समान नागरिक संहिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

समान नागरिक संहिता को लागू किया जाना कई सालों से चर्चा में है. संविधान सभा में भी यह विषय चर्चा का केंद्र रहा. संविधान प्रारूप समिति ने अनुच्छेद 35 के रूप में सामान नागरिक संहिता बनाने का प्रावधान रखा था. जवाहर लाल नेहरु, डॉ. बीआर अंबेडकर और केएम मुंशी समान नागरिक संहिता के समर्थक थे लेकिन उन्हें सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सरीखे नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ता था.

Source: News18Hindi Last updated on: March 14, 2023, 11:20 am IST
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समान नागरिक संहिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वर्ष 1835 में पहला विधि आयोग (लॉ कमीशन) की स्थापना की गई. इसके अध्यक्ष लार्ड मैकाले थे.

वास्तव में समान नागरिक संहिता भारतीय समाज में विभिन्न संप्रदायों में परंपराओं और धर्म संबधी पुस्तकों के आधार पर संचालित होने वाले निजी कानूनों का स्थान लेने वाली संहिता है. इनमें मुख्य रूप से विवाह, तलाक/ विवाह विच्छेद, उत्तराधिकार, गोद लेना और भरण-पोषण से संबंधित सार्वजनिक नियम व्यवस्था शामिल हैं. यह जानना जरूरी है कि आखिर समान नागरिक संहिता की जरूरत क्यों महसूस की जाती है? इसकी लगभग 200 साल की एक लंबी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है.


भारत में ब्रिटिश नियंत्रण को व्यवस्थित करने के नजरिए से वर्ष 1833 में चार्टर अधिनियम बनाया गया था. इसी अधिनियम के अंतर्गत वर्ष 1835 में पहला विधि आयोग (लॉ कमीशन) की स्थापना की गई. इसके अध्यक्ष लार्ड मैकाले थे. इसी आयोग ने वर्ष 1837 में एक रिपोर्ट ‘लेक्स लौकी रिपोर्ट’ प्रस्तुत की. हुआ यह था कि एंग्लो-भारतीय लोगों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों की अदालत में यह शिकायतें दर्ज की थीं कि उन पर लागू होने वाले नागरिक कानूनों में स्पष्टता और एकरूपता नहीं है. केवल सुप्रीम कोर्ट के कानूनों में कुछ हद तक स्पष्टता है. तत्कालीन भारत के प्रांतों में ईसाइयों, ब्रिटिश भारतीयों, पारसियों, पुर्तगालियों, अमेरिकियों पर कोई लागू होने वाले कोई कानून नहीं थे क्योंकि भारत एक इकाई नहीं, बल्कि कई रियासतों और साम्राज्यों में विभाजित देश था. और अलग-अलग राज्यों, रियासतों, साम्राज्यों के अपने-अपने कायदे कानून थे या फिर समुदायों के निजी कानून चल रहे थे. न तो कोई विधानसभाएं थीं, न ही संसद; जो एकरूप कानून बनाने के लिए अधिकृत होतीं.


अदालतें उनके पास आने वाले मामलों में संलग्न व्यक्तियों के देशों या उनके पूर्वजों के देशों के मूल कानून के आधार पर निर्णय करती थीं. इस तरह की न्यायिक व्यवस्था बहुत समस्याएं पैदा कर रही थी. कानूनी जटिलता से भरे इस प्रश्न के समाधान की जिम्मेदारी पहले विधि आयोग को सौंपी गई. उस समय भारत के प्रान्तों की अदालतों में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के निजी कानून (पर्सनल लॉ) के आधार पर न्यायिक प्रक्रियाएं संचालित होती थीं. विधि आयोग ने गैर-हिंदुओं और गैर-मुसलमानों पर लागू होने वाले कानूनों की संभावना पर विचार किया और वर्ष 1937 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. इसे की लेक्स-लोकी रिपोर्ट कहा जाता है. इसका मतलब है ‘देश की विधि’.


इसकी पृष्ठभूमि में जाना जरूरी है. 18-19वीं शताब्दी में उपनिवेशवादी शासन व्यवस्था ने अपने नियंत्रण को ‘संस्थागत’ रूप देने के लिए ऐसे कानून बनाने की प्रक्रिया चलाई थीं जो सब पर एक समान रूप से लागू हों. इसी प्रक्रिया में अक्टूबर 1840 में ‘द लेक्स लोकी रिपोर्ट’ आई. लेक्स लोकी यानी देश का कानून या स्थानीय कानून (लॉ आफ द लैंड); जिसमें अपराधों, सबूतों/ साक्ष्यों और अनुबंधों से संबंधित कानूनों में समानता लाने के लिए एक कानून बनाने की अनुशंसा की. लेकिन साथ ही उस रिपोर्ट में यह भी सुझाया गया कि हिंदुओं और मुसलमानों के निजी कानून इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किए जाने चाहिए. ऐसा ही किया भी गया. हिंदुओं, मुस्लिमों के निजी कानून स्थानीय न्यायालयों और पंचायतों में स्वीकार्य रहे यानी उनके आधार पर निर्णय हुए.


