वैशाली के लिए ताउम्र धड़कता रहा रघुवंश बाबू का दिल

देश का पहला गणतंत्र, जैन धर्म के संस्थापक वर्धमान महावीर की जन्मस्थली और गौतमबुद्ध का कर्मक्षेत्र रही वैशाली (Vaishali) जो प्राचीन काल में दुनिया के मशहूर नगरों में से एक थी, उसे फिर से एक बेहतरीन पर्यटनक्षेत्र के रूप में विकसित करना चाहते थे रघुवंश प्रसाद सिंह.

Source: News18Hindi Last updated on:September 13, 2020 5:47 PM IST
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वैशाली के लिए ताउम्र धड़कता रहा रघुवंश बाबू का दिल
बीमारी के दौरान रघुवंश बाबू ने सीएम नीतीश कुमार को पत्र लिखकर तीन मांगें रखीं, जिनमें से दो मांगें वैशाली से जुड़ी थीं. (फाइल फोटो)
'लोकतंत्र की जननी वैशाली में आपका स्वागत है.', 'वर्धमान महावीर की जन्मस्थली वैशाली में आपका स्वागत है.' , 'गौतम बुद्ध की कर्मस्थली वैशाली में आपका स्वागत है.' बिहार के वैशाली जिले में प्रवेश करते ही आपको इस तरह के लिखे बोर्ड नजर आने लगेंगे. ये बोर्ड रघुवंश बाबू के नाम से मशहूर पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने लगवाये थे. आज उनका निधन हो गया. हर तरफ केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रहते हुए किए गए उनके काम, गरीबों के प्रति उनका समर्पण और उनकी जमीनी राजनीति की चर्चा है. मगर यह भी सच है कि रघुवंश बाबू के मन में देश के गरीब-गुरबों के प्रति जितना स्नेह था, अपने गृह नगर वैशाली के प्रति उससे कम स्नेह नहीं था. देश का पहला गणतंत्र, जैन धर्म के संस्थापक वर्धमान महावीर की जन्मस्थली और गौतमबुद्ध का कर्मक्षेत्र रही वैशाली जो प्राचीन काल में दुनिया के मशहूर नगरों में से एक थी, उसे वे फिर से एक बेहतरीन पर्यटनक्षेत्र के रूप में विकसित करना चाहते थे. इसी वजह से महज तीन दिन पहले जब उन्होंने राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को इस्तीफे वाला पत्र भेजा, उसी रोज उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी एक पत्र भेजा और तीन मांगें कीं. उनमें से दो मांगें वैशाली से जुड़ी थीं.



रघुवंश जी का वैशाली प्रेम



10 सितंबर, 2020 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लिखे पत्र में उन्होंने तीन मांगें उनसे की थीं. उन्होंने कहा था कि गणतंत्र दिवस के अवसर पर मुख्यमंत्री को वैशाली आकर झंडा फहराना चाहिए, गौतम बुद्ध का अंतिम भिक्षा पात्र जिसे कुषाण काल में वैशाली से कंधार के इलाके में ले जाया गया था, जो आज काबुल के संग्रहालय में है, उसे वापस वैशाली लाना चाहिए. और आखिरी मांग के तौर पर उन्होंने मनरेगा में कृषि कार्यों को शामिल किए जाने की बात की थी. उनके लेटर पैड से जारी यह पत्र एक तरह से उनकी अंतिम इच्छा भी है. और उनकी आखिरी ख्वाहिशों की फेहरिश्त में जहां एक काम मनरेगा से संबंधित है, दो उनके गृह नगर वैशाली से. इससे यह समझा जा सकता है कि वे वैशाली से कितना प्रेम करते थे.



वैशाली का वैभव वापस लाना चाहते थे रघुवंश बाबू



यह सच है कि प्राचीन काल में, खास कर बुद्ध के समय में वैशाली नगर काफी भव्य था. गंगा और गंडक नदी के किनारे बसे इस शहर की भव्य इमारतों को देखकर विदेशी यात्री चकित रह जाते थे. जब राजगृह में बिम्बिसार के शासन में मगध साम्राज्य खड़ा हो रहा था, तब वैशाली की ख्याति पूरे देश में थी. उस वक्त वैशाली एक गणतंत्र था, जिसमें वृजि और बज्जी संघ शामिल थे. तब वैशाली के संघ प्रमुख चेटक की एक कन्या चेल्लना का विवाह बिम्बिसार से हुआ था, दूसरी कन्या त्रिशाला से जैन धर्म के संस्थापक वर्धमान महावीर ने जन्म लिया. उसी वैशाली में आम्रपाली जैसी नृत्यांगना थी, जिसने महिलाओं के प्रति बुद्ध का हृदय परिवर्तित किया. उसे बुद्ध का आतिथ्य मिला. बाद में आम्रपाली बौद्ध भिक्षुणी बन गई. मगर उसी वैशाली के नाती बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने वैशाली के उस पर पाटलीपुत्र नगर बसा कर वृजि और बज्जी संघ के नाम से मशहूर उस गणतंत्र को पराजित कर दिया और मगध साम्राज्य में मिला लिया. क्योंकि कभी चेटक ने बिम्बिसार का अपमान किया था. तब से धीरे-धीरे वैशाली की गरिमा खत्म होती चली गई. हालांकि बुद्धकाल के नौ सौ साल बाद 405-411 ईस्वी के बीच जब चीनी यात्री फाह्यान वैशाली पहुंचा था, तब भी इस नगर का ऐश्वर्य बरकरार था. आज वैशाली एक छोटा सा कस्बा बनकर रह गया है, जहां एक सामान्य संग्रहालय है. इस वैशाली को फिर से वे एक ऐसा शहर बनाना चाहते थे, जहां दुनिया भर के लोग गणतंत्र की जन्मस्थली, बुद्ध की कर्मस्थली और महावीर की जन्मभूमि को देखने आए.



