आज़ाद भारत के निर्माण के लिए कितना अहम था वैमनस्यता से मुक्त होना?
डॉ. अम्बेडकर (Dr Bhimrao Ambedkar) ने कहा कि इस देश के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक, दोनों ही वर्ग एक गलत रास्ते पर चले हैं. बहुसंख्यक वर्ग की यह गलती है कि उसने अल्पसंख्यक वर्ग का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया और इसी प्रकार अल्पसंख्यक वर्ग की गलती यह है कि उसने अपने को सदा के लिए अल्पसंख्यक बनाए रखा.
Source: News18Hindi
Last updated on: January 12, 2021, 12:06 AM IST

मौलाना हसरत मौहानी ने कहा, "आप मुसलमानों को अल्पसंख्यक क्यों कहते हैं? मुसलमान अल्पसंख्यक उस वक्त तक हैं, जब तक आप इनको साम्प्रदायिक शक्ल में पेश करते हैं.”
क्या किसी रोग का उपचार, उसके कारणों की पड़ताल किये बिना कर पाना संभव है? विज्ञान तो कहता है कि समस्या के कारण जाने बिना और उन कारणों का उपचार किये बिना समस्या का समाधान असंभव है. यह बात भारत की कुछ बुनियादी समस्याओं, मसलन साम्प्रदायिकता, के साथ सीधे-सीधे जुड़ी हुई है. भारत ने साम्प्रदायिकता की समस्या को तो गले से लगा लिया, किन्तु उसके कारणों को जानने-समझने की परिपक्वता को विकसित नहीं कर पाया. संविधान सभा में प्रस्तुत किये गए लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव में साम्प्रदायिकता, असमानता, शोषण और गुलामी के कारणों की समझ का अहसास होता है, किन्तु व्यापक भारतीय समाज में गहरे तक जड़ें जमा चुकी साम्प्रदायिकता की भावना को निष्क्रिय करने के लिए बहुत सघन पहल की जरूरत थी, जो संपादित नहीं की गई.
संविधान सभा में 13 दिसंबर 1946 को भावी संविधान की रूपरेखा-चरित्र और मंशा को स्पष्ट करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने “लक्ष्य-सम्बन्धी प्रस्ताव” प्रस्तुत किया था. जिसमें कहा गया था कि "यह विधान-परिषद भारत वर्ष को एक पूर्ण जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रस्तुत करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक विधान बनाया जाए... जिसमें सभी अल्पसंख्यकों के लिए, पिछड़े हुए और कबाइली प्रदेशों के लिए और दलित और पिछड़ी हुई जातियों के लिए काफी संरक्षण विधि रहेगी." वास्तव में पहले बंगाल के विभाजन और फिर वर्ष 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना से शुरू हुई पृथक निर्वाचन की राजनीति ने भारत में साम्प्रदायिकता की खेती के लिए जमीन को उर्वर बनाया. ब्रिटिश शासन की नीति यह थी कि भारत में हिंदू और मुसलमान के बीच वैमनस्य पैदा करके वे भारत को अपना स्थाई उपनिवेश बनाए रख सकेंगे. ब्रिटेन का उपनिवेश तो भारत नहीं बना, किन्तु साम्प्रदायिकता ने एक नासूर का रूप ले लिए जिससे भारत और पाकिस्तान आज भी जूझ रहे हैं.
आचार्य जे.बी. कृपलानी ने संविधान सभा की शुरुआत के दूसरे दिन सभा के कार्य संचालन-व्यवस्था-दायित्वों की व्यवस्था के लिए एक 15 सदस्यीय समिति बनाने का सुझाव दिया. इस पर डॉ. एम. आर. जयकर ने 10 दिसम्बर 1946 को कहा था कि “एक दल (मुस्लिम लीग) संविधान सभा से गैर-हाज़िर है और यदि उनकी अनुपस्थिति में व्यवस्था बनायी जायेगी, वह उन सेक्शनों पर भी लागू होगी. यह याद रहे कि इस दल के लोग आज मौजूद नहीं है और इसके अलावा वे आपकी कार्यवाही को सन्देश और ईर्ष्या की दृष्टि से देख रहे हैं. वे इस ताक में हैं कि कहीं आप उनके हाथ से कुछ छीन तो नहीं रहे हैं, उनके यहां आने से पहले आखिरी फैसला तो नहीं कर रहे हैं."
