भारत ने 75 बरस पहले, जबकि देश में लोकतंत्र नहीं था, तब लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों को अपनाने की पहल की थी. लेकिन अगर कभी आपको लगे कि राजनीतिक दलों में संवाद नहीं हो रहा है? अगर एक राजनीतिक दल सत्ता में आकर दूसरे राजनीतिक दल के साथ प्रतिशोध की भावना से व्यवहार करता है? अगर देश और समाज के निर्णय सत्ता और ताकत के आधार पर लिए जा रहे हैं. अगर असहमति को दुश्मनी के रूप में देखा जाता है तो मान लीजिए कि देश में लोकतंत्र नहीं है.
लोकतंत्र समाज की विविधता में विश्वास करता है. अतः हमें ऐसी राजनीतिक व्यवस्था बनानी चाहिए, जिसमें उस विविधता के प्रति चेतना हो. निर्णय लेने में सबकी सक्रिय सहभागिता हो. जो वंचित हैं और जिन्हें अपना जीवन बेहतर बनाने के लिए विशेष संरक्षण की जरूरत है, उन्हें हम विशेष संरक्षण प्रदान करें.
निर्णय लेने की प्रक्रिया में अलग-अलग विचारों, रुचियों और जरूरतों को जानना जरूरी होता है. यह केवल संवाद के माध्यम से ही किया जा सकता है. संवाद से ही हम देश-दुनिया-लोगों-प्रकृति को जानते हैं, उन्हें समझते और उनके बारे में सीखते हैं. और विचारों से ही निर्णय होते हैं. आप भी यह बताइए कि क्या जीवन का कोई भी निर्णय बिना सोचे-विचारे किया जाता है? ऐसा कौन सा निर्णय होता है, जिसे करते समय हम उचित-अनुचित, सही-गलत, अच्छे-बुरे प्रभाव पर विचार नहीं करते हैं.
यह समझना भी बहुत जरूरी है कि विविधता को न तो नकारा जा सकता है, न ही तोड़ा और खारिज किया जा सकता है. बेहतर जीवन व्यवस्था के लिए संवाद एक बुनियादी आवश्यकता होता है. अगर परिवार का कोई सदस्य बिना कारण देर रात तक बाहर रहता है, तो उसे समझाया जाता है कि देखो, यह ठीक नहीं है. बाहर असुरक्षा रहती है. तुम्हारे देर से लौटने की वजह से मां को भी देर रात तक जागना पड़ता है. सब लोग चिंतित रहते हैं. अगर कोई जरूरी काम न हो तो, समय से वापस घर आ जाया करो. यही संवाद होगा. यही बात दूसरे तरीके से भी कही जा सकती है – तुम देर रात तक आवारागर्दी करते रहते हो. तुम्हें किसी की कोई चिंता ही नहीं है. अगर घर में रहना है तो ठीक से रहो. पहले तरीके के संवाद से क्या होगा और दूसरे तरह के संवाद से क्या होगा? दूसरे संवाद से दूरियां ही बढ़ेंगी.
लोकतांत्रिक मूल्यों से ही बेहतर समाज और लोग बनते हैं. समाज में खुलापन, प्रेम और जिम्मेदारी का भाव आता है. और किसी भी देश में लोकतंत्र तभी विकसित हो पाता है, जब उनमें संवाद की संस्कृति और संस्कार होते हैं. यह मान लेना कि देश – समाज में केवल एक ही मत होता है, एक तरह से आत्मघाती सोच है. अगर दूसरे व्यक्तियों के विचार सुने, समझे और निर्णय में शामिल नहीं किए जाएंगे तो व्यवस्था में असुरक्षा बनी रहेगी. लोग कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे. जब मौका लगेगा, वे व्यवस्था से अपने आप को अलग कर लेंगे.
पहला, हिंसा होती और जिस भारत के मूल में अहिंसा, सत्य, करुणा के सिद्धांत हैं, राम, महावीर, बुद्ध, कबीर, मीरा और गांधी हैं, वहां पहली बार किसी भूभाग को हिंसक आक्रमण के जरिए अपने अधीन करने का दाग लगता.
दूसरा, जिन रियासतों का युद्ध के जरिए भारत में विलय होता, उनमें हमेशा यह भाव बना रह जाता है कि उन पर हिंसा और ताकत के जरिए नियंत्रण हासिल किया गया है. क्या तब एकता और अखंडता का भाव पनप पाता?