आमतौर पर ये कानूनी मामले एक ही समुदाय/ धर्म के दो लोगों के बीच हुआ करते थे. यह तय था कि राज्य ऐसे मामलों में तब ही दखल देगा, जब कोई विशेष स्थिति बने. ब्रिटिश सत्ता ने भारत के लोगों को अपने मामले खुद निपटाने के लिए स्थानीय शासन व्यवस्था चलाने की छूट दी थी. वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद रणनीतिक रूप से वर्ष 1859 में ब्रिटेन की महारानी ने यह घोषणा की थी कि ब्रिटेन की राज व्यवस्था भारत के धर्म समुदायों के ‘निजी मामलों-कानूनों’ में दखल नहीं देगी. इनमें विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और धार्मिक व्यवहार शामिल थे. इसके दूसरी तरफ जमीन, साक्ष्य, अनुबंध और आपराधिक मामले ब्रिटिश शासन के कानूनों से संचालित होते थे.


अब यह बात महत्वपूर्ण रूप से उभरी कि एक संप्रदाय के शास्त्रों में लिखी बात उसके सभी समूहों पर एकरूप से लागू हों, ऐसा भी नहीं होता; मसलन जाट और द्राविड़ समुदायों में टकराव रहा. हिंदू कानून के उलट शूद्रों में विधवा विवाह की अनुमति रही लेकिन ब्रिटिश शासन ने ‘हिंदू कानून’ को अपने निर्णयों का आधार बनाया क्योंकि उन्हें भय था कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगे, तो उन्हें ‘ब्राह्मण प्रभुत्व’ के विरोध का सामना करना पड़ेगा. यह भी समझ आया कि हिंदू कोई एक समान इकाई नहीं है, इसमें कई समुदाय हैं, उनके अपने अपने कानून हैं और हर मामले में अगर हर समुदाय के पारंपरिक कानूनों/नियमों का अध्ययन करेंगे तो न्यायधीश परेशान हो जाएंगे. अतः सहूलियत के लिए एक ही धार्मिक कानून को मान लिया गया.


शरिया कानून ब्रिटिश शासन की व्यवस्था में उतनी गहराई से नहीं लागू हुआ, जितना हिंदू कानून हुआ. ऐसे में शरिया कानून के बजाए पारंपरिक मुस्लिम कानून अपनाए जाने लगे. ये कानून महिलाओं के लिए और ज्यादा भेदभावकारी थे. शरिया कानून महिलाओं के संपत्ति पर अधिकार की भी बात करता है और मेहर/आर्थिक आधार पर व्यवस्थापन की भी; लेकिन पारंपरिक नियम ऐसी व्यवस्था नहीं करते. इसके बाद मुस्लिम समुदाय में दबाव बनने लगा और वर्ष 1937 में शरियत कानून पारित हुआ. लेकिन इसके बाद उसमें भी जरूरी संशोधन नहीं हुए. हिंदू पारंपरिक कानूनों के कारण महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं. इन कानूनों में महिलाओं को उत्तराधिकार, पुनर्विवाह और तलाक के अधिकार नहीं दिए गए. इसके कारण विधवाओं और परित्यक्त महिलाओं और उनकी बेटियों की स्थिति बहुत खराब रही है.


हम जानते हैं कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह के लिए कानून बनवाने की पहल की लेकिन ब्रिटिश शासन के प्रतिनिधियों को भी यह भय सताता था, कि इससे हिंदू समाज के सूत्रधार नेता नाराज हो जाएंगे. कुछ कानूनी सुधार की कोशिशें की जाती रहीं; मसलन विधवा हिंदू पुनर्विवाह अधिनियम 1856, विवाहित महिला की संपत्ति अधिनियम, 1923 और हिंदू उतराधिकार (विसंगतियों की समाप्ति) अधिनियम 1928 बना. इसके साथ की बहुत कठिनाइयों के बाद वर्ष 1865 में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम बना. महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा को संरक्षण देने वाला यह पहला कानून था. भारतीय विवाह अधिनियम 1864 बना, लेकिन यह केवल ईसाई समुदाय पर लागू होता था.


सामाजिक चेतना

अखिल भारतीय महिला परिषद् ने पुरुषों के प्रभुत्व वाली शासन व्यवस्था और विधायिका पर गहरा असंतोष जाहिर किया. परिषद् के वर्ष 1933 के सम्मलेन में लक्ष्मी मेनन ने कहा कि यदि हमें अदालत में तलाक लेना है, तो हमें यह कहना होगा कि हम हिंदू नहीं है, हम हिंदू कानून से बंधे हुए नहीं हैं. पुरुषों के भरी हुई विधान परिषद् कभी भी व्यवस्था में ऐसे बुनियादी बदलाव नहीं आने देगी, जो हमारे लिए (महिलाओं के लिये) लाभदायी होंगे. कांग्रेस के कराची अधिवेशन में भी लैंगिक समानता लाने के लिए समान नागरिक संहिता लाने की मांग की गई थी, जो निजी कानूनों का स्थान ले.


