चमकी बुखार झेल चुके बच्चे अब हो रहे मिर्गी का शिकार, बने सक्षम पुनर्वास नीति

मुमकिन है इन बच्चों के बीच काम करते हुए सरकार को इस बीमारी का कोई स्थायी निदान ही मिल जाये. (सांकेतिक फोटो)
दो दिन पहले एक खबर मुजफ्फरपुर से आयी कि चमकी बुखार (AES Chamki Bukhar) का सामना करने वाले 30 फीसदी बच्चे मिर्गी के रोगी बन जा रहे हैं. इनमें से कुछ बच्चों की तो आंखों की रोशनी भी चली जा रही है. कुछ लकवे का शिकार हो रहे हैं. यूनिसेफ की तरफ से अब इस मामले को लेकर शोध भी किया जा रहा है. मुजफ्फरपुर स्थित एसकेएमसीएच अस्पताल (SKMC Hospital) इस बीमारी से पीड़ित बच्चे बड़ी संख्या में पहुंचते हैं, वहां भी अब डॉक्टर इस मसले को लेकर सक्रिय हो गये हैं. यह अच्छा संकेत है. गैर सरकारी संगठन लंबे समय से इस बात को अलग-अलग तरीके से उठाते रहे हैं. इस मसले पर पीएमसीएच, पटना में शोध भी हो चुका है. मगर अब तक सरकार की तरफ से इस मसले को इग्नोर किया जाता था, अब जब सरकारी संस्थाएं इस तथ्य को स्वीकार कर रही है तो बिहार सरकार को इस मसले पर गंभीरता से कदम उठाना चाहिए और कोई सक्षम नीति बनाकर ऐसे उपाय करने चाहिए कि ये बच्चों बीमारी से ठीक होने के बाद भी सामान्य जीवन जी सकें.
जैसा कि हम सब जानते हैं, बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के कई जिलों में गर्मियों के मौसम में अमूमन हर साल चमकी बुखार छोटे बच्चों को अपनी चपेट में ले लेता है. इस वजह से बड़ी संख्या में छोटे बच्चों की मौत हो जाती है. 1995 से इस रोग को यहां के चिकित्सक फोलो कर रहे हैं. बाद में इसे एक्यूट इनसेफलाइटिस सिंड्रोम का नाम दिया गया. चूंकि इस बुखार में बच्चों के शरीर में झटके लगते हैं, इसलिए आम बोलचाल की भाषा में इसे चमकी बुखार भी कहा जाता है. इस बीमारी में बचाव का वक्त बहुत कम रहता है और समय पर उपचार न मिले तो पांच से आठ घंटे में स्थिति बेकाबू हो जाती है और अक्सर बच्चों की मौत हो जाती है. अब तक इस बीमारी के कारणों का पता नहीं लगाया जा सका है, अभी भी इसका उपचार लक्षणों के आधार पर किया जाता है.
2015 में तैयार हुआ था SOP
साल 2014 तक इस रहस्यमयी हर साल दो से ढाई सौ बच्चों की मौत होती थी. 2015 में चिकित्सकों ने पाया कि इस बीमारी में अचानक बच्चों का शुगर लेवल तेजी से गिरता है. अगर समय से इसकी पहचान कर ली जाये और तत्काल बच्चों को ग्लूकोज चढ़ा दिया जाये तो मौतों को रोका जा सकता है. इस आधार पर एक SOP तैयार हुआ और अभियान चलाकर बच्चों को बचाया गया. इससे मौतों की संख्या में गिरावट आयी. फिर हर साल 15 से 20 बच्चे ही इसकी वजह से मौत के शिकार होने लगे. मगर 2019 में एक बार फिर यह बीमारी अनियंत्रित हो गयी और उस साल 185 बच्चों की मौत हो गयी. तब एक बार फिर से इस बीमारी से मुकाबले के लिए चल रहे सरकारी प्रयासों पर सवाल उठने लगा. 2020 में जरूर यह बीमारी कई वजहों से नियंत्रित दिखी. मगर सच यही है कि अभी भी इस रोग के कारणों का पता नहीं लग सका है और न ही इसका कोई सटीक निदान मिला है. जागरूकता अभियान का दिखा असर
अब तक स्वास्थ्य विभाग का पूरा जोर बच्चों को बचाने में रहा है, मगर जो बच्चे इस बीमारी से बच जाते हैं, वे भी अमूमन सामान्य जीवन जी नहीं पाते. मगर अभी तक सरकार इन बच्चों के प्रति बहुत गंभीर नजर नहीं आयी. 2019 में जब इस बीमारी से 185 बच्चों की मौत हो गयी तो बिहार के युवाओं की एक टीम ने न सिर्फ पीड़ित इलाकों में जागरूकता अभियान चलाया, बल्कि बाद में जब इस बीमारी का कहर कम हो गया तो पीड़ित क्षेत्र में जाकर उस साल बीमार हुए 227 बच्चों के अभिभावकों के बीच सर्वेक्षण भी किया. इस सर्वेक्षण में भी खास तौर पर यह बात उभर कर सामने आयी थी कि इस बीमारी से स्वस्थ हो चुके 33.9 फीसदी बच्चों में किसी न किसी तरह की परेशानी दिखती है. इनमें काफी गुस्सा आने, सुस्त रहने, कभी-कभी बेहोश हो जाने, देर तक खड़े नहीं रह पाने, देखने में परेशानी आदि संकेत दिखे थे.