इसके बाद 16 दिसम्बर 1946 को श्री जयकर ने कहा कि “मैं अपने प्रस्ताव से उत्पन्न हुई गलतफहमियां दूर कर देना चाहता हूं. किसी ने कहा कि मैं जानबूझ कर मुस्लिम लीग को संतुष्ट करने के लिए ऐसा कर रहा हूं, तो किसी ने कहा कि मैं मिस्टर चर्चिल का समर्थन कर रहा हूं. मैं हिंदू हितों का समर्थक हूं, इसका अर्थ यह नहीं कि मैं दूसरे सम्प्रदाय के उन हितों पर कुठाराघात करूँ, जिन्हें मैं जायज़ समझता हूं. संशोधन उपस्थित करने का मेरा वास्तविक उद्देश्य इस परिषद को नाकाम होने से बचाना है.” डॉ. जयकर ने प्रस्ताव रखा कि “भारत का अपना विधान बनाने के लिए मुस्लिम लीग और देशी रियासतों का सहयोग पाने और इस तरह अपने निश्चय को उग्र बनाने के उद्देश्य से सभा इस प्रश्न पर और आगे विचार करने के लिए स्थगित रखती है, ताकि उपरोक्त दोनों संगठनों के प्रतिनिधि, यदि चाहें, इस सभा की कार्यवाही में हिस्सा ले सकें... कम से कम 20 जनवरी 1947 तक आप कोई अहम काम नहीं करने जा रहे हैं, कम से कम तब तक के लिए तो मुस्लिम लीग के लिए आपको रास्ता साफ रखना चाहिए कि वे यहां आकर हमारी कार्यवाही में हिस्सा लें.” आर.वी. धुलेकर ने 21 जनवरी 1947 को कहा कि “यह आपत्ति उठाई गई कि मुस्लिम लीग के सदस्य यहां उपस्थित नहीं हैं, इसलिए यह प्रस्ताव अभी न लाया जाए. यह आपत्ति निरर्थक है. जब मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन के बयान के आधार पर चुनाव में भाग लिया और नियमों को मानकर चुनाव भी कर लिया तो उनके प्रतिनिधियों का सभा में सम्मिलित न होना अनुचित है. मुसलमानों की जनसंख्या के आधार पर ही मुसलमानों द्वारा प्रतिनिधियों के चुने जाने का अधिकार उन्हें दिया गया. सन् 1916 ई. में राष्ट्रीय महासभा ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मान लिया और विशेष प्रतिनिधि संख्या भी दी. 30 वर्षों में उसने हिंदू मुसलमानों को गृहयुद्ध और देश को बंटवारे तक पहुंचा दिया जो चाल लार्ड मिंटो ने वर्ष 1906 में चली थी, वह काम कर गई.” इसी दिन श्री जयकर ने कहा कि “मैंने चाहा था कि परिषद मुस्लिम लीग के लिए 20 जनवरी तक ठहरे और परिषद ठहरी. चूंकि सुझाव मैंने किया था और परिषद ने उसे स्वीकार कर लिए था इसलिए सम्मान का तकाजा है कि मैं अपने संशोधन को आगे न बढ़ाऊं.”
पंडित नेहरू द्वारा पेश लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव पर अपनी बात कहते हुए पुरुषोत्तम दास टंडन ने कहा कि “ब्रिटेन के साथ हमारे लंबे समय का इतिहास बताता है कि हिंदू-मुस्लिम भेदभाव की सृष्टि अंग्रेजों ने की. हिंदू-मुस्लिम मनमुटाव की समस्या, जिसका राग अंग्रेज अलापते हैं, वह तो उन्हीं की पैदा की हुई चीज़ है. उनके हिन्दुस्तान पधारने से पहले यहां इस मनमुटाव का नामोनिशां नहीं था. दोनों की सभ्यता एक थी और दोनों ही मित्रवत रहते थे. क्या कलेजे पर हाथ रखकर अंग्रेज कह सकते हैं कि वर्तमान भारतीय परिस्थिति को उन्होंने पैदा नहीं किया है? किसी ने ठीक ही कहा है कि वह (मुस्लिम लीग) ब्रिटिश गवर्नमेंट का मोर्चा है. पंडित नेहरू ने अभी उस दिन कांग्रेस में कहा था कि दरमियानी सरकार में शामिल होने वाले लीग सदस्य ब्रिटिश सम्राट की पार्टी की तरह आचरण कर रहे हैं. तथ्य यह है कि लीग को ब्रिटिश हुकूमत की ओर से धोखा दिया जा रहा है. वे हमारे देशवासी हैं, हमारे भाई हैं और हम उनके साथ समझौता करने के लिए हमेशा तैयार हैं.
