, मुझे यह दर्द बहुत सालता है कि इज्जत की सारी सलीबें बेटियों को ढोने के लिए ही क्यों मजबूर किया जाता है. यानी बलात्कारी, इज्जत का लुटेरा मर्द, लेकिन फिर भी खबरें आती है कि फलां साल इतनी बेटियों, औरतों की इज्जत लुटी, यह क्यों नहीं लिखा जाता है कि इस साल इतने लड़कों या मर्दों ने इज्जत लूटी या बलात्कार किया....इतने लड़कों या मर्दों ने छेड़खानी की...मर्द कई शादियां कर लें, तो भी वह सम्मानित, लेकिन लड़की ऐसा कर ले, तो कुलच्छनी कहलाती है. आखिर सारी इज्जत की जिम्मेदारी लड़की के शरीर में क्यों डाल दी जाती है.



लड़कों को क्यों नहीं सिखाया जाता कि वह बेटियों की इज्जत करें, उनसे छेड़खानी न करें, उनके रहते बेटियां खुद को असुरक्षित नहीं, बल्कि सुरक्षित समझें.




मैं चाहता हूं कि समाज की सोच की यह स्याह तस्वीरें बदलने तुम खुद आंदोलन बन जाओ. तुम भीड़ में नहीं, भीड़ के सामने खड़ी होकर उसे सिखाने वाली आजाद आवाज बनो, और हम सबका समान भविष्य की उम्मीद को साकार करो. मुझे विश्वास है कि तुम जीतोगी, क्योंकि तुम एक कोख से संसार तक बचे बेटी, ससम्मान जिए बेटी के सूत्र वाक्य को लेकर बेटियों की जिंदगी को रफ्तार देने देने वाली मां और विश्वास और हौसले का झंडा थामे पिता की बेटी हो. ये शब्द मां-बाप के अपनी बेटियों के लिए हैं. सभी बेटियों को अंतरराष्ट्रीय बेटी दिवस की बधाई, तुम्हारी आवाज बुलंद और परवाज परवान चढ़े...आमीन.

(यह लेखक के निजी विचार हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
सुनील कुमार गुप्ता

सुनील कुमार गुप्तावरिष्ठ पत्रकार

सामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.

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First published: October 11, 2020, 1:17 pm IST

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