OPINION: हल चलाने वालों के कंधों से मोदी विरोधी राजनीति की बंदूक दागना बंद कीजिए प्लीज!
संविधान के मुताबिक़ किसानों का मसला केंद्र और राज्य, दोनों का विषय है. जो सियासी पार्टियां केंद्र सरकार के रुख़ के साथ नहीं हैं, वे अपने क़ानून बना सकती हैं. इसके लिए देश की राजधानी और उसके आसपास बसे इलाक़े के लोगों की ज़िंदगी क्यों दूभर की जा रही है?
Source: News18Hindi
Last updated on: January 10, 2021, 4:02 PM IST

अगर तीनों क़ानूनों से किसानों का भला नहीं हो रहा होता, तो सभी किसान संगठन एक साथ होते. लेकिन ऐसा नहीं है (फाइल फोटो)
तीनों कृषि सुधार क़ानूनों को रद्द करने की मांग पर चल रहे जमावड़े को डेढ़ महीने का वक़्फ़ा हो गया है. कड़ी सर्दी के बीच मासूम किसान आंदोलन या कहें कि मोदी विरोधी उद्वेलन के शिकार लगातार हो रहे हैं. 9 जनवरी को भी दिल्ली की सीमाओं पर डटे एक और अति-भावुक किसान ने आत्महत्या कर ली. तीनों क़ानून रद्द करने की मांग पर अड़े किसानों के महज़ 40 संगठनों के सामने लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई पूर्ण बहुमत वाली केंद्र सरकार क्या घुटने टेक दे?
आज़ादी के बाद से भारत में बहुत से आंदोलन हुए हैं. क्या किसी आंदोलन में हां या नहीं को मुद्दा बनाया गया है? क्या किसी ऐसे आंदोलन की याद किसी को है, जिसमें किसी सरकार या प्रबंधन ने सभी मांगें पूरी तरह मानी हों? सरकार लगातार कह रही है कि आप तर्कपूर्ण मांग रखिए, वह मानने को तैयार है. सरकार का यह तर्क भी समझ में आता है कि तीनों कृषि सुधार क़ानून देश भर के किसानों की बेहतरी के लिए लाए गए हैं. देश भर में 500 से ज़्यादा किसान संगठन हैं और उनमें से मात्र 40 संगठन क़ानून रद्द करेन की मांग पर अड़े हैं, तो क्या बाक़ी 460 से ज़्यादा संगठनों बात सरकार को नहीं सुननी चाहिए? अगर तीनों क़ानूनों से किसानों का भला नहीं हो रहा होता, तो सभी किसान संगठन एक साथ होते. लेकिन ऐसा नहीं है.
भारत को आज़ाद कराने के लिए जो आंदोलन काफ़ी वर्षों तक चला, उसमें एक ही मांग रखी गई थी कि संपूर्ण भारत को स्वतंत्र किया जाए. लेकिन क्या ऐसा हो पाया? भारत तो आज़ाद हुआ, लेकिन बंटवारे की शर्त पर पाकिस्तान बनने के फ़ैसले के साथ. हालांकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य और किसानों की मांग के सिलसिले में यह तर्क समीचीन नहीं है, लेकिन यही कहने की कोशिश की गई है कि दो पक्षों के बीच समझौते में दोनों के ही हितों का ध्यान रखना पड़ता है. दोनों को ही कुछ पीछे हटना पड़ता है. कहने का अर्थ है कि कोई भी व्यवस्था जब अपनी सोच को आगे बढ़ाते हुए किसी वर्ग के हित के लिए नियम-क़ायदे बनाती है, तो क्या उसे उस व्यवस्था को लागू करने का हक़ नहीं होना चाहिए? भारतीय संविधान में क़ानून संशोधन की व्यवस्था की गई है.
किसी भी क़ानून के अच्छे-बुरे परिणामों की परख में कुछ समय तो लगता ही है. तीनों क़ानूनों को लागू होने दीजिए और अगर दो-तीन साल में नतीजे सकारात्मक न निकलें, तब संशोधन या उन्हें रद्द की बात की जाए. इस मामले में तो केंद्र सरकार ने अपना रुख़ बेहद लचीला कर रखा है और क़ानूनों में पर्याप्त संशोधन के लिए तैयार भी है. तो फिर क़ानून रद्द करने की ज़िद कहां तक जायज़ है? ऐसा लगता है कि आंदोलनकारी नेतृत्व संसद की सर्वोच्चता यानी संवैधानिक व्यवस्था पर सीधा हमला करने पर आमादा हैं. अब डेढ़ महीने से ज़्यादा हो जाने के बाद अगर किसान आंदोलन क़ानून रद्द करने की मांग पर ही अड़ा है, तो ऐसा भी लग रहा है कि आंदोलन का नेतृत्व अब किसान नेताओं के हाथ से निकल कर सिर्फ़ और सिर्फ़ मोदी विरोधी नकारात्मकता के हाथ में चला गया है. संविधान के मुताबिक़ किसानों का मसला केंद्र और राज्य, दोनों का विषय है. जो सियासी पार्टियां केंद्र सरकार के रुख़ के साथ नहीं हैं, वे अपने क़ानून बना सकती हैं. इसके लिए देश की राजधानी और उसके आसपास बसे इलाक़े के लोगों की ज़िंदगी क्यों दूभर की जा रही है? अगर दबाव में आकर केंद्र सरकार तीनों कृषि सुधार क़ानून वापस ले लिए, तो यह लोकतंत्र की मूल भावना के अनुरूप नहीं होगा. साथ ही भीड़तंत्र द्वारा किसी भी सरकार को ब्लैकमेल करने की अराजक परंपरा पड़ जाएगी. जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में लगाए गए जमावड़े और इस किसान आंदोलन में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं दिखाई दे रहा है. सरकार से साफ़ कर दिया है कि तीनों क़ानून रद्द नहीं किए जाएंगे. ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट ने भी किसानों से दिल्ली की सीमाएं ख़ाली करने का आदेश दे दिया, तो क्या किसान उसे भी नहीं मानेंगे? भला इसी में है कि सरकार के बैकफ़ुट पर जाने का फ़ायदा किसान संगठन जितनी जल्दी हो सके, उठा लें.
