संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ भीमराव अंबेडकर ने कहा था, 26 जनवरी को हम अंतविर्रोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी पर सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में हमें समानता प्राप्त नहीं होगी. राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे. हमारे सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में, हम हमारे सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे के कारण एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे.’
बाबा साहेब की कही गई बातों के प्रकाश में मध्यप्रदेश के खंडवा जिले की घटना कितनी सही साबित होती है. महाशिवरात्रि पर यह खबर आई कि वहां पर मंदिर में दलितों को प्रवेश करने से रोक दिया गया. पहले गांव के कोटवार को रोका गया, फिर कुछ लड़कियों को भगवान भोलेनाथ का जलाभिषेक करने से रोक दिया गया. आहत लड़कियों ने शिकायत की, पुलिस का दरवाजा खटखटाया गया, पुलिस के साए में लड़कियों से जलार्पण करवाया गया. कैलाश पर्वत पर खुले में विराजमान भगवान भोलेनाथ को थी या नहीं लेकिन समाज के एक तबके को जरूर आपत्ति थी!
शिव ने स्वयं तक आने के लिए कोई दरवाजा ही नहीं रखा पर समाज ने जरूर बना दिया. यह अन्याय आज का नहीं है. समाज का एक बड़ा तबका न्याय पाने के लिए जाने किन—किन मोर्चों पर अपनी लड़ाई लड़ने को आज भी अभिशप्त है. उसकी लड़ाई है सामाजिक, न्याय की, आर्थिक न्याय की, राजनीतिक न्याय की. बीस फरवरी का दिन जब पुरी दुनिया में सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाया जा रहा है तब हमें सोचने की जरूरत है कि हम कहां से चले थे और आज कहां आकर खड़े हैं.
संविधान की उददेशिका में न्याय शब्द को प्रमुखता से लाया गया है. कई सदियों के अन्याय को झेलते समाज के लिए यह शब्द भी उसी भावना की तरह था जैसे कि आजादी. असल आजादी तभी आनी थी जब भारत के हर व्यक्ति को गरिमापूर्ण सम्मान मिले, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म से ही क्यों न आता हो. सामाजिक न्याय का अर्थ भी यही है. सामाजिक न्याय से आशय है कि यह सभी नागरिकों को समान समझा जाएगा, उन्हें उनके जन्म, मूलवंश, जाति, धर्म स्त्री—पुरुष आदि के कारण कोई भेद नहीं किया जाएगा. अनुच्छेद 15 में सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश के मामले किसी भी तरह की बंदिशों पर अंकुश लगाया गया है. अनुच्छेद 38 में राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह ऐसी सामाजिक व्यवस्था की जिसमें सामाजिक, अर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करे.
लेकिन सवाल यह है कि कब तक संविधान की पंक्तियों और अनुच्छेदों को बता—बताकर अन्याय झेल रहे लोगों को कानून के डंडे की नोक पर न्याय दिलवाया जाता रहेगा? यह समाज एक इंसानियत का संविधान कब स्वीकार करेगा? न्याय केवल वही नहीं है जो न्यायालयों में दिया जाएगा. न्याय देने में भारत के हर इंसान की भूमिका है और वह इस बात पर निर्भर है कि हमारा एक दूसरे के प्रति नजरिया और व्यवहार क्या है? दिक्कत यह है कि आज समाज दोहरे मानकों पर जीता है और वक्त परिस्थिति और सहूलियत के हिसाब से उसके सिद्धांत और मान्यताएं भी बदल जाती हैं. और उसकी बानगी यही है कि एक गरीब दलित और एक अमीर दलित के प्रति समाज का बिलकुल भिन्न व्यवहार होता है.
अब जबकि हम देख रहे हैं कि धर्म हमारे ओर पहले से कहीं ज्यादा दिखाई दे रहा है. लाखों लोग कतार में हैं, कथावाचकों और प्रवचनकारों के पंडाल में लाखों लोग दिखाई दे रहे हैं, यह तस्वीरें इतिहास में शायद ही कभी रही हों, पर क्या ऐसा होते जाने से लोग मनुष्यता के मूल्यों में यकीन करेंगे, क्या यह विरोधाभास नहीं है कि एक तरफ हम एक होने की बात करते हैं और दूसरी ओर हमारे समाज के अंदर ही इतने टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं कि वह साफ दिखाई पड़ते हैं.
बात केवल जातीय आधारों पर ही नहीं है. किसी भी वर्ग की स्त्री बराबरी के अधिकारों की बाट जोह रही है, लेकिन पितृसत्तात्मक समाज और सोच उस स्त्री के सामाजिक न्याय को धता बताकर आज भी उसकी राह में तमाम किस्म के संकटों को बनाए रखा है. महिला सरपंच बनी पर राज उसका पति कर रहा है, महिला कमा कर भी लाने लगी पर घर के निर्णयों में उसकी भागीदारी गायब है, वह सुबह सबसे पहले जागने से लेकर रात को सबसे बाद सोने तक सबसे ज्यादा काम कर रही है, फिर भी कहने को वह कुछ नहीं करती, उसकी सेहत के मानक सबसे खराब हैं, क्योंकि उसका पोषण भी सबसे बाद की प्राथमिकता का है. समाज के बच्चे, तो और भी उपेक्षित हैं. उनका न्याय बड़ों के निर्णयों पर निर्भर है. उनकी भागीदारी गायब है, और मुद्दे तो खैर वैसे के वैसे ही हैं.
यह समाज तभी बेहतर बनेगा जबकि हम सभी के लिए सामाजिक, आर्थिक न्याय सुनिश्चित कर पाएं. भारत सरीखे समाज में जातीय और आर्थिक असमानताओं की खाई बहुत गहरी है. इसलिए यहां पर हमें हर स्तर पर दोगुने प्रयास करने की जरूरत है.
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.
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