OPINION: किसान सुप्रीम कोर्ट पर नहीं तो फिर किस पर यकीन करेंगे
Farm Laws: ऐसी सूरत में सबसे बड़ा प्रश्न तो यही खड़ा हो जाता है कि किसान अगर सुप्रीम कोर्ट पर ही अविश्वास करेंगे, तो फिर क्या वे देश की संवैधानिक व्यवस्था पर ही अविश्वास नहीं कर रहे हैं. विधायी मामलों में भारतीय संविधान संसद को सर्वोच्च दर्जा देता है.
Source: News18Hindi
Last updated on: January 12, 2021, 6:55 PM IST

किसानों को सोचना चाहिए कि वे लोकतंत्र को कब तक बंधक बनाए रख सकते हैं? (File Photo)
देश की सबसे बड़ी अदालत ने तीनों कृषि सुधार क़ानूनों पर अमल स्थगित कर ऐतिहासिक निर्णय सुनाया तो किसानों के वकील ने इसे अपनी जीत करार देने में देरी नहीं लगाई. सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन कर कृषि सुधार क़ानूनों पर किसानों के ऐतराज़ और केंद्र सरकार की दलीलों का अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट देने का आदेश जारी किया है. कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि विशेषज्ञों की समिति का गठन उसने अपनी मदद के लिए किया है. अर्थ यह हुआ कि समिति अपने सुझाव कोर्ट को सौंपेगी और इसके बाद सुप्रीम कोर्ट तीनों कृषि क़ानूनों पर अपना अंतिम निर्णय सुनाएगा.
एक तरह से देखा जाए, तो कोर्ट का निर्णय किसानों के ही पक्ष में कहा जाएगा, क्योंकि वे इस मांग पर ही तो अड़े हैं कि कृषि सुधार क़ानूनों को अमल में नहीं लाया जाए. अब जिन राज्यों ने केंद्रीय क़ानूनों को लागू करने की मंशा ज़ाहिर की है, वे भी इन्हें नहीं अपना पाएंगे. लेकिन यह फ़ैसला दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों के नेतृत्व को रास नहीं आ रहा है. उनकी पहली दलील तो यही है कि क़ानून वापस लेने का संवैधानिक अधिकार सरकार के ही पास है, लिहाज़ा वे समिति के सामने अपनी बात नहीं रखना चाहेंगे. जो भी बात करेंगे, सरकार से ही करेंगे. किसान नेताओं की दूसरी दलील यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने जो विशेषज्ञ समिति बनाई है, उसके तीन सदस्य कृषि सुधार क़ानूनों के पक्षधर हैं, लिहाज़ा वे जो भी सिफ़ारिशें सुप्रीम कोर्ट को सौंपेगे, उनमें क़ानून रद्द करने की मंशा अंतिम तौर पर नहीं झलकेगी.
ऐसी सूरत में सबसे बड़ा प्रश्न तो यही खड़ा हो जाता है कि किसान अगर सुप्रीम कोर्ट पर ही अविश्वास करेंगे, तो फिर क्या वे देश की संवैधानिक व्यवस्था पर ही अविश्वास नहीं कर रहे हैं. विधायी मामलों में भारतीय संविधान संसद को सर्वोच्च दर्जा देता है. साथ ही यह व्यवस्था भी की गई है कि अगर कोई सरकार बहुमत के बल पर ऐसे क़ानून बनाती है, जो संविधान की मूल भावना को कहीं न कहीं आहत करते हैं, तो उनकी समीक्षा सुप्रीम कोर्ट कर सकता है. उसे अगर लगता है कि कोई क़ानून संविधान सम्मत नहीं है, तो उसे रद्द करने या फिर उसमें उचित संशोधन का आदेश सुप्रीम कोर्ट दे सकता है. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को किसी विषय पर क़ानून बनाने का सुझाव भी दे सकता है. मुस्लिम समाज में एक साथ तीन तलाक़ बोलकर पत्नियों को तलाक़ देने की कुप्रथा के विरोध में क़ानून सुप्रीम कोर्ट के ही सुझाव पर बनाया गया था.
संवैधानिक दायरे में रहकर निकाला जा सकता है समस्या का समाधान किसी भी समस्या का समाधान संवैधानिक दायरे में रहकर निकाला जा सकता है. ऐसे में अगर किसानों को केंद्र सरकार की मंशा पर संदेह है, तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था का सम्मान तो करना ही पड़ेगा. सबसे बड़ी बात यह भी है कि क्या किसान महीनों तक दिल्ली को घेरे रह सकते हैं? ऐसा करके वे पहले से संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन पहले से ही करते आ रहे हैं. लोकतंत्र में असहमति या किसी विचार का विरोध हर भारतीय नागरिक का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन अपने इस अधिकार की अनुपालना में हम अगर किसी दूसरे नागरिक के संवैधानिक अधिकारों का हनन किसी भी तरह करते हैं, तो यह असंवैधानिक कृत्य है. बहुत बार पुलिस प्रशासन सब्र से काम लेता है, क्योंकि सख़्ती करने से भीड़ भड़क सकती है और हिंसक माहौल बन सकता है. असामाजिक तत्व भी भीड़ को उकसाने का काम करते रहते हैं, ताकि वे अपने हित साध सकें. किसानों को सोचना चाहिए कि वे लोकतंत्र को कब तक बंधक बनाए रख सकते हैं?