हर मुसीबत अपने साथ कुछ सबक़ लेकर आती है. ज़ाहिर है कि केंद्र सरकार ने भी इस कथित किसान आंदोलन से सबक़ ज़रूर लिए होंगे. यहां सरकार को एक सुझाव दिया जा सकता है कि कोई क़ानून पारित कराने से पहले उसका मसौदा कुछ समय तक पब्लिक डोमेन में रख कर सुझाव लिए जा सकते हैं. ऐसा होने पर बाद में किसी क़ानून के ख़िलाफ़ नकारात्मक आंदोलन नहीं करने के लिए नैतिक दबाव होगा. अध्यादेश की सूरत में उसे जारी करने के बाद अगले सत्र में उसके रेटिफिकेशन के बीच के समय में सुझाव मांगे जा सकते हैं. हालांकि कोई भी फ़ैसला सौ प्रतिशत लोगों को ख़ुश नहीं कर सकता, फिर भी पहले सुझाव लेने से विरोध के पुख़्ता स्वर बाद में सुनाई नहीं देंगे.
लोकतंत्र में असहमति का अधिकार है, लेकिन आप दूसरों के मौलिक अधिकारों को कुचल नहीं सकते. आंदोलन की वजह से दिल्ली-एनसीआर के तीन करोड़ से ज़्यादा लोगों को परेशानी हो रही है. यह बात भी सही है कि आज़ादी के सात दशक से ज़्यादा समय बाद भी किसानों की हालत दूसरे सैक्टरों के मुक़ाबले ख़राब है, जबकि भारत कृषि प्रधान देश है. ऐसे में ठोस कृषि सुधार किए ही जाने चाहिए. इसमें अब कोई देरी नहीं होनी चाहिए. किसान संगठनों को चाहिए कि वे सकारात्मक रुख़ अपनाएं और सरकार के साथ सम्मानजनक समझौता कर लें. मौजूदा क़ानूनों या संशोधित क़ानूनों से किसानों को लाभ नहीं मिलता है, तो फिर सरकार से बात की जा सकती है. किसी सरकार या नेता से बदला लेने के लिए हज़ारों ज़िंदगियों से खिलवाड़ अब बंद होना चाहिए. फिर चाहे वे किसान हों या दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले करोड़ों लोग. हल चलाने वाले किसानों के कंधे पर राजनीति की बंदूक हटा लिजीए कृपया. (ये लेखक के निजी विचार हैं)
आज़ादी के बाद से भारत में बहुत से आंदोलन हुए हैं. क्या किसी आंदोलन में हां या नहीं को मुद्दा बनाया गया है? क्या किसी ऐसे आंदोलन की याद किसी को है, जिसमें किसी सरकार या प्रबंधन ने सभी मांगें पूरी तरह मानी हों? सरकार लगातार कह रही है कि आप तर्कपूर्ण मांग रखिए, वह मानने को तैयार है. सरकार का यह तर्क भी समझ में आता है कि तीनों कृषि सुधार क़ानून देश भर के किसानों की बेहतरी के लिए लाए गए हैं. देश भर में 500 से ज़्यादा किसान संगठन हैं और उनमें से मात्र 40 संगठन क़ानून रद्द करेन की मांग पर अड़े हैं, तो क्या बाक़ी 460 से ज़्यादा संगठनों बात सरकार को नहीं सुननी चाहिए? अगर तीनों क़ानूनों से किसानों का भला नहीं हो रहा होता, तो सभी किसान संगठन एक साथ होते. लेकिन ऐसा नहीं है.
