भोपाल से होशंगाबाद आते हुए विंध्याचल पर्वतमाला के खूबसूरत पहाड़ इतने खूबसूरत रहे हैं कि साठ के दशक में ट्रेन से गुजरते हुए फिल्मकार बीआर चोपड़ा की नजर इस लोकेशन पर पड़ी और उसी वक्त तय कर लिया कि उनका अगला प्रोजेक्ट यहीं होगा. उन्हें खुद नहीं पता था कि वह अगला प्रोजेक्ट भारतीय सिनेमा जगत में क्या धूम मचाने वाला है! यह फिल्म थी ‘नया दौर’ जिसने दिलीप कुमार को रुपहले परदे का सरताज बना दिया. पर यह बात आज हम क्यों कर रहे हैं इसकी कहानी भी बहुत दिलचस्प है.
पहले बात करते हैं फिल्म ‘नया दौर’ की. 1955-56 में बुधनी में इसकी शूटिंग हुई थी, तब आवागमन के साधन अधिक नहीं होने के बावजूद लोग हजारों की संख्या में इस शूटिंग को देखने पहुंचते थे.
यह फिल्म एक प्रेम त्रिकोण की कहानी तो है ही, लेकिन इसका एक सिरा मशीन और मनुष्य के द्वंद्व को सामने लाता है, जिसका अंत मोटर और तांगे की एक रेस से होता है. रेस जीतकर शंकर (दिलीप कुमार) अपनी तांगा चलाने वाली बिरादरी की रोजी-रोटी बचा लेता है. शंकर की जीत में एक पुल की भी अहम भूमिका है, जिसे उसका दोस्त कृष्णा किसी गलतफहमी की वजह से तोड़ने की कोशिश करता है, वह चाहता है शंकर न जीते, लेकिन सच्चाई सामने आ जाती है, उसके बाद कृष्णा उसी पुल को अपनी जान की बाजी लगाकर टूटने नहीं देता, दोस्ती भी बच जाती है और लोगों का रोजगार भी. यह बहुत ज्यादा मशीनीकरण और औदयोगीकरण से मानवता को बचाने का संदेश देने वाली मार्मिक फिल्म है. छह दशक पहले रील लाइफ में एक टूटते पुल ने खुद को धराशायी होने से पहले कस्बे के बीसियों परिवार की आजीविका बचा ली वहीं रियल लाइफ में अब इसी कस्बे में एक पुल बनने से सैकड़ों परिवारों की आजीविका एक बार फिर खतरे में पड़ गई है.
भोपाल-नागपुर राजमार्ग पर होशंगाबाद शहर से ठीक पहले पिछले तीन-चार दशक से बुधनी की सबसे खास पहचान थी यहां बने लकड़ी के खिलौने. ख़ास तरह के खिलौने बनाने का यह काम यहीं कैसे शुरू हुआ होगा इसकी दो वजहें रहीं, पहला तो बुधनी के जंगलों में पाई जाने वाली दुधी की लकड़ी, जो इस तरह की खिलौना बनाने के एकदम मुफीद थी. खरात मशीन पर गोल आकार से बहुत चिकने और सुंदर खिलौने बनाए जाने लगे फिर उन पर लाख के चटकदार रंगों से रंगा भी जाता जिससे यह बहुत सुंदर बन जाते, बच्चों के लिए यह बहुत अच्छे होते क्योंकि इनमें चोट लगने की आशंका नहीं होती.
खिलौना कारीगर हेमराज शर्मा बताते हैं कि उन्होंने कक्षा सातवीं पास करने के बाद सन 1967 से ही यह काम शुरू कर दिया था, उन्होंने यह काम अपने पिताजी से सीखा था. उनके घर तकरीबन तीन पीढ़ियों से यह काम चल रहा है. हेमराज बताते हैं कि “पहले हम केवल लकड़ी के भौंरा (लट्टू) ही बनाते थे. दीवार में लगाई जाने वाली लकड़ी की खूंटियां भी बनाई जाती थीं. पहले जब बिजली नहीं थी तो हाथ से चलने वाली खरात मशीन और औजारों से कारीगरी की जाती थी. सड़क के किनारे लगभग ढाई सौ दुकानों में इन्हें बेचा जाता. उत्पादन भी यहीं मार्केटिंग भी यहीं.”