एक और बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर संदेह जताकर किसान नेता न्यायालय की अवमानना कर रहे हैं? फ़िलहाल यह मुख्य मसला नहीं है, लेकिन आप कोर्ट की व्यवस्था को नहीं मानेंगे, उस पर अविश्वास करेंगे, तो फिर कोर्ट कालांतर में सुओ मोटो अवमानना की कार्रवाई शुरू कर ही सकता है. जैसा कि कुछ किसान संगठनों को लग रहा है कि कृषि सुधार क़ानूनों में झोल है, तो विशेषज्ञ समिति के सामने जाकर उन्हें अपनी बात रखनी चाहिए. फिर विशेषज्ञ समिति के सुझाव भी तो अंतिम समाधान नहीं होंगे. सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक दायरे में उनकी समीक्षा करेगा ही.
एक और विचारणीय प्रश्न यह है कि आंदोलन कर रहे कुछ किसान संगठनों को ऐसा क्यों लगता है कि सिर्फ़ और सिर्फ़ एमएसपी को क़ानूनी दायरे में लाने से देश भर के किसानों की सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा? ऐसा होता, तो 1967 में एक्ज़ीक्यूटिव ऑर्डर से एमएसपी व्यवस्था जारी होने के बाद से अभी तक किसानों की हालत में उल्लेखनीय सुधार हो चुका होता, क्योंकि यह बीच में कभी बंद नहीं की गई. केंद्र सरकार अब भी बहुत बार कह चुकी है कि एमएसपी ख़त्म करने का उसका कोई इरादा नहीं है. केंद्र और राज्य सरकारें किसानों की कुछ चुनी हुई फ़सलें एमएसपी पर ख़रीदती हैं. अब किसान चाहते हैं कि निजी क्षेत्र के लिए भी यह बाध्यता की जाए कि वह किसानों की उपज एमएसपी से कम पर अगर ख़रीदता है, तो ऐसा करना दंडनीय अपराध होगा. सरकार ऐसा क़ानूनी प्रावधान कर भी सकती है, लेकिन इसके लिए यह ज़रूरी क्यों है कि किसानों को खुले बाज़ार में वैकल्पिक मूल्य निर्धारण करने का हक़ देना वाला क़ानून वापस लिया जाए?पंजाब और हरियाणा के जट या जाट किसानों के बारे में अक्सर मज़ाक में कहा जाता है कि उनका रवैया यह रहता है कि पंचों की राय सिर-माथे, लेकिन खटोला तो यहीं बिछेगा. अब सुप्रीम कोर्ट पर संदेह जताकर आंदोलनकारी किसानों ने यही साबित किया है कि वे खटोला वहीं पर और इसी अंदाज़ में बिछाना चाहते हैं, जैसा कि वे चाहते हैं. लेकिन लोकतंत्र में तो खटोला पंचों की राय के अनुसार ही बिछना तय है. किसानों को चाहिए कि वे सुप्रीम कोर्ट के कमेटी बनाने के निर्णय का सम्मान करें और कमेटी की सिफ़ारिशों की प्रतीक्षा करें. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निपटारे तक उग्र रवैया छोड़ कर घरों को लौट जाएं. किसी दूसरे नागरिक की तरह किसान भी भारत के सम्मानित नागरिक हैं. उन्हें अब अराजक बर्ताव छोड़ देना चाहिए और देश के संविधान पर संदेह व्यक्त नहीं करना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं)
एक तरह से देखा जाए, तो कोर्ट का निर्णय किसानों के ही पक्ष में कहा जाएगा, क्योंकि वे इस मांग पर ही तो अड़े हैं कि कृषि सुधार क़ानूनों को अमल में नहीं लाया जाए. अब जिन राज्यों ने केंद्रीय क़ानूनों को लागू करने की मंशा ज़ाहिर की है, वे भी इन्हें नहीं अपना पाएंगे. लेकिन यह फ़ैसला दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों के नेतृत्व को रास नहीं आ रहा है. उनकी पहली दलील तो यही है कि क़ानून वापस लेने का संवैधानिक अधिकार सरकार के ही पास है, लिहाज़ा वे समिति के सामने अपनी बात नहीं रखना चाहेंगे. जो भी बात करेंगे, सरकार से ही करेंगे. किसान नेताओं की दूसरी दलील यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने जो विशेषज्ञ समिति बनाई है, उसके तीन सदस्य कृषि सुधार क़ानूनों के पक्षधर हैं, लिहाज़ा वे जो भी सिफ़ारिशें सुप्रीम कोर्ट को सौंपेगे, उनमें क़ानून रद्द करने की मंशा अंतिम तौर पर नहीं झलकेगी.