“भारत में साम्प्रदायिकता की स्थितियों पर भी संविधान सभा में बहुत परिपक्व बहस हुई. इस बहस का आधार यह था कि क्या भारत को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर स्थाई विभाजन के सुपुर्द कर दिया जाना चाहिए? मसविदे में अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए व्यवस्थाएं बनायी गयीं. डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि इस देश के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक, दोनों ही वर्ग एक गलत रास्ते पर चले हैं. बहुसंख्यक वर्ग की यह गलती है कि उसने अल्पसंख्यक वर्ग का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया और इसी प्रकार अल्पसंख्यक वर्ग की गलती यह है कि उसने अपने को सदा के लिए अल्पसंख्यक बनाए रखा. मार्ग ऐसा होना चाहिए कि अल्पसंख्यकों का अस्तित्व मानकर इस सम्बन्ध में आगे बढ़े और साथ ही मार्ग ऐसा भी हो, जिससे कि एक दिन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों ही वर्ग आपस में मिलजुलकर एक हो जाएं.”इस पर मौलाना हसरत मौहानी ने कहा कि “आपने (मसविदा समिति ने) संविधान में लिखा है कि मुसलमानों के लिए 14 फ़ीसदी स्थान आरक्षित रखे जाएं. आप जब तक यह समझते हैं कि आप 86 फ़ीसदी हैं और मुसलमान 14 फीसदी हैं. यह जब तक आप में कम्युनलिज्म है, उस वक्त तक कुछ नहीं हो सकता. आप मुसलमानों को अल्पसंख्यक क्यों कहते हैं? मुसलमान अल्पसंख्यक उस वक्त तक हैं, जब तक आप इनको साम्प्रदायिक शक्ल में पेश करते हैं.” भारत के विभाजन ने साम्प्रदायिकता की खाई को एक तरह से स्थाई रूप दे दिया है. ऐसे में जरूरी है कि भारत के लोग भारत के भीतर के विभाजन को खत्म करने की पहल करें. देश के विभाजन पर महात्मा गांधी और नेहरू की भूमिका पर सवाल खड़े किये जाते हैं. किन्तु 10 अक्तूबर 1949 को संविधान सभा में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जो बात कही थी, उसे समझा जाना चाहिए. इससे स्पष्ट होता है कि भारत का विभाजन कुछ अपरिहार्य स्थितियों की उपज था.
सरदार पटेल ने कहा था कि “मैं आपको अंदरूनी इतिहास बताता हूं, जिसे कोई नहीं जानता. जब हम एक ऐसी अवस्था में पहुंच गए कि हमारा सब कुछ चला जाता, तब मैंने अंतिम चारे के रूप में देश के विभाजन को स्वीकार किया था. सरकार में हमारे पास पांच या छह सदस्य थे, मुस्लिम लीग के सदस्य थे. उन्होंने अपने आपको ऐसे सदस्यों के रूप में स्थापित कर लिया था, जो देश का विभाजन करने के लिए ही आये थे. उस अवस्था में हमने विभाजन के विकल्प को स्वीकार किया था. हमने निर्णय किया कि इस शर्त पर विभाजन माना जा सकता है कि पंजाब का विभाजन किया जाए, वे सारा पंजाब चाहते थे, कि बंगाल का विभाजन किया जाए, वे कलकत्ता और सारा बंगाल चाहते थे. श्री जिन्ना कटा-छंटा पाकिस्तान नहीं चाहते थे, परन्तु उन्हें यह मानना पड़ा. हमने कहा कि इन दो प्रान्तों का विभाजन किया जाना चाहिए. मैंने एक और शर्त रखी कि यदि इस बात की गारंटी दी जाए कि ब्रिटिश सरकार देशी रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी तो दो महीनों की अवधि में सत्ता हस्तांतरण कर दिया जाना चाहिए. हमने कहा हम इस मामले के साथ स्वयं निपटेंगे. इसको हम पर छोड़ दो, आप किसी का पक्ष मत लो. सर्वोपरि सत्ता का अब अंत होने दीजिए, आप प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार से इस मामले को पुनर्जीवित न करें. आप हस्तक्षेप मत कीजिये. हम अपनी समस्या का समाधान कर लेंगे. राजा महाराजा हमारे हैं और हम उनके साथ निपट लेंगे. इस शर्तों पर हमने विभाजन की बात स्वीकार की थी और उन्हीं शर्तों पर दो महीने के भीतर पार्लियामेंट में विधेयक पास किया गया था और सभी तीनों पक्षों ने उस पर सहमति व्यक्त की थी. आप कहते हो कि नेताओं ने ये गारंटियां क्यों दीं? इसलिए दीं कि आपको इसी बात को लेकर अपने नेताओं की आलोचना करने का अवसर मिल सके और क्या?... बीते समय को याद कीजिये, उसको आप भूल क्यों जाते हैं? क्या आपने हाल ही का अपना इतिहास पढ़ा है?”
