पत्रकारिता की एक पूरी पीढ़ी का सृजन किया था ललित सुरजन ने
प्रगतिगामी सोच के साथ हिंदी साहित्य की जो सेवा ललित सुरजन ने की उसे याद रखा जाएगा. ‘संदर्भ मध्य प्रदेश’ और ‘संदर्भ छत्तीसगढ़’ जैसे ग्रंथों का प्रकाशन हो या ‘अक्षर पर्व’ जैसी सुरुचिपूर्ण साहित्यिक पत्रिका या फिर छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में ‘हाई-वे चैनल’ अखबार जैसा प्रयोग करना ललित जी लगातार नया करते रहे. सीमित संसाधनों वाले अखबार ‘देशबंधु’ का सम्मान उन्होंने बढ़ाया ही. हाल के दिनों में दिल्ली आने के बाद फेसबुक पर उनके पोस्ट खूब पढ़े जाते रहे हैं.
Source: News18Hindi
Last updated on: December 3, 2020, 12:23 PM IST

समझौता किए बगैर अपनी सृजनशीलता के लिए हमेशा याद किए जाएंगे ललित सुरजन.
ललित सुरजन हिंदी के कुछ उन संपादकों के तौर पर याद रखे जाएंगे, जिन्होंने पूरी तरह अखबार ही छापा. दरअसल आज के दौर में खालिस अखबार का व्यवसाय चला पाना एक बेहद कठिन काम है. हां कुछ लोग जरूर हैं जो अपने कमिटमेंट से खुद के अखबार चला रहे हैं. हालांकि ऐसे अखबार बस किसी तरह चल रहे हैं. उनमें दूसरे पत्रकारों के लिए रोजगार तकरीबन नामुमकिन होता है. ऐसे लोगों का समर्पण भी तारीफ करने योग्य है, लेकिन अखबार की तरह अखबार चलाना खर्चीला होता है और इसमें मुनाफा उतना नहीं होता है. ये एक बड़ी वजह है कि व्यवसाय और उद्योग चलाने वाले घराने ही अखबार चला पाते हैं. इससे उलट मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ और बाद में दिल्ली से छपने वाला देशबंधु उंगलियों पर गिने जा सकने वाले ऐसे अखबार के तौर पर स्थापित हो सका, जिसका संचालन पत्रकार के हाथों में था.
जनपक्षधर अखबार और सृजनशीलता भी
इससे भी कठिन होता है अपने मूल्यों के साथ अखबार को चला लेना. जनपक्षधरता के साथ, प्रगतिशील सोच और पूरी सृजनशीलता को उसमें शामिल कर पाना. ललित सुरजन ने ये सब किया. उनकी दृष्टि वैश्विक साहित्य पर भी थी और जड़ें अपनी माटी से जुड़ी हुईं. यही कारण था कि उनके अखबार में ब्रिटिश लेखक, और पत्रकार फ्रेडरिक फोरसाइट की रचनाओं के अनुवाद छपते थे तो गुजरात के अश्विनि भट्ट का ‘आसका मांडल’ भी अनुदित होकर छपता था. हरिशंकर परसाई तो देशबंधु के स्थाई कॉलमिस्ट थे ही.
ये भी पढ़ें : वरिष्ठ पत्रकार और देशबंधु के प्रधान संपादक ललित सुरजन का निधन देशबंधु की स्थापना ललित सुरजन के पिता मायाराम सुरजन ने की थी. मायाराम जी अपने दौर के स्थापित पत्रकार थे. उनकी मध्य प्रदेश की राजनीति में स्वाभाविक तौर पर इज्जत थी और उन्हें बाबू जी कहा जाता रहा. 1961 में ललित सुरजन ने देशबंधु से ही पत्रकारिता की शुरुआत की. ‘बाबू जी’ के अनुशासन में काम किया. पिता मायाराम जी के उस समय के तकरीबन सभी दिग्गज नेताओं से संपर्क थे, लेकिन उन्होंने कभी बेजा फायदा नहीं लिया और ललित जी को भी अपने बूते ही अपनी जगह खोजनी पड़ी. जिसमें वे पूरी तरह सफल हुए.