ऐसी सूरत में सबसे बड़ा प्रश्न तो यही खड़ा हो जाता है कि किसान अगर सुप्रीम कोर्ट पर ही अविश्वास करेंगे, तो फिर क्या वे देश की संवैधानिक व्यवस्था पर ही अविश्वास नहीं कर रहे हैं. विधायी मामलों में भारतीय संविधान संसद को सर्वोच्च दर्जा देता है. साथ ही यह व्यवस्था भी की गई है कि अगर कोई सरकार बहुमत के बल पर ऐसे क़ानून बनाती है, जो संविधान की मूल भावना को कहीं न कहीं आहत करते हैं, तो उनकी समीक्षा सुप्रीम कोर्ट कर सकता है. उसे अगर लगता है कि कोई क़ानून संविधान सम्मत नहीं है, तो उसे रद्द करने या फिर उसमें उचित संशोधन का आदेश सुप्रीम कोर्ट दे सकता है. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को किसी विषय पर क़ानून बनाने का सुझाव भी दे सकता है. मुस्लिम समाज में एक साथ तीन तलाक़ बोलकर पत्नियों को तलाक़ देने की कुप्रथा के विरोध में क़ानून सुप्रीम कोर्ट के ही सुझाव पर बनाया गया था.
संवैधानिक दायरे में रहकर निकाला जा सकता है समस्या का समाधान
एक और बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर संदेह जताकर किसान नेता न्यायालय की अवमानना कर रहे हैं? फ़िलहाल यह मुख्य मसला नहीं है, लेकिन आप कोर्ट की व्यवस्था को नहीं मानेंगे, उस पर अविश्वास करेंगे, तो फिर कोर्ट कालांतर में सुओ मोटो अवमानना की कार्रवाई शुरू कर ही सकता है. जैसा कि कुछ किसान संगठनों को लग रहा है कि कृषि सुधार क़ानूनों में झोल है, तो विशेषज्ञ समिति के सामने जाकर उन्हें अपनी बात रखनी चाहिए. फिर विशेषज्ञ समिति के सुझाव भी तो अंतिम समाधान नहीं होंगे. सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक दायरे में उनकी समीक्षा करेगा ही.
एक और विचारणीय प्रश्न यह है कि आंदोलन कर रहे कुछ किसान संगठनों को ऐसा क्यों लगता है कि सिर्फ़ और सिर्फ़ एमएसपी को क़ानूनी दायरे में लाने से देश भर के किसानों की सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा? ऐसा होता, तो 1967 में एक्ज़ीक्यूटिव ऑर्डर से एमएसपी व्यवस्था जारी होने के बाद से अभी तक किसानों की हालत में उल्लेखनीय सुधार हो चुका होता, क्योंकि यह बीच में कभी बंद नहीं की गई. केंद्र सरकार अब भी बहुत बार कह चुकी है कि एमएसपी ख़त्म करने का उसका कोई इरादा नहीं है. केंद्र और राज्य सरकारें किसानों की कुछ चुनी हुई फ़सलें एमएसपी पर ख़रीदती हैं. अब किसान चाहते हैं कि निजी क्षेत्र के लिए भी यह बाध्यता की जाए कि वह किसानों की उपज एमएसपी से कम पर अगर ख़रीदता है, तो ऐसा करना दंडनीय अपराध होगा. सरकार ऐसा क़ानूनी प्रावधान कर भी सकती है, लेकिन इसके लिए यह ज़रूरी क्यों है कि किसानों को खुले बाज़ार में वैकल्पिक मूल्य निर्धारण करने का हक़ देना वाला क़ानून वापस लिया जाए?पंजाब और हरियाणा के जट या जाट किसानों के बारे में अक्सर मज़ाक में कहा जाता है कि उनका रवैया यह रहता है कि पंचों की राय सिर-माथे, लेकिन खटोला तो यहीं बिछेगा. अब सुप्रीम कोर्ट पर संदेह जताकर आंदोलनकारी किसानों ने यही साबित किया है कि वे खटोला वहीं पर और इसी अंदाज़ में बिछाना चाहते हैं, जैसा कि वे चाहते हैं. लेकिन लोकतंत्र में तो खटोला पंचों की राय के अनुसार ही बिछना तय है. किसानों को चाहिए कि वे सुप्रीम कोर्ट के कमेटी बनाने के निर्णय का सम्मान करें और कमेटी की सिफ़ारिशों की प्रतीक्षा करें. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निपटारे तक उग्र रवैया छोड़ कर घरों को लौट जाएं. किसी दूसरे नागरिक की तरह किसान भी भारत के सम्मानित नागरिक हैं. उन्हें अब अराजक बर्ताव छोड़ देना चाहिए और देश के संविधान पर संदेह व्यक्त नहीं करना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं)
ब्लॉगर के बारे में
रवि पाराशरवरिष्ठ पत्रकार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं. नवभारत टाइम्स, ज़ी न्यूज़, आजतक और सहारा टीवी नेटवर्क में विभिन्न पदों पर 30 साल से ज़्यादा का अनुभव रखते हैं. कई विश्वविद्यालयों में विज़िटिंग फ़ैकल्टी रहे हैं. विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में शामिल हो चुके हैं. ग़ज़लों का संकलन ‘एक पत्ता हम भी लेंगे’ प्रकाशित हो चुका है।
First published: January 12, 2021, 5:43 PM IST