बुद्ध की अस्थियों के लिए पदयात्रा



इसी वैशाली में 1958 में बुद्ध के अस्थि अवशेष मिले थे, जिसे सुरक्षा के लिहाज से 1972 में पटना संग्रहालय में रख दिया गया था. उन अस्थियों को रखने के लिए बिहार सरकार ने पटना में बुद्ध स्मृति पार्क का निर्माण शुरू कराया था. मगर रघुवंश बाबू चाहते थे कि वे अस्थियां वैशाली में रहे. ताकि दुनिया भर के पर्यटक उन्हें देखने उनके वैशाली आएं. इस फैसले के विरोध में रघुवंश बाबू ने 2007 में केसरिया से पटना तक की पदयात्रा की थी. 2008 में वैशाली के स्थानीय व्याख्याता डॉ रामनरेश राय ने इस फैसले के विरोध में पटना हाईकोर्ट में जनहित याचिका जाहिर की थी. 2010 में हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि एक साल के अंदर वैशाली में एक संग्रहालय और बुद्धिस्ट सेंटर की स्थापना करे और बुद्ध की अस्थियां वहीं रखी जाएं.



10 बरस में भी पूरा नहीं हुआ 'एक साल'



दुर्भाग्यवश एक साल के अंदर की समय सीमा दस साल में भी पूरी नहीं हो पाई है. हालांकि यह रघुवंश बाबू की जिद का ही नतीजा था कि वहां 76 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर भव्य बौद्ध सम्यक दर्शन संग्रहालय, मेडिटेशन सेंटर और अस्थिकलश भवन का निर्माण हो रहा है. बुद्ध के अस्थि अवशेष अभी भी पटना संग्रहालय में ही हैं.



वैशाली से जुड़ी दो मांगें



रघुवंश बाबू उसी वैशाली में पैदा हुए और वैशाली की ही लोकसभा सीट से 1996 से 2014 तक सांसद चुने गए. 2014 के बाद हुए दो चुनावों में वैशाली के लोगों ने उन्हें मौका नहीं दिया. मगर वैशाली के प्रति उनका जो प्रेम था वह कभी कम नहीं हुआ. जाते-जाते अपनी अंतिम इच्छा के रूप में रघुवंश बाबू वैशाली के लिए गणतंत्र दिवस के मौके पर सीएम द्वारा झंडोत्तोलन और बुद्ध के अंतिम भिक्षापात्र की वापसी की मांग कर गए हैं. काबुल के बुद्ध के भिक्षापात्र की वापसी थोड़ा मुश्किल काम है. इसके लिए भारत सरकार के आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को मजबूत दावा पेश करना होगा. मगर गणतंत्र दिवस पर तो वैशाली में मुख्यमंत्री द्वारा झंडोत्तोलन की शुरुआत की ही जा सकती है. जाहिर है, इससे वैशाली की गरिमा भी बढ़ेगी और लोकतंत्र की जननी के रूप में इसकी वैश्विक पहचान स्थापित होगी.



नीतीश रख पाएंगे रघुवंश जी की अंतिम इच्छा का मान!



हालांकि रघुवंश बाबू के निधन के बाद पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा यह कहा गया है कि उनकी अंतिम इच्छाओं का ध्यान रखा जाएगा. मगर सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वैशाली में गणतंत्र दिवस पर झंडोत्तोलन की परंपरा की शुरुआत करेंगे? क्योंकि उनके बारे में ऐसा माना जाता है कि वे उत्तर बिहार के गौरव से जुड़े किसी कार्य में अमूमन दिलचस्पी नहीं लेते. इसी वजह से दो बड़े धर्मों के केंद्र और गणतंत्र की जननी का गौरव हासिल होने के बावजूद वैशाली आज भी उपेक्षित है. नीतीश इसी कारण वैशाली के बदले बुद्ध की अस्थियां राजधानी पटना में रखवाना चाहते थे, उन अस्थियों को फिर से वैशाली ले जाने के लिए रघुवंश बाबू को लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी. अब देखना है कि नीतीश रघुवंश बाबू की अंतिम इच्छाओं का कितना मान रखते हैं. (डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
First published: September 13, 2020 5:43 PM IST