रियासतों के भारत में विलय की प्रकिया मुख्य रूप से संवाद के जरिए ही पूरी हुई. केवल हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर रियासतों के सन्दर्भ में कूटनीतिक प्रक्रिया की जरूरत पड़ी.
भारत का संविधान अपने आप में संवाद का एक और प्रभावी उदाहरण है. संविधान बनाने वाली सभा में हर धर्म और समुदाय के लोग थे. उसमें हिन्दू थे, मुसलमान थे, पारसी थे, सिख थे, ईसाई थे, अनुसूचित जाति के लोग थे और आदिवासी भी थे. सभा में महिलाएं भी थीं. भारत की आज़ादी के संघर्ष पर कोई भी नजरिया बनाने से पहले तत्कालीन भारत (जिसकी आबादी लगभग 40 करोड़ थी) के भीतर की चुनौतियों को समझना होगा. ब्रिटेन के राजनीतिज्ञ विंस्टन चर्चिल बार-बार कहते थे कि भारत में इतनी विविधता है कि यह अपने लिए कोई व्यवस्था बना ही नहीं सकता. वह कहते थे कि यह देश दस साल में हमसे आकर कहेगा कि वापस आइए और फिर से हम पर शासन कीजिए. चर्चिल ने अपने वक्तव्य में कुछ आंकड़े दिए थे, “भारत में वंचित तबकों की जनसंख्या लगभग 6 करोड़ है, इन्हें अल्पसंख्यक कह देने से मुद्दे की गंभीरता कम हो जाती है. मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या 9 करोड़ है और रियासतों की आबादी 9.5 करोड़ है.”
इन सबकी मांग थी अपना वजूद, अपनी अस्मिता. यदि भारत के राजनीतिज्ञ संवाद नहीं करते, एक दूसरे से नरमी से पेश नहीं आते और सामंजस्य की सीमा से बाहर जाते तो भारत की स्थिति क्या होती? यह हम सबको सोचना चाहिए!
संविधान के प्रावधानों और उसके स्वरूप पर आसानी से बहस शुरू हो जाती है, लेकिन उसकी गहराई को नहीं समझा जाता. पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च (इंस्टीट्यूट फॉर पालिसी रिसर्च) ने संविधान सभा की बहस को एक नए अंदाज़ में समझा है. उनका अध्ययन बताता है कि संविधान सभा के गठन के दिन नौ दिसंबर 1946 से संविधान लागू किए जाने (26 जनवरी 1950) तक सभा की कुल 165 बैठकें हुईं. इनमें से 46 दिन संविधान पर शुरूआती चर्चा में लगे जबकि प्रारूप में दूसरी चर्चा में 101 दिन तक अनुच्छेदवार चर्चा की गयी. शुरूआती प्रस्तावों पर पांच दिन और संविधान के प्रारूप को लेकर तीसरी बार चर्चा में 13 दिन लगाए गए.
नवंबर 1948 से अक्टूबर 1949 के बीच हुई अनुच्छेदवार चर्चा में 101 दिनों में से 16 दिन मूलभूत अधिकारों पर चर्चा हुई, जबकि नीति निर्देशक सिद्धांतों पर चार दिन चर्चा हुई. इसके अलावा डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा को 25 नवंबर 1949 को बताया था कि 29 अगस्त 1947 को मसौदा समिति बनायी गयी थी और इसने 141 दिनों तक काम किया. बी. शिवा राव के अनुसार मसौदा समिति ने कुल 42 बैठकें की थीं. इसके अलावा संविधान के अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा करते हुए संविधान मसौदा समिति सहित 17 समितियां बनायी गयी थीं और इन समितियों ने अपने-अपने काम के लिए लगातार बैठकें कीं.
मसौदा समिति द्वारा प्रस्तुत किए गए दस्तावेज पर हुई बहस के दौरान 7,635 संशोधन प्रस्ताव पेश किए गए, जिनमें से 2,473 को स्वीकार किया गया. पीआरएस का अध्ययन बताता है कि संविधान सभा में बहस-चर्चाओं के दौरान लगभग 36 लाख शब्द बोले गए. इन में से दो-तिहाई शब्द अनुच्छेद पर चर्चा के दौरान तब बोले गए जब संविधान को दूसरी बार पढ़ा जा रहा था.