भारत की संविधान सभा में प्रतिनिधित्व, राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक अधिकारों, सुरक्षा और पहचान के आधार पर ‘अल्पसंख्यकों” के सवाल पर अच्छी खासी चर्चाएं हुईं. सभा इस तथ्य से सचेत थी कि वह भारत के मूल प्रश्नों, जिनमें साम्प्रदायिकता एक ज्वलंत सवाल के रूप में उपस्थित था, पर बहस से मुंह न मोड़े. यदि ऐसा होता तो शायद भारत का संविधान नैतिक रूप से उतना मज़बूत न बन पाता, जितना कि वह बन पाया है.
*ये लेखक के निजी विचार हैं.
संविधान सभा में 13 दिसंबर 1946 को भावी संविधान की रूपरेखा-चरित्र और मंशा को स्पष्ट करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने “लक्ष्य-सम्बन्धी प्रस्ताव” प्रस्तुत किया था. जिसमें कहा गया था कि "यह विधान-परिषद भारत वर्ष को एक पूर्ण जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रस्तुत करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक विधान बनाया जाए... जिसमें सभी अल्पसंख्यकों के लिए, पिछड़े हुए और कबाइली प्रदेशों के लिए और दलित और पिछड़ी हुई जातियों के लिए काफी संरक्षण विधि रहेगी." वास्तव में पहले बंगाल के विभाजन और फिर वर्ष 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना से शुरू हुई पृथक निर्वाचन की राजनीति ने भारत में साम्प्रदायिकता की खेती के लिए जमीन को उर्वर बनाया. ब्रिटिश शासन की नीति यह थी कि भारत में हिंदू और मुसलमान के बीच वैमनस्य पैदा करके वे भारत को अपना स्थाई उपनिवेश बनाए रख सकेंगे. ब्रिटेन का उपनिवेश तो भारत नहीं बना, किन्तु साम्प्रदायिकता ने एक नासूर का रूप ले लिए जिससे भारत और पाकिस्तान आज भी जूझ रहे हैं.
आचार्य जे.बी. कृपलानी ने संविधान सभा की शुरुआत के दूसरे दिन सभा के कार्य संचालन-व्यवस्था-दायित्वों की व्यवस्था के लिए एक 15 सदस्यीय समिति बनाने का सुझाव दिया. इस पर डॉ. एम. आर. जयकर ने 10 दिसम्बर 1946 को कहा था कि “एक दल (मुस्लिम लीग) संविधान सभा से गैर-हाज़िर है और यदि उनकी अनुपस्थिति में व्यवस्था बनायी जायेगी, वह उन सेक्शनों पर भी लागू होगी. यह याद रहे कि इस दल के लोग आज मौजूद नहीं है और इसके अलावा वे आपकी कार्यवाही को सन्देश और ईर्ष्या की दृष्टि से देख रहे हैं. वे इस ताक में हैं कि कहीं आप उनके हाथ से कुछ छीन तो नहीं रहे हैं, उनके यहां आने से पहले आखिरी फैसला तो नहीं कर रहे हैं."