इसके बाद वर्ष 1937 में हिंदू महिला के संपत्ति के अधिकार का कानून बना. जिसे देशमुख बिल भी कहा जाता है. इसके बाद बीएन राऊ समिति गठित हुई. जिसे यह समझना था कि समान हिंदू कानूनों की आवश्यकता क्या है? इस समिति ने भी कहा कि यह वक्त समान नागरिक संहिता को लागू करने का है. यह संहिता महिलाओं को समान अधिकार दिला सकेगी लेकिन इस समिति का उनका ध्यान मुख्य रूप से हिंदू निजी कानूनों में सुधार पर ही था.


भारतीय नागरिकों को विवाह का अधिकार दिलाने के लिए विशेष विवाह अधिनियम वर्ष 1872 में बना था. लेकिन इसके तहत व्यक्ति को अपने धर्म की घोषणा करनी होती थी और केवल इस कानून के तहत हिंदू ही विवाह कर सकते थे. वर्ष 1923 में इस अधिनियम में संशोधन हुआ और इस संशोधन के मुताबिक बौद्ध, सिख और जैन भी विवाह कर सकते थे और उन्हें अपने धर्म की घोषणा करने की बाध्यता नहीं थी.


संविधान सभा में भी यह विषय चर्चा का केंद्र रहा. संविधान प्रारूप समिति ने अनुच्छेद 35 के रूप में सामान नागरिक संहिता बनाने का प्रावधान रखा. जो नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 44 के रूप में शामिल हुआ. सामान नागरिक संहिता बनाने के लिए सरकार को बाध्य नहीं बनाया गया बल्कि इसे एक नीति के विषय के रूप में शामिल किया गया. सभा के कई सदस्य, जिनमें मोहम्मद इस्माइल साहब, नजीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग बहादुर शामिल थे, यह मान रहे थे कि भारत में हर समुदाय के अपने परंपरागत कायदे-नियम हैं. उन समुदायों के लोग उन्हें धार्मिक नियम मानते हैं, ऐसे में यह अपेक्षा करना उचित नहीं है कि बिना उन्हें समझाए सामान नागरिक संहिता आकार ले सकेगी. समाज से संवाद करके ही इसे लागू किया जा सकता है. अतः इस विषय को तत्काल लागू न किया जाए, बल्कि समाज का उन्मुखीकरण करके इसे लागू किया जाए.


जवाहर लाल नेहरु, डॉ. बीआर अंबेडकर और केएम मुंशी समान नागरिक संहिता के समर्थक थे लेकिन उन्हें सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सरीखे नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ता था.


स्वतंत्र भारत की विधान परिषद् और संसद में समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव लाने की कोशिशें हुईं और डॉ. अंबेडकर को इसे प्रस्तुत करना था, लेकिन हिंदू व्यवस्था के प्रति उनकी मुखरता के चलते यह विषय साझा सहमति हासिल नहीं कर पाया. हिंदू कोड बिल पर भी बहुत बहस हुई. डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने इसका विरोध किया. हिंदू कोड बिल का मकसद पारंपरिक कानूनों के कारण पैदा हुए भेदभाव को कम करना था, लेकिन इसे हिंदू विरोधी और भारत विरोधी कहा गया. लम्बी जद्दोजहद के बाद चार कानून वर्ष 1956 में पारित हुए – हिंदू विवाह अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम, माइनोरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट और दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम.


पंथ-निरपेक्षता, नागरिक-व्यक्ति के शोषण से मुक्त होने, व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा के साथ साथ व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा के नजरिए महत्वपूर्ण मानी जाने वाली समान नागरिक संहिता की बात शाहबानो (वर्ष 1985-86) के न्यायिक मामले से फिर से बहस के केंद्र में आई थी. इस बहस का केंद्र मुस्लिम पर्सनल लॉ थे, जिनमें एकतरफा तलाक की अनुमति रही है. इस मामले से यह ‘पहचान की राजनीति’ का विषय बन गया. यह निर्णय पत्नी, बच्चों और पालकों के पालन-पोषण से संबंधित प्रावधान (भारत अपराध संहिता) की धारा 125 के तहत दिया गया था. वर्ष 1986 में मुस्लिम (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम बनाया. इसमें अपराध संहिता के इस प्रावधान को मुस्लिम पहचान के लिए खतरे के रूप में प्रस्तुत किया गया और तत्कालीन भारत सरकार ने संसद में कानून में संशोधन कर दिया कि अपराध संहिता का यह प्रावधान मुस्लिम महिलाओं पर लागू नहीं होगा. तीन तलाक के मसले पर वर्ष 2019 में इसी कानून में संशोधन किया गया है.


समान नागरिक संहिता एक महत्वपूर्ण नीतिगत और संवैधानिक पहल है लेकिन जैसा कि माना जाता रहा है कि इस विषय पर समाज के साथ संवाद होना बहुत जरूरी है. अगर तार्किक ढंग से समानता और गरिमा की दिशा में बढ़ा जाएगा तो निश्चित रूप से इस संहिता को समाज की सहमति से ही आकार देना आसान हो जाएगा.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
सचिन कुमार जैन

सचिन कुमार जैननिदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता

सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.

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First published: March 14, 2023, 11:20 am IST

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