मूल भाव को महसूस करना
25 नवंबर 1949 को डॉ. पट्टाभि सीतारमैय्या ने कहा, “मैं आपसे पूछता हूं कि आखिर संविधान का क्या अर्थ है? वह राजनीति का व्याकरण है और राजनैतिक नाविक के लिए एक कुतुबनुमा (दिशासूचक) है. वह चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, किन्तु स्वयं में वह प्राणशून्य और चेतनाशून्य है और स्वयं किसी प्रकार का कार्य करने में असमर्थ है. वह हमारे लिए उतना ही उपयोगी होगा, जितना उपयोगी हम उसे बना सकते हैं. वह विपुल शक्ति का भण्डार है किंतु हम उसका जितना उपयोग करना चाहेंगे, उतना ही उपयोग कर पायेंगे. सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि हम उसके शब्दों को ही देखते हैं और उसमें सन्निहित भावना की उपेक्षा करते हैं, अथवा हम उसके शब्दों तथा उनमें सन्निहित भावना की ओर भी ध्यान देते हैं.
शब्दकोष में सबके लिए समान शब्द होते हैं किन्तु उन्हें प्रयोग करके विभिन्न लेखक विभिन्न शैलियों का सृजन करते हैं. स्वर और ध्वनियां सभी के लिए समान हैं, किंतु उनसे विभिन्न गायक विभिन्न गीतों की रचना करते हैं. रंग और तूलिकाएं सबके लिए समान हैं, किंतु चित्रकार उनसे विभिन्न चित्रों को चित्रित करते हैं. इसी प्रकार संविधान के संबंध में भी यह कहा जा सकता है कि सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि हम उसे किस प्रकार व्यवहार में लाते हैं.”
असहमति का सम्मान
राजबहादुर ने कहा था, “संविधान बनाने के इस साहसिक प्रयत्न में पूर्ण रूप से एकमत होना असंभव है. कदाचित एकमत होने की संभावना केवल मूर्ख समाज में ही की जा सकती है. अतः यदि मतभेद हैं तो यह हमारी बुद्धिमत्ता का चिह्न है. इस बात का चिह्न है कि हमारा राष्ट्र विचारशील है, मननशील है. हम सबके लिए प्रत्येक विषय में तथा समस्त प्रश्नों पर एकमत हो जाना असंभव है.”
अन्य लोगों के विचारों का सम्मान
26 नवंबर 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा, “हमनें एक लोकतंत्रात्मक संविधान तैयार किया है; पर लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों के सफल क्रियान्वयन के लिए उन लोगों में (जो इन सिद्धांतों को क्रियान्वित करेंगे) अन्य लोगों के विचारों का सम्मान करने की तत्परता और समझौता करने तथा श्रेय देने का सामर्थ्य आवश्यक है. यह संविधान किसी बात के लिए उपबंध करे या न करे, देश का कल्याण उस रीति पर निर्भर करेगा, जिसके अनुसार देश का प्रशासन किया जाएगा. देश का कल्याण उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा, जो देश पर प्रशासन करेंगे. यह एक पुरानी कहावत है कि देश जैसी सरकार के योग्य होता है, वैसी ही सरकार उसे प्राप्त होती है.”
भारत के संविधान में भारत के उच्च वर्णों और प्रभावशाली तबकों का ज्यादा प्रतिनिधित्व था, लेकिन फिर भी संविधान सभा में एक मत से यह माना गया कि देश में छुआछूत नहीं होनी चाहिए. शासन व्यवस्था लोकतांत्रिक होनी चाहिए. यह स्वीकार किया गया कि कुछ सामाजिक समूहों की उपेक्षा होती रही है, उनका शोषण और अन्याय होता रहा है. ऐसी व्यवस्था में बदलाव के प्रति वचनबद्धता दर्शाई गई. भारत के संविधान ने शासन व्यवस्था के लिए जिन मानवीय-नागरिक मूल्यों का प्रतिपादन किया, उनमें से अधिकांश मूल्य भारत की व्यवस्था में अनुपस्थित थे. ऐसा विधान संवाद से ही आकार ले पाया.
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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