Modi@8: साढ़े तीन दशक के अंतर के बाद पहली बार मोदी सरकार ने बनाई देश की शिक्षा नीति, अब होगी निज भाषा की उन्नति
Education policy: स्थानीय भाषा की क्षमता को रोजगार और प्रचार का डर दिखाकर विद्वान हमेशा से नकारते रहे हैं. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि प्रशासन और बोलचाल की भाषा हमेशा से अलग रही है. इसका बड़ा नुकसान यह है कि जैसे ही कोई कार्य शुरू होता है, भाषा एक दीवार बन जाती है या कह सकते हैं कि वह ‘वर्ग और आर्थिक आधार पर समाज को बांट देती’ है.

ताज्जुब यह है कि सत्रह बोलियों की सहधर्मिणी हिंदी का शब्दकोष आज ‘हिंगलिश’ सहारे समृद्ध हो रहा. (फाइल फोटो- ट्विटर)
नई दिल्ली. लगभग 36 वर्ष बाद शिक्षा के लिए फिर से नीति बनी है. नाम दिया गया है- ‘नई शिक्षा नीति-2020’. इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है भाषाई शिक्षा को बढ़ावा देना. बहुभाषा भाषी भारत देश की आत्मा उसकी स्थानीय बोलियों/भाषाओं में बसती है. लेकिन अंग्रेजी पद्धति पर चलकर आलोचना शास्त्र गढ़ने वाले और पाश्चात्य चश्मों से हिन्दुस्तानी जीवन को देखने वाले विद्वान उन बोलियों/भाषाओं को हमेशा दोयम दर्जे का सम्मान देते रहे हैं. ऐसे में नई शिक्षा नीति में भाषा को महत्व देना बहुत सकारात्मक भाव है. इसकी जितनी भी सराहना की जाय वह कम है.
इस नीति को हिंदी के नजरिये से देखना जरुरी है. हिंदी की जो सत्रह बोलियां हैं, उनकी उपयोगिता से ही हिंदी का निर्माण हुआ है. लेकिन हिंदी के पैरोकार उन बोलियों को वक़्त के सहारे छोड़ दिए और हिंदी को लेकर आगे बढ़ गए. ताज्जुब यह है कि सत्रह बोलियों की सहधर्मिणी हिंदी का शब्दकोष आज ‘हिंगलिश’ सहारे समृद्ध हो रहा. इससे भी अधिक ताज्जुब की बात यह है कि बड़े-बड़े नामी लेखक और आलोचक इन्हीं बोलियों वाले क्षेत्र में पैदा हुए और इनके शब्दों को लिखकर शोहरत भी पाए. लेकिन बोलियों से वे लोग अपनी दूरी बनाये रखे. बल्कि उनके साथ हमेशा भदेस जैसा व्यवहार करते रहे. अब उम्मीद यह है कि सब ठीक रहा तो नई शिक्षा नीति के साथ बोलियों के दिन बहुर सकते हैं.
आयातित और बाज़ार की बोली से मुक्ति
आज जिस छद्म राष्ट्रवाद को लेकर बहस हो रही है वह अपनी भाषा-बोली वाला है ही नहीं. वह तो आयातित है, जिसमें भारी-भरकम शब्द हैं और उनका गंभीर विवेचन है, जिसका असली भारतीय जीवन से ताल्लुक ही नहीं है. प्रेमचंद के गोदान उपन्यास के होरी का चरित्र बहुत प्रभावशाली है, लेकिन किसान नहीं जनता कि उसके दर्द को कोई इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत कर रह है. क्योंकि उसका दार्शनिक आदर्शवाद, यथार्थवाद और ऐसी अन्य शब्दावलियों से कोई ताल्लुक ही नहीं है. उसे तो यह बात तब समझ आती जब कहा जाता कि सही-गलत, और गांव-शहर के अंतर को होरी के सहारे देखा जा सकता है. आलोचक भी ऐसा तभी कह पाते जब उनको अपनी भाषा-बोली में समझने-बताने का मोह होता. यहां तो ‘बाज़ार को कोसने वाले उसी की भाषा को विद्वान की भाषा’ मानते हैं. अब ऐसे में यह उनसे उम्मीद नहीं कर सकते कि अपनी विद्वान और भारीभरकम शब्दावली पर बोली की छाया पड़ने दें. इतना जरूर समझ सकते हैं कि उधार के सहारे जीने वाले चाटुकार तो हो सकते हैं लेकिन श्रम करने की जहमत नहीं उठा सकते. निर्माण करने की नहीं सोच सकते.