‘देशबंधु’ को बढ़ाया
पिता के बाद देशबंधु चलाने की जिम्मेदारी जब ललित जी के कंधों पर आई तो उन्होंने पूरी ईमानदारी से उसका निर्वाह किया. रायपुर के मुख्य संस्करण के अलावा मध्य प्रदेश के भोपाल, सतना, जबलपुर से भी देशबंधु के संस्करण निकल ही रहे थे. अखबार के सुचारू संचालन के लिए अलग-अलग संस्करणों की जिम्मेदारी अपने भाइयों को सौंप पर ललित जी ने बिलासपुर संस्करण निकाला. इसके बाद खासतौर से उन्होंने ‘हाई-वे चैनल’- नाम से सांध्यकालीन अखबार बिलासपुर से शुरू किया. बाद में ये भोपाल, बस्तर और रायपुर से छपने लगा.ललित जी की दूरदृष्टि
ललित सुरजन की दृष्टि का ही प्रमाण था कि उन्होंने संदर्भ मध्य प्रदेश और संदर्भ छत्तीसगढ़ जैसे दो ग्रंथ छपवाए. ये दोनों ग्रंथ राज्य के बारे में जानकारियों का उस दौर का विकीपीडिया हैं. इसमें से जब संदर्भ छत्तीसगढ़ छापा गया तो उस समय राज्य नहीं बना था. मध्य प्रदेश ही अस्तित्व में था, लेकिन छत्तीसगढ़ की स्थापना के लिए ये ग्रंथ आधार-पत्र साबित हुआ.
‘अक्षर पर्व’
इसके अलावा उन्होंने एक पत्रिका के रूप में अक्षर पर्व का प्रकाशन किया. साहित्य की इस पत्रिका के विशेषांक संग्रह करने योग्य होते रहे. ध्यान रखने वाली बात है कि इस पत्रिका का प्रकाशन ऐसे समय में हुआ जब बहुत सारी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो रही थी या बंद हो गई थीं.
नए लेखकों की तलाश
ब्रिटेन के थॉमसन फाउंडेशन की फेलोशिप पर पत्रकारिता के बारे में उन्होंने काम किया था. उनकी दृष्टि को इस बात से भी समझा जा सकता है कि देश में सबसे पहले उन्होंने ही अपने अखबार के कॉलमिस्टों का विज्ञापन शुरू किया. उस दौर में देशबंधु में इस तरह के विज्ञापन छपते थे कि अगले दिन अमुक का लेख पढ़िए और अखबार पढ़ा भी जाता था. वे नए लेखकों को तलाशते भी रहते थे. चाहे वे पत्रकार न भी हों तो उनसे लिखवाते थे. जिससे लोगों को कुछ नया पढ़ने को मिले. ऐसे लेखकों में मशहूर पुलिस अफसर जेएफ रिबेरो और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल भी शामिल थे. देशबंधु के लेखकों की सूची में विचारक और चिंतक सुरेंद्र किशोर से लेकर सत्येंद्र गुमाश्ता, प्रभाकर चौबे तक सभी थे.
संपादक तैयार किए
देशबंधु में अनेक पदों पर काम कर चुके पत्रकार विनोद वर्मा याद करते हैं कि ललित जी युवा लोगों पर भरोसा करते थे. विनोद वर्मा के मुताबिक – “प्रबंधन में कहा जाता है कि एक सफल प्रबंधक वो है जो अपने नीचे काम करने वालों को प्रबंधक के तौर पर तैयार कर दें. उसी तरह से ललित जी अपने नीचे काम करने वाले बहुत सारे युवा पत्रकारों को संपादक के तौर पर तैयार किया.” सही भी है, एक ऐसा वक्त था जब मध्य प्रदेश के बहुत से अखबारों में देशबंधु से निकले पत्रकार ही संपादक थे. यहीं नहीं बीबीसी में भी देशबंधु से निकले कई पत्रकारों ने काम किया जिनमें विनोद वर्मा भी हैं.
देशबंधु में संपादक रह चुके सुदीप ठाकुर याद करते हैं कि ललित जी का अपने रिपोर्टरों और पत्रकारों में बहुत अधिक भरोसा रहता था. वे कहते हैं – “1996 में एक बार मैंने उस समय के संपादक सुनील कुमार से आग्रह करके फोटोग्राफर विनय शर्मा के साथ काला हांडी की यात्रा की. सुनील जी ने जाने के लिए जरूरी न्यूनतम खर्च देकर भेजा. मैने वहां से रिपोर्ट भेजी तो रिपोर्ट देख कर ललित जी ने अपने एक रिश्तेदार से मेरे लिए और धन की व्यवस्था की, जिससे मैं वहां रह कर और रिपोर्टिंग कर सकूं.”
ग्रामीण पत्रकारिता में योगदान
अपनी साहित्यिक सोच के साथ ही ललित जी ने ग्रामीण और विकासोन्मुखी पत्रकारिता पर पैनी नजर रखी. यही कारण है कि देशबंधु को ग्रामीण पत्रकारिता के लिए देशबंधु को कई बार ग्रामीण पत्रकारिता का स्टेट्समैंन सम्मान मिला. मायाराम सुरजन ने रुढ़िवाद और सांप्रदायिकता के विरुद्ध जो जोत जलाई थी, ललित जी ने उसकी चमक और बढ़ाई. कैंसर से पीड़ित होने के बाद इलाज के लिए दिल्ली आने पर उन्होंने फेसबुक पर लिखना शुरू कर दिया था. उनके स्तंभ के पाठकों की संख्या अच्छी खासी थी. खासतौर से देशबंधु का चौथा खंभा बनने से इनकार- शीर्षक से उनके लेख पठनीय होते रहे.