दरअसल, भोपाल से होशंगाबाद शहर तक की रेललाइन भोपाल की रानी गौहर बेगम ने तैयार करवाई थी. बुधनी में एक रेल फाटक हुआ करता था, जिसके किनारे यह दुकानें चला करतीं. बीते तीन दशकों में सड़क किनारे रेलवे ब्रिज के दोनों ओर इस खिलौना बाजार ने बुधनी को ‘खिलौना उद्योग’ के रूप में पहचान थी. रेलगाड़ी गुजरती तो फाटक बंद होता और इस बीच इनकी बिक्री हो जाया करती.
हालांकि इस बीच वाहनों की लंबी कतारें भी लग जाती थीं इससे बचने के लिए कुछ साल पहले यहां रेलवे ब्रिज के उपर एक पुल बनाने का प्रस्ताव लाया गया, लंबे-लंबे जाम से बचने के लिए यह एक जरुरी पहल थी. रेलवे ओवर ब्रिज बन भी गया. 18 करोड़ रुपए की लागत से बनाए गए 800 मीटर लंबे ब्रिज का 13 जुलाई 2014 को लोकार्पण हुआ. सैकड़ों लोगों को रेलवे गेट खुलने के इंतजार से मुक्ति मिली.
लेकिन बुधनी के खिलौना बाजार के लिए यह पुल भस्मासुर साबित हुआ. उस वक्त यह ध्यान नहीं दिया गया कि इस पुल के बनने का असर यहां की खिलौना दुकानों पर क्या पड़ेगा और उन्हें यदि अन्यत्र स्थापित कर एक खिलौना बाजार की तरह नहीं विकसित किया गया तो धीरे—धीरे यह दम तोड़ देगा. नतीजा यह हुआ कि पिछले सात.आठ सालों में कुटीर उद्योग धीरे.धीरे दम तोड़ता गया. कुछ दुकानों को अन्य दूसरी दुकानों के आसपास जगह मिली, लेकिन एक साथ चटक रंगों के साथ जैसी रंगत के साथ यह बाजार मुस्कुराता था, वैसा कुछ फिर न हो सका. धीरे—धीरे इस बाजार की रंगत फीकी पड़ गई.
बुधनी की सड़क से गुजरेंगे तो अब यहां सड़क किनारे मध्य भारत के उस सबसे ख़ास तरह के खिलौने की महज तीन.चार की दुकान ही नजर आएंगी. इस उद्योग से जुड़े करण शर्मा बताते हैं कि ‘पहले हर दिन ढाई से लेकर तीन सौ गाड़ियां बिक जाया करती थीं, लेकिन अब चार—पांच भी बिक जाए तो भाग्य की बात है. हम तो भरपूर मेहनत करके खूब खिलौने बना सकते हैं, लेकिन अब असली संकट तो है मार्केट का. हम बना भी लें, लेकिन बिकेंगे, नहीं तो कैसे कुछ चल पाएगा ?’
इस स्थिति का असर यह हुआ कि खिलौना बनाने वाले कारीगर दूसरे धंधों में चले गए, कई परिवारों ने यह काम बंद कर दिया, उनके घरों में खरात मशीनों पर अब जंग सी आ गयी है. हालाँकि इन खिलौनों की डिमांड बनी हुई है, ऑनलाइन मार्केटिंग साइट पर यह खिलौने बुधनी टॉयज के नाम से सर्च किए जा सकते हैं. हैरानी की बात है कि जो बेबी वाकर तीन सौ से लेकर चार सौ रुपए में बुधनी में बिकता है, उस गाड़ी की कीमत ई कॉमर्स साइट पर पांच. छह गुना ज्यादा है, अन्य खिलौना का भी यही हाल है, अब यह अंतर कैसे है और इसमें भी कौन फायदा उठा रहा है, यह अलग खोजबीन का विषय है! अलबत्ता कई परिवार इसे बनाकर दूसरे शहरों के कुछ लोगों को थोक में दे रहे हैं, पर जो असल कारीगर हैं, वह इस बात से अनजान हैं कि उनकी गाड़ियों की कीमत है!
पिछले साल सरकार का इस ओर ध्यान गया और कुछ कोशिशें शुरू हुईं. एक साल पहले यहां पर एक खिलौना बाजार भी लगाया गया, लेकिन एक बाजार लगा देने भर से इसे आक्सीजन नहीं मिल सकती है. सरकार चाहती है कि यह क्षेत्र एक खिलौना क्लस्टर के रूप में विकसित हो, और उसके लिए सबसे जरूरी बात है कि उत्पादों की बेहतरीन मार्केटिंग हो, जाहिर है खिलौना कारीगर खुद ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हैं. सरकार को अब एक पुल बनाने की जरूरत है जो उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच की मजबूत कड़ी बने और इस अनूठे खिलौना उदयोग को बचाने में मदद करे.
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.
और भी पढ़ें