जम्मू-कश्मीर का पहला डीडीसी चुनाव उम्मीद की एक नई किरण

Jammu Kashmir DDC Elections: बीजेपी ने स्थानीय चुनावों को भी पूरी गंभीरता से लड़ा और इसके शीर्ष नेताओं ने केंद्रशासित प्रदेश के अलग अलग इलाकों का दौरा किया. बीजेपी ने आक्रामक चुनाव प्रचार की नीति अपनाई और उसको इसका प्रतिफल भी मिला.

Source: News18Hindi Last updated on: December 23, 2020, 7:37 pm IST
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जम्मू-कश्मीर का पहला डीडीसी चुनाव उम्मीद की एक नई किरण
नेता ने कहा डीडीसी अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी ने सभी मानदंडों का उल्लंघन किया है.(AP Photo/Mukhtar Khan)
श्रीनगर. जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir) का पहला डीडीसी चुनाव (DDC Elections) उम्मीद की एक नई किरण, एक नया सवेरा लेकर आया. पिछले कुछ दशकों में पहली बार, आतंक के साये में सांस लेने को मजबूर, जम्मू कश्मीर की आवाम ने लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए बड़ी तादाद में वोटिंग की. बर्फ बारी और कड़ाके की ठंड के बावजूद इस बार लोग भारी तादाद में मतदान करने के लिए बाहर निकले. इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं कि डीडीसी के चुनाव में बीजेपी अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. बीजेपी ने पहली बार कश्मीर घाटी की तीन सीटों पर फतह हासिल की. दक्षिण कश्मीर के पुलवामा में एक, उत्तरी कश्मीर के बांदीपुरा में एक और सेंट्रल कश्मीर के श्रीनगर में एक सीट के साथ कुल 75 सीटों पर बीजेपी ने बाजी मारी. बीजेपी के लिए ये बड़ी नैतिक जीत है.



बीजेपी ने स्थानीय चुनावों को भी पूरी गंभीरता से लड़ा और इसके शीर्ष नेताओं ने केंद्रशासित प्रदेश के अलग अलग इलाकों का दौरा किया. बीजेपी ने आक्रामक चुनाव प्रचार की नीति अपनाई और उसको इसका प्रतिफल भी मिला. नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, एएनसी और सीपीआईएम के नेतृत्व वाले गुपकार गठबंधन को कुल मिलाकर 110 सीटों पर जीत मिल सकी. इन चुनावों ने साफ कर दिया कि नेशनल कांफ्रेंस की जम्मू और कश्मीर दोनों ही इलाकों में ज़मीनी सतह पर पकड़ मजबूत है जबकि पीडीपी इन दोनों ही क्षेत्रों में कमजोर होती जा रही है. पीडीपी के ख़राब प्रदर्शन की वजह बीजपी के साथ सरकार में रहते हुए उम्मीदों के अनुरुप काम नहीं करना, भ्रष्टाचार और भरोसेमंद चेहरे की कमी को माना जा रहा है. पीडीपी के कई बड़े नेताओं ने धारा 370 हटाए जाने के बाद इसका दामन छोड़ दिया था.



कांग्रेस को 26 सीटों से ही करना पड़ा संतोष

जम्मू कश्मीर में कांग्रेस का पुनरुत्थान फिलहाल दूर की कौड़ी लग रहा है. डीडीसी चुनाव में इसे महज 26 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. कांग्रेस ने इस चुनाव को गंभीरता से लिया भी नहीं. इसके एक भी बड़े नेता ने जम्मू कश्मीर में चुनाव प्रचार नहीं किया. बहुत से ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिया गया जिनकी स्वीकार्यता लोगों के बीच नहीं थी. कांग्रेस तो जैसे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही थी.



लेकिन हैरतअंगेज रहा बीजेपी-पीडीपी सरकार में मंत्री रहे अल्ताफ बुखारी के नेतृत्व वाली नई पार्टी जेकेएपी (जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी) का ख़राब प्रदर्शन. ऐसा माना जाता है कि जेकेएपी को केंद्र का समर्थन है और इसको भी पार्टी के खराब प्रदर्शन की वजह माना गया. चुनावी मैदान में नए खिलाड़ी के तौर ये लोगों का विश्वास नहीं जीत सकी. ऐसा लगता है कि इस पार्टी को अपनी विश्वसनीयता साबित करने और जमीनी सतह पर पकड़ मजबूत बनाने में अभी वक्त लगेगा. साथ ही साथ इसके प्रचार अभियान की कमान संभालने वाले नेताओं में ज्यादातर पहले पीडीपी से जुड़े हुए थे जिसकी वजह से ये मतदाताओं के मन में जगह नहीं बना सके.



युवा नेतृत्व का उभरना अहम पहलू

इस चुनाव का सबसे अहम पहलू रहा युवा नेतृत्व का उभरना. कई युवा चुनावी समर में उतरे और बतौर स्वतंत्र उम्मीदवार इनमें से 49 ने डीडीसी में जगह बना ली. संदेश साफ है कि मतदाता पुरानी पार्टियों और थक चुके नेताओं से हताश हो चुके हैं और प्रशासन की कमान नए हाथों को सौंपना चाहते हैं. नया नेतृत्व जमीनी स्तर पर शासन-प्रशासन के परिचालन में अहम भूमिका का निर्वाह करेगा.



कुछ नेताओं का दावा है कि डीडीसी चुनावों में मिली कामयाबी दरअसल अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर मिला जनादेश है. लेकिन डीडीसी जैसे चुनाव सड़क, पानी, बिजली और साफ सफाई जैसी मूलभूत सुविधाओं के मुद्दों पर लड़े जाते हैं और इसको अनुच्छेद 370 को हटाने पर जनमत संग्रह मानना उचित नहीं है. लेकिन एक बात तो तय है कि इन चुनावों ने विधानसभा चुनाव का रास्त साफ कर दिया है, साथ ही ये भी निश्चित है कि लोग बड़ी तादाद में इसमें हिस्सा लेने के लिए और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को मजबूत करने के लिए कमर कस चुके हैं. जम्मू कश्मीर के लोग आतंक और ख़ूनख़राबे से आजिज़ आ चुके हैं. अब लोग शांति के साथ जीना चाहते हैं. यही वो वजह है कि लोग इतनी बड़ी संख्या में डीडीसी चुनावों में शामिल हुए.



इन चुनावों का बहुत ही अहम पहलू ये है कि सभी निर्वाचित सदस्य भारत के संविधान के प्रति आस्था की शपथ लेंगे. ये एक नई परंपरा होगी, जिसे अलगाववादी ताकतें अब तक नकारती आ रही थीं और स्वामिभक्ति की अपनी व्याख्या कर रही थीं. इस चुनाव ने एक खंडित जनादेश दिया है और किसी भी दल को पूर्ण बहूमत नहीं मिला है. अब केंद्र सरकार के लिए विकास के एजेंडे को अमली जामा पहनाना एक बड़ी चुनौती होगी क्योंकि परस्पर विरोधी विचारों के बीच आम सहमति बनाना आसान नहीं होगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
राजेश रैना

राजेश रैनाग्रुप एडिटर, न्यूज 18, रीजनल चैनल

राजेश रैना न्यूज 18 के रीजनल चैनल के ग्रुप एडिटर हैं. पत्रकारिता की अपनी सुदीर्घ यात्रा में रैना जी देश के कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं. रैना जी को राजनीतिक और कश्मीर मामलों का विशेषज्ञ माना जाता है.

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First published: December 23, 2020, 7:37 pm IST

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