बीमारी से लड़ने में नीति का अभावउस रिपोर्ट को सरकार और स्वास्थ्य मंत्री को भी सौंपा गया था. मगर इसके बावजूद इन बच्चों को लेकर कोई गंभीर नीति नहीं बनी. हां, एक पॉपुलर फैसला जरूर किया गया कि इस बीमारी से पीड़ित होने वाले सभी परिवारों को आवास योजना का लाभ मिलेगा. उससे इन बच्चों का कोई लाभ नहीं होने वाला था. उस वक्त युवाओं की टीम ने सरकार को सुझाव दिये थे कि चमकी बुखार से ठीक होकर घर लौटने वाले बच्चों की नियमित निगरानी हो. उनके बीच वैज्ञानिक अध्ययन कराया जाये, हो सकता है कि इससे रोग के कारणों की पहचान में मदद मिले. उन्हें किसी भी तरह की परेशानी हो तो उसका तत्काल समुचित और मुफ्त इलाज हो, अगर उनमें किसी गंभीर बीमारी के लक्षण दिखें तो उन्हें इलाज के लिए बाहर भेजा जाये. अगर किसी बच्चे में कोई स्थायी विकार आ गया हो तो उनका पुनर्वास हो.
अब जबकि यूनिसेफ और एसकेएमसीएच के डॉक्टर भी मान रहे हैं कि ऐसी परेशानियां बच्चों में आती हैं तो सरकार को अब आगे बढ़कर इस विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए और दिये गये सुझावों के अनुरूप एक बेहतर और सक्षम नीति बनाना चाहिए. ताकि इस रहस्यमय बीमारी से बच निकलने वाले बच्चों को ताउम्र किसी विकार या अपंगता को न झेलना पड़े. मुमकिन है इन बच्चों के बीच काम करते हुए सरकार को इस बीमारी का कोई स्थायी निदान ही मिल जाये. (डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.)
जैसा कि हम सब जानते हैं, बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के कई जिलों में गर्मियों के मौसम में अमूमन हर साल चमकी बुखार छोटे बच्चों को अपनी चपेट में ले लेता है. इस वजह से बड़ी संख्या में छोटे बच्चों की मौत हो जाती है. 1995 से इस रोग को यहां के चिकित्सक फोलो कर रहे हैं. बाद में इसे एक्यूट इनसेफलाइटिस सिंड्रोम का नाम दिया गया. चूंकि इस बुखार में बच्चों के शरीर में झटके लगते हैं, इसलिए आम बोलचाल की भाषा में इसे चमकी बुखार भी कहा जाता है. इस बीमारी में बचाव का वक्त बहुत कम रहता है और समय पर उपचार न मिले तो पांच से आठ घंटे में स्थिति बेकाबू हो जाती है और अक्सर बच्चों की मौत हो जाती है. अब तक इस बीमारी के कारणों का पता नहीं लगाया जा सका है, अभी भी इसका उपचार लक्षणों के आधार पर किया जाता है.