इसके बाद 16 दिसम्बर 1946 को श्री जयकर ने कहा कि “मैं अपने प्रस्ताव से उत्पन्न हुई गलतफहमियां दूर कर देना चाहता हूं. किसी ने कहा कि मैं जानबूझ कर मुस्लिम लीग को संतुष्ट करने के लिए ऐसा कर रहा हूं, तो किसी ने कहा कि मैं मिस्टर चर्चिल का समर्थन कर रहा हूं. मैं हिंदू हितों का समर्थक हूं, इसका अर्थ यह नहीं कि मैं दूसरे सम्प्रदाय के उन हितों पर कुठाराघात करूँ, जिन्हें मैं जायज़ समझता हूं. संशोधन उपस्थित करने का मेरा वास्तविक उद्देश्य इस परिषद को नाकाम होने से बचाना है.” डॉ. जयकर ने प्रस्ताव रखा कि “भारत का अपना विधान बनाने के लिए मुस्लिम लीग और देशी रियासतों का सहयोग पाने और इस तरह अपने निश्चय को उग्र बनाने के उद्देश्य से सभा इस प्रश्न पर और आगे विचार करने के लिए स्थगित रखती है, ताकि उपरोक्त दोनों संगठनों के प्रतिनिधि, यदि चाहें, इस सभा की कार्यवाही में हिस्सा ले सकें... कम से कम 20 जनवरी 1947 तक आप कोई अहम काम नहीं करने जा रहे हैं, कम से कम तब तक के लिए तो मुस्लिम लीग के लिए आपको रास्ता साफ रखना चाहिए कि वे यहां आकर हमारी कार्यवाही में हिस्सा लें.”
पंडित नेहरू द्वारा पेश लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव पर अपनी बात कहते हुए पुरुषोत्तम दास टंडन ने कहा कि “ब्रिटेन के साथ हमारे लंबे समय का इतिहास बताता है कि हिंदू-मुस्लिम भेदभाव की सृष्टि अंग्रेजों ने की. हिंदू-मुस्लिम मनमुटाव की समस्या, जिसका राग अंग्रेज अलापते हैं, वह तो उन्हीं की पैदा की हुई चीज़ है. उनके हिन्दुस्तान पधारने से पहले यहां इस मनमुटाव का नामोनिशां नहीं था. दोनों की सभ्यता एक थी और दोनों ही मित्रवत रहते थे. क्या कलेजे पर हाथ रखकर अंग्रेज कह सकते हैं कि वर्तमान भारतीय परिस्थिति को उन्होंने पैदा नहीं किया है? किसी ने ठीक ही कहा है कि वह (मुस्लिम लीग) ब्रिटिश गवर्नमेंट का मोर्चा है. पंडित नेहरू ने अभी उस दिन कांग्रेस में कहा था कि दरमियानी सरकार में शामिल होने वाले लीग सदस्य ब्रिटिश सम्राट की पार्टी की तरह आचरण कर रहे हैं. तथ्य यह है कि लीग को ब्रिटिश हुकूमत की ओर से धोखा दिया जा रहा है. वे हमारे देशवासी हैं, हमारे भाई हैं और हम उनके साथ समझौता करने के लिए हमेशा तैयार हैं.
“भारत में साम्प्रदायिकता की स्थितियों पर भी संविधान सभा में बहुत परिपक्व बहस हुई. इस बहस का आधार यह था कि क्या भारत को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर स्थाई विभाजन के सुपुर्द कर दिया जाना चाहिए? मसविदे में अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए व्यवस्थाएं बनायी गयीं. डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि इस देश के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक, दोनों ही वर्ग एक गलत रास्ते पर चले हैं. बहुसंख्यक वर्ग की यह गलती है कि उसने अल्पसंख्यक वर्ग का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया और इसी प्रकार अल्पसंख्यक वर्ग की गलती यह है कि उसने अपने को सदा के लिए अल्पसंख्यक बनाए रखा. मार्ग ऐसा होना चाहिए कि अल्पसंख्यकों का अस्तित्व मानकर इस सम्बन्ध में आगे बढ़े और साथ ही मार्ग ऐसा भी हो, जिससे कि एक दिन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों ही वर्ग आपस में मिलजुलकर एक हो जाएं.”इस पर मौलाना हसरत मौहानी ने कहा कि “आपने (मसविदा समिति ने) संविधान में लिखा है कि मुसलमानों के लिए 14 फ़ीसदी स्थान आरक्षित रखे जाएं. आप जब तक यह समझते हैं कि आप 86 फ़ीसदी हैं और मुसलमान 14 फीसदी हैं. यह जब तक आप में कम्युनलिज्म है, उस वक्त तक कुछ नहीं हो सकता. आप मुसलमानों को अल्पसंख्यक क्यों कहते हैं? मुसलमान अल्पसंख्यक उस वक्त तक हैं, जब तक आप इनको साम्प्रदायिक शक्ल में पेश करते हैं.” भारत के विभाजन ने साम्प्रदायिकता की खाई को एक तरह से स्थाई रूप दे दिया है. ऐसे में जरूरी है कि भारत के लोग भारत के भीतर के विभाजन को खत्म करने की पहल करें. देश के विभाजन पर महात्मा गांधी और नेहरू की भूमिका पर सवाल खड़े किये जाते हैं. किन्तु 10 अक्तूबर 1949 को संविधान सभा में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जो बात कही थी, उसे समझा जाना चाहिए. इससे स्पष्ट होता है कि भारत का विभाजन कुछ अपरिहार्य स्थितियों की उपज था.