रामचरित मानस में रुचि
इन सब के बाद भी उनका जुड़ाव प्राचीन हिंदी और संस्कृत साहित्य से कम नहीं था. कम लोगों को मालूम होगा कि तुलसी के रामचरित मानस और बाल्मिकी के रामायण की उन्हें गहरी जानकारी थी. मैंने भी देशबंधु के दिल्ली ब्यूरो में काम किया. लेकिन ललित जी से औपचारिक संबंध ही बने थे. इस वर्ष की शुरुआत में जब मैंने रायपुर की यात्रा के दौरान उनसे रामचरित मानस पर चर्चा की तो उनकी दृष्टि की प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सका. मानस की चौपाइयां - दोहे और उनकी सही व्याख्या उन्हें किसी अध्येता की तरह याद थे. उस बैठक की छाप हमेशा मन में बनी रहेगी. उस बैठक में उन्होंने कहा था – “राजकुमार, राम चरित मानस की इस सही व्याख्या को लेकर हमें लोगों के बीच जाना चाहिए.” लेकिन इस मुद्दे पर आगे कोई बात हो पाती और उसका कोई रूप तय होता पाता इससे पहले ही ललित जी एक ऐसी यात्रा पर चले गए जो अनंत की होती है.
जनपक्षधर अखबार और सृजनशीलता भी
इससे भी कठिन होता है अपने मूल्यों के साथ अखबार को चला लेना. जनपक्षधरता के साथ, प्रगतिशील सोच और पूरी सृजनशीलता को उसमें शामिल कर पाना. ललित सुरजन ने ये सब किया. उनकी दृष्टि वैश्विक साहित्य पर भी थी और जड़ें अपनी माटी से जुड़ी हुईं. यही कारण था कि उनके अखबार में ब्रिटिश लेखक, और पत्रकार फ्रेडरिक फोरसाइट की रचनाओं के अनुवाद छपते थे तो गुजरात के अश्विनि भट्ट का ‘आसका मांडल’ भी अनुदित होकर छपता था. हरिशंकर परसाई तो देशबंधु के स्थाई कॉलमिस्ट थे ही.
ये भी पढ़ें : वरिष्ठ पत्रकार और देशबंधु के प्रधान संपादक ललित सुरजन का निधन
‘देशबंधु’ को बढ़ाया
पिता के बाद देशबंधु चलाने की जिम्मेदारी जब ललित जी के कंधों पर आई तो उन्होंने पूरी ईमानदारी से उसका निर्वाह किया. रायपुर के मुख्य संस्करण के अलावा मध्य प्रदेश के भोपाल, सतना, जबलपुर से भी देशबंधु के संस्करण निकल ही रहे थे. अखबार के सुचारू संचालन के लिए अलग-अलग संस्करणों की जिम्मेदारी अपने भाइयों को सौंप पर ललित जी ने बिलासपुर संस्करण निकाला. इसके बाद खासतौर से उन्होंने ‘हाई-वे चैनल’- नाम से सांध्यकालीन अखबार बिलासपुर से शुरू किया. बाद में ये भोपाल, बस्तर और रायपुर से छपने लगा.ललित जी की दूरदृष्टि
ललित सुरजन की दृष्टि का ही प्रमाण था कि उन्होंने संदर्भ मध्य प्रदेश और संदर्भ छत्तीसगढ़ जैसे दो ग्रंथ छपवाए. ये दोनों ग्रंथ राज्य के बारे में जानकारियों का उस दौर का विकीपीडिया हैं. इसमें से जब संदर्भ छत्तीसगढ़ छापा गया तो उस समय राज्य नहीं बना था. मध्य प्रदेश ही अस्तित्व में था, लेकिन छत्तीसगढ़ की स्थापना के लिए ये ग्रंथ आधार-पत्र साबित हुआ.
‘अक्षर पर्व’
इसके अलावा उन्होंने एक पत्रिका के रूप में अक्षर पर्व का प्रकाशन किया. साहित्य की इस पत्रिका के विशेषांक संग्रह करने योग्य होते रहे. ध्यान रखने वाली बात है कि इस पत्रिका का प्रकाशन ऐसे समय में हुआ जब बहुत सारी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो रही थी या बंद हो गई थीं.