भारत को आज़ाद कराने के लिए जो आंदोलन काफ़ी वर्षों तक चला, उसमें एक ही मांग रखी गई थी कि संपूर्ण भारत को स्वतंत्र किया जाए. लेकिन क्या ऐसा हो पाया? भारत तो आज़ाद हुआ, लेकिन बंटवारे की शर्त पर पाकिस्तान बनने के फ़ैसले के साथ. हालांकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य और किसानों की मांग के सिलसिले में यह तर्क समीचीन नहीं है, लेकिन यही कहने की कोशिश की गई है कि दो पक्षों के बीच समझौते में दोनों के ही हितों का ध्यान रखना पड़ता है. दोनों को ही कुछ पीछे हटना पड़ता है. कहने का अर्थ है कि कोई भी व्यवस्था जब अपनी सोच को आगे बढ़ाते हुए किसी वर्ग के हित के लिए नियम-क़ायदे बनाती है, तो क्या उसे उस व्यवस्था को लागू करने का हक़ नहीं होना चाहिए? भारतीय संविधान में क़ानून संशोधन की व्यवस्था की गई है.
किसी भी क़ानून के अच्छे-बुरे परिणामों की परख में कुछ समय तो लगता ही है. तीनों क़ानूनों को लागू होने दीजिए और अगर दो-तीन साल में नतीजे सकारात्मक न निकलें, तब संशोधन या उन्हें रद्द की बात की जाए. इस मामले में तो केंद्र सरकार ने अपना रुख़ बेहद लचीला कर रखा है और क़ानूनों में पर्याप्त संशोधन के लिए तैयार भी है. तो फिर क़ानून रद्द करने की ज़िद कहां तक जायज़ है? ऐसा लगता है कि आंदोलनकारी नेतृत्व संसद की सर्वोच्चता यानी संवैधानिक व्यवस्था पर सीधा हमला करने पर आमादा हैं. अब डेढ़ महीने से ज़्यादा हो जाने के बाद अगर किसान आंदोलन क़ानून रद्द करने की मांग पर ही अड़ा है, तो ऐसा भी लग रहा है कि आंदोलन का नेतृत्व अब किसान नेताओं के हाथ से निकल कर सिर्फ़ और सिर्फ़ मोदी विरोधी नकारात्मकता के हाथ में चला गया है.
हर मुसीबत अपने साथ कुछ सबक़ लेकर आती है. ज़ाहिर है कि केंद्र सरकार ने भी इस कथित किसान आंदोलन से सबक़ ज़रूर लिए होंगे. यहां सरकार को एक सुझाव दिया जा सकता है कि कोई क़ानून पारित कराने से पहले उसका मसौदा कुछ समय तक पब्लिक डोमेन में रख कर सुझाव लिए जा सकते हैं. ऐसा होने पर बाद में किसी क़ानून के ख़िलाफ़ नकारात्मक आंदोलन नहीं करने के लिए नैतिक दबाव होगा. अध्यादेश की सूरत में उसे जारी करने के बाद अगले सत्र में उसके रेटिफिकेशन के बीच के समय में सुझाव मांगे जा सकते हैं. हालांकि कोई भी फ़ैसला सौ प्रतिशत लोगों को ख़ुश नहीं कर सकता, फिर भी पहले सुझाव लेने से विरोध के पुख़्ता स्वर बाद में सुनाई नहीं देंगे.
लोकतंत्र में असहमति का अधिकार है, लेकिन आप दूसरों के मौलिक अधिकारों को कुचल नहीं सकते. आंदोलन की वजह से दिल्ली-एनसीआर के तीन करोड़ से ज़्यादा लोगों को परेशानी हो रही है. यह बात भी सही है कि आज़ादी के सात दशक से ज़्यादा समय बाद भी किसानों की हालत दूसरे सैक्टरों के मुक़ाबले ख़राब है, जबकि भारत कृषि प्रधान देश है. ऐसे में ठोस कृषि सुधार किए ही जाने चाहिए. इसमें अब कोई देरी नहीं होनी चाहिए. किसान संगठनों को चाहिए कि वे सकारात्मक रुख़ अपनाएं और सरकार के साथ सम्मानजनक समझौता कर लें. मौजूदा क़ानूनों या संशोधित क़ानूनों से किसानों को लाभ नहीं मिलता है, तो फिर सरकार से बात की जा सकती है. किसी सरकार या नेता से बदला लेने के लिए हज़ारों ज़िंदगियों से खिलवाड़ अब बंद होना चाहिए. फिर चाहे वे किसान हों या दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले करोड़ों लोग. हल चलाने वाले किसानों के कंधे पर राजनीति की बंदूक हटा लिजीए कृपया. (ये लेखक के निजी विचार हैं)
ब्लॉगर के बारे में
रवि पाराशरवरिष्ठ पत्रकार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं. नवभारत टाइम्स, ज़ी न्यूज़, आजतक और सहारा टीवी नेटवर्क में विभिन्न पदों पर 30 साल से ज़्यादा का अनुभव रखते हैं. कई विश्वविद्यालयों में विज़िटिंग फ़ैकल्टी रहे हैं. विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में शामिल हो चुके हैं. ग़ज़लों का संकलन ‘एक पत्ता हम भी लेंगे’ प्रकाशित हो चुका है।
First published: January 10, 2021, 4:02 PM IST