2015 में तैयार हुआ था SOP
साल 2014 तक इस रहस्यमयी हर साल दो से ढाई सौ बच्चों की मौत होती थी. 2015 में चिकित्सकों ने पाया कि इस बीमारी में अचानक बच्चों का शुगर लेवल तेजी से गिरता है. अगर समय से इसकी पहचान कर ली जाये और तत्काल बच्चों को ग्लूकोज चढ़ा दिया जाये तो मौतों को रोका जा सकता है. इस आधार पर एक SOP तैयार हुआ और अभियान चलाकर बच्चों को बचाया गया. इससे मौतों की संख्या में गिरावट आयी. फिर हर साल 15 से 20 बच्चे ही इसकी वजह से मौत के शिकार होने लगे. मगर 2019 में एक बार फिर यह बीमारी अनियंत्रित हो गयी और उस साल 185 बच्चों की मौत हो गयी. तब एक बार फिर से इस बीमारी से मुकाबले के लिए चल रहे सरकारी प्रयासों पर सवाल उठने लगा. 2020 में जरूर यह बीमारी कई वजहों से नियंत्रित दिखी. मगर सच यही है कि अभी भी इस रोग के कारणों का पता नहीं लग सका है और न ही इसका कोई सटीक निदान मिला है.
अब तक स्वास्थ्य विभाग का पूरा जोर बच्चों को बचाने में रहा है, मगर जो बच्चे इस बीमारी से बच जाते हैं, वे भी अमूमन सामान्य जीवन जी नहीं पाते. मगर अभी तक सरकार इन बच्चों के प्रति बहुत गंभीर नजर नहीं आयी. 2019 में जब इस बीमारी से 185 बच्चों की मौत हो गयी तो बिहार के युवाओं की एक टीम ने न सिर्फ पीड़ित इलाकों में जागरूकता अभियान चलाया, बल्कि बाद में जब इस बीमारी का कहर कम हो गया तो पीड़ित क्षेत्र में जाकर उस साल बीमार हुए 227 बच्चों के अभिभावकों के बीच सर्वेक्षण भी किया. इस सर्वेक्षण में भी खास तौर पर यह बात उभर कर सामने आयी थी कि इस बीमारी से स्वस्थ हो चुके 33.9 फीसदी बच्चों में किसी न किसी तरह की परेशानी दिखती है. इनमें काफी गुस्सा आने, सुस्त रहने, कभी-कभी बेहोश हो जाने, देर तक खड़े नहीं रह पाने, देखने में परेशानी आदि संकेत दिखे थे.
बीमारी से लड़ने में नीति का अभावउस रिपोर्ट को सरकार और स्वास्थ्य मंत्री को भी सौंपा गया था. मगर इसके बावजूद इन बच्चों को लेकर कोई गंभीर नीति नहीं बनी. हां, एक पॉपुलर फैसला जरूर किया गया कि इस बीमारी से पीड़ित होने वाले सभी परिवारों को आवास योजना का लाभ मिलेगा. उससे इन बच्चों का कोई लाभ नहीं होने वाला था. उस वक्त युवाओं की टीम ने सरकार को सुझाव दिये थे कि चमकी बुखार से ठीक होकर घर लौटने वाले बच्चों की नियमित निगरानी हो. उनके बीच वैज्ञानिक अध्ययन कराया जाये, हो सकता है कि इससे रोग के कारणों की पहचान में मदद मिले. उन्हें किसी भी तरह की परेशानी हो तो उसका तत्काल समुचित और मुफ्त इलाज हो, अगर उनमें किसी गंभीर बीमारी के लक्षण दिखें तो उन्हें इलाज के लिए बाहर भेजा जाये. अगर किसी बच्चे में कोई स्थायी विकार आ गया हो तो उनका पुनर्वास हो.
अब जबकि यूनिसेफ और एसकेएमसीएच के डॉक्टर भी मान रहे हैं कि ऐसी परेशानियां बच्चों में आती हैं तो सरकार को अब आगे बढ़कर इस विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए और दिये गये सुझावों के अनुरूप एक बेहतर और सक्षम नीति बनाना चाहिए. ताकि इस रहस्यमय बीमारी से बच निकलने वाले बच्चों को ताउम्र किसी विकार या अपंगता को न झेलना पड़े. मुमकिन है इन बच्चों के बीच काम करते हुए सरकार को इस बीमारी का कोई स्थायी निदान ही मिल जाये. (डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.)
First published: January 27, 2021, 10:11 AM IST