रोजगार के नाम पर अब अपनी की अवहेलना नहीं
स्थानीय भाषा की क्षमता को रोजगार और प्रचार का डर दिखाकर विद्वान हमेशा से नकारते रहे हैं. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि प्रशासन और बोलचाल की भाषा हमेशा से अलग रही है. इसका बड़ा नुकसान यह है कि जैसे ही कोई कार्य शुरू होता है, भाषा एक दीवार बन जाती है या कह सकते हैं कि वह ‘वर्ग और आर्थिक आधार पर समाज को बांट देती’ है. उदहारण के लिए न्यायालय में न्याय मिलता है. लेकिन जिसे न्याय मिलता है उसे पता नहीं रहता कि उसके मामले में बहस क्या हुई. उसके मसले पर जज सहमत हैं या असहमत. उसे जज साहब से बात करनी है, वह उनको बहुत कुछ बताना चाहता/चाहती है लेकिन वह तब बताए न जब उसकी बारी का उसे पता चले. वह कुछ समझे और अपनी सफाई में कुछ कहे, उससे पहले ही कोर्ट बर्खास्त हो जाती है, ‘तारीख पर तारीख’ और फिर अचानक एक दिन फैसला आ जाता है.
उसे मलाल रह जाता है कि काश मुझे भी कुछ कहने का अवसर मिल जाता. उस व्यक्ति को वकील जो कहता है वही अंतिम सत्य के रूप में मान लेता है. मानना पड़ता है. आप जानते हैं, अंग्रेजी जमाने में मुजरिम कहता रहता था कि महोदय मैंने कुछ नहीं किया और जज सजा सुनाकर चल देता था. यह भाषा की उपेक्षा का परिणाम है कि हम किसी का मौलिक अधिकार भी छीन लेते हैं. भाषा का महत्व सिर्फ इतना नहीं है कि वह पढ़ी और पढ़ाई जाय. उसका जीवन के हर पक्ष पर प्रभाव रहता है. हाट बाजार से लेकर रोटी पानी और न्याय दिलाने तक उसका दबदबा आप देख और समझ सकते हैं. भाषा सांस्कृतिक संरक्षण से अधिक सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए जरूरी है. दुनिया इस दबाव को झेल रही है. बाज़ार का खेल भी भाषा ही खेलती है. क्योंकि किसी उत्पाद पर स्थानीय भाषा में लिखी चेतावनी से वितरक को दिक्कत हो सकती है, इसलिए अधिकतर चेतावनियां उस भाषा में जारी होती हैं, जिसे उपभोक्ता समझ ही नहीं पाता. यहां जरूरत है कि स्थानीय भाषा में चेतावनी जारी करने के लिए बाध्य किया जाय. दुनिया के बहुत से देश जहां
उपभोक्ता कानून सख्त हैं, वहां ऐसा किया जाता है
भाषाई वर्चस्व की राजनीति में भारत के सामान्य नागरिक फंसते रहे हैं. यह बहुत हास्यास्पद बात है कि उत्पाद निर्माता जनता को परेशान करें और सरकारें उनकी भलाई के लिए कुछ ना सोचें. इसके पीछे भी बड़ी राजनीति है. शिक्षित तबका अपना वर्चस्व कायम रखना चाहता है. ऐसा तभी संभव है कि एक ऐसी भाषा के साथ वह संवाद करे जो सामने वाले को समझ ही नहीं आए या फिर उतना ही समझ आए जितना वह चाहे. असली खेल यहीं से शुरू होता है. विक्रेता और अधिकारी मिल जाते हैं और उपभोक्ता संकट में पड़ जाता है.
उदहारण के लिए जिस शराब को पीकर लोग मरते हैं उस पर भी चेतावनी और तारीख अंग्रेज़ी में होती है. जबकि मरने वाले को अंग्रेजी भाषा आती ही नहीं. रोचक बात तो यह है कि दूर-दराज के क्षेत्रों में विक्रेता भी अंग्रेजी नहीं जानता और सामान धड़ल्ले से बेंचता है. सवाल उठता है कि ऐसे में चेतावनी कौन पढ़ेगा कैसे और सावधानी के बारे में कैसे सोचेगा?
सम्मान की उम्मीद
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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रामाशंकर कुशवाहासाहित्यकार
दिल्ली विश्वविद्यालय दयाल सिंह कॉलेज में हिंदी के प्रध्यापक हैं और लोक साहित्य पर उल्लेखनीय काम कर चुके हैं.