सरदार पटेल ने कहा था कि “मैं आपको अंदरूनी इतिहास बताता हूं, जिसे कोई नहीं जानता. जब हम एक ऐसी अवस्था में पहुंच गए कि हमारा सब कुछ चला जाता, तब मैंने अंतिम चारे के रूप में देश के विभाजन को स्वीकार किया था. सरकार में हमारे पास पांच या छह सदस्य थे, मुस्लिम लीग के सदस्य थे. उन्होंने अपने आपको ऐसे सदस्यों के रूप में स्थापित कर लिया था, जो देश का विभाजन करने के लिए ही आये थे. उस अवस्था में हमने विभाजन के विकल्प को स्वीकार किया था. हमने निर्णय किया कि इस शर्त पर विभाजन माना जा सकता है कि पंजाब का विभाजन किया जाए, वे सारा पंजाब चाहते थे, कि बंगाल का विभाजन किया जाए, वे कलकत्ता और सारा बंगाल चाहते थे. श्री जिन्ना कटा-छंटा पाकिस्तान नहीं चाहते थे, परन्तु उन्हें यह मानना पड़ा. हमने कहा कि इन दो प्रान्तों का विभाजन किया जाना चाहिए. मैंने एक और शर्त रखी कि यदि इस बात की गारंटी दी जाए कि ब्रिटिश सरकार देशी रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी तो दो महीनों की अवधि में सत्ता हस्तांतरण कर दिया जाना चाहिए. हमने कहा हम इस मामले के साथ स्वयं निपटेंगे. इसको हम पर छोड़ दो, आप किसी का पक्ष मत लो. सर्वोपरि सत्ता का अब अंत होने दीजिए, आप प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार से इस मामले को पुनर्जीवित न करें. आप हस्तक्षेप मत कीजिये. हम अपनी समस्या का समाधान कर लेंगे. राजा महाराजा हमारे हैं और हम उनके साथ निपट लेंगे. इस शर्तों पर हमने विभाजन की बात स्वीकार की थी और उन्हीं शर्तों पर दो महीने के भीतर पार्लियामेंट में विधेयक पास किया गया था और सभी तीनों पक्षों ने उस पर सहमति व्यक्त की थी. आप कहते हो कि नेताओं ने ये गारंटियां क्यों दीं? इसलिए दीं कि आपको इसी बात को लेकर अपने नेताओं की आलोचना करने का अवसर मिल सके और क्या?... बीते समय को याद कीजिये, उसको आप भूल क्यों जाते हैं? क्या आपने हाल ही का अपना इतिहास पढ़ा है?”
भारत की संविधान सभा में प्रतिनिधित्व, राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक अधिकारों, सुरक्षा और पहचान के आधार पर ‘अल्पसंख्यकों” के सवाल पर अच्छी खासी चर्चाएं हुईं. सभा इस तथ्य से सचेत थी कि वह भारत के मूल प्रश्नों, जिनमें साम्प्रदायिकता एक ज्वलंत सवाल के रूप में उपस्थित था, पर बहस से मुंह न मोड़े. यदि ऐसा होता तो शायद भारत का संविधान नैतिक रूप से उतना मज़बूत न बन पाता, जितना कि वह बन पाया है.
*ये लेखक के निजी विचार हैं.
ब्लॉगर के बारे में
सचिन कुमार जैननिदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
First published: January 11, 2021, 8:53 PM IST