नए लेखकों की तलाश
ब्रिटेन के थॉमसन फाउंडेशन की फेलोशिप पर पत्रकारिता के बारे में उन्होंने काम किया था. उनकी दृष्टि को इस बात से भी समझा जा सकता है कि देश में सबसे पहले उन्होंने ही अपने अखबार के कॉलमिस्टों का विज्ञापन शुरू किया. उस दौर में देशबंधु में इस तरह के विज्ञापन छपते थे कि अगले दिन अमुक का लेख पढ़िए और अखबार पढ़ा भी जाता था. वे नए लेखकों को तलाशते भी रहते थे. चाहे वे पत्रकार न भी हों तो उनसे लिखवाते थे. जिससे लोगों को कुछ नया पढ़ने को मिले. ऐसे लेखकों में मशहूर पुलिस अफसर जेएफ रिबेरो और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल भी शामिल थे. देशबंधु के लेखकों की सूची में विचारक और चिंतक सुरेंद्र किशोर से लेकर सत्येंद्र गुमाश्ता, प्रभाकर चौबे तक सभी थे.
संपादक तैयार किए
देशबंधु में अनेक पदों पर काम कर चुके पत्रकार विनोद वर्मा याद करते हैं कि ललित जी युवा लोगों पर भरोसा करते थे. विनोद वर्मा के मुताबिक – “प्रबंधन में कहा जाता है कि एक सफल प्रबंधक वो है जो अपने नीचे काम करने वालों को प्रबंधक के तौर पर तैयार कर दें. उसी तरह से ललित जी अपने नीचे काम करने वाले बहुत सारे युवा पत्रकारों को संपादक के तौर पर तैयार किया.” सही भी है, एक ऐसा वक्त था जब मध्य प्रदेश के बहुत से अखबारों में देशबंधु से निकले पत्रकार ही संपादक थे. यहीं नहीं बीबीसी में भी देशबंधु से निकले कई पत्रकारों ने काम किया जिनमें विनोद वर्मा भी हैं.
देशबंधु में संपादक रह चुके सुदीप ठाकुर याद करते हैं कि ललित जी का अपने रिपोर्टरों और पत्रकारों में बहुत अधिक भरोसा रहता था. वे कहते हैं – “1996 में एक बार मैंने उस समय के संपादक सुनील कुमार से आग्रह करके फोटोग्राफर विनय शर्मा के साथ काला हांडी की यात्रा की. सुनील जी ने जाने के लिए जरूरी न्यूनतम खर्च देकर भेजा. मैने वहां से रिपोर्ट भेजी तो रिपोर्ट देख कर ललित जी ने अपने एक रिश्तेदार से मेरे लिए और धन की व्यवस्था की, जिससे मैं वहां रह कर और रिपोर्टिंग कर सकूं.”
ग्रामीण पत्रकारिता में योगदान
अपनी साहित्यिक सोच के साथ ही ललित जी ने ग्रामीण और विकासोन्मुखी पत्रकारिता पर पैनी नजर रखी. यही कारण है कि देशबंधु को ग्रामीण पत्रकारिता के लिए देशबंधु को कई बार ग्रामीण पत्रकारिता का स्टेट्समैंन सम्मान मिला. मायाराम सुरजन ने रुढ़िवाद और सांप्रदायिकता के विरुद्ध जो जोत जलाई थी, ललित जी ने उसकी चमक और बढ़ाई. कैंसर से पीड़ित होने के बाद इलाज के लिए दिल्ली आने पर उन्होंने फेसबुक पर लिखना शुरू कर दिया था. उनके स्तंभ के पाठकों की संख्या अच्छी खासी थी. खासतौर से देशबंधु का चौथा खंभा बनने से इनकार- शीर्षक से उनके लेख पठनीय होते रहे.
रामचरित मानस में रुचि
इन सब के बाद भी उनका जुड़ाव प्राचीन हिंदी और संस्कृत साहित्य से कम नहीं था. कम लोगों को मालूम होगा कि तुलसी के रामचरित मानस और बाल्मिकी के रामायण की उन्हें गहरी जानकारी थी. मैंने भी देशबंधु के दिल्ली ब्यूरो में काम किया. लेकिन ललित जी से औपचारिक संबंध ही बने थे. इस वर्ष की शुरुआत में जब मैंने रायपुर की यात्रा के दौरान उनसे रामचरित मानस पर चर्चा की तो उनकी दृष्टि की प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सका. मानस की चौपाइयां - दोहे और उनकी सही व्याख्या उन्हें किसी अध्येता की तरह याद थे. उस बैठक की छाप हमेशा मन में बनी रहेगी. उस बैठक में उन्होंने कहा था – “राजकुमार, राम चरित मानस की इस सही व्याख्या को लेकर हमें लोगों के बीच जाना चाहिए.” लेकिन इस मुद्दे पर आगे कोई बात हो पाती और उसका कोई रूप तय होता पाता इससे पहले ही ललित जी एक ऐसी यात्रा पर चले गए जो अनंत की होती है.
First published: December 3, 2020, 12:23 PM IST