लोकतंत्र एक बेहतर विकल्प इसलिए है क्योंकि जब आपके धर्म, विचार, जाति और व्यापारिक झुंड की सत्ता और शासन नहीं रहेगा, तब भी आप ताकतवर और स्वतंत्र रहेंगे. अगर लोकतंत्र नहीं होगा, तो आपकी गरिमा, स्वतंत्रता और ताकत केवल और केवल भ्रम है.
लोकतंत्र शासन व्यवस्था के उपलब्ध तरीकों में से एक बेहतर विकल्प माना जाता है क्योंकि यह बुनियादी मानवीय मूल्यों के आधार पर पनपता है. जब भारत आजाद हुआ, तब भी सबसे प्रभावी विकल्प तो राजशाही की व्यवस्था के रूप में सामने खडा था. हजारों साल से भारत ने वही व्यवस्था देखी-भोगी थी. लेकिन उस व्यवस्था से भारत ने यह सीखा था कि अगर सौभाग्यवश अच्छा राजा मिल गया तो प्रजा की सुनवाई होगी, नहीं तो राजा अपने भोग-विलास में लीन रहेगा और प्रजा का शोषण करता रहेगा. जनता को कभी भी अपना राजा ‘चुनने’ का अधिकार नहीं मिला था. ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अनुभवों ने यह तो सिखा ही दिया था कि प्रजा थोड़ी या ज्यादा गुलाम ही रहती है, फिर भले किसी भारतीय राजा का शासन हो या फिर ब्रिटिश सम्राट का शासन. तब भारत ने लोकतंत्र की व्यवस्था को चुना. ऐसी व्यवस्था जिसमें सरकार लोगों को गुलाम बनाने के लिए शासन नहीं करती है, बल्कि उसे व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दी जाती है.
लोकतंत्र का मतलब होता है जवाबदेहिता के साथ समाज के हित में समाज के साथ मिलकर निर्णय लेना और उन्हें लागू करना. वैसे तो देश चलाने के लिए कई तरह की व्यवस्थाओं के विकल्प मौजूद रहे हैं. लेकिन उन सबमें लोकतंत्र को सबसे बेहतर व्यवस्था माना गया है क्योंकि इस व्यवस्था में अलग अलग विचारों, मतों, परिस्थितियों को ध्यान में रख कर निर्णय लिए और लागू किए जाते हैं. यह केवल संख्याओं या बहुमत से चलने वाली व्यवस्था नहीं है. बहुमत के निर्णय को लागू करने से पहले यह देखना होता है कि व्यापक समाज के हित में क्या है? कहीं इससे अन्याय तो नहीं हो रहा है? कहीं किसी के साथ भेदभाव या शोषण तो नहीं हो रहा है? लोकतंत्र में मूल्यों, उसूलों, मानकों का सबसे ज्यादा महत्व होता है. अगर बहुमत वाली व्यवस्था मूल्यों से भटक कर निर्णय लेने लगे, तो परिवार, समाज और देश की बहुत नुकसान पहुंचता है.
यदि कोई राजनीतिक दल बहुत सारे बहुमत से सरकार चलाने की जिम्मेदारी लेता है तो इसका मतलब यह तो नहीं होता कि वह देश में औद्योगिकीकरण के लिए ज्यादा से ज्यादा खेती की जमीन का अधिग्रहण कर ले या जंगलों और पहाड़ों की नीलामी कर दे. यह महज राजनीतिक दृष्टिकोण नहीं है, यह नैतिक दृष्टिकोण भी है क्योंकि प्राकृतिक संपदाएं कुछ खास लोगों की ही संपत्ति नहीं होती हैं, बल्कि ये तो केवल इंसानी समाज की संपत्ति भी नहीं होती हैं. ये सभी जीवों की संपत्ति होती हैं. बहुमत की सरकार होने से राजनीतिक दलों को जिम्मेदारी, जवाबदेहिता और मूल्यों का त्याग कर देने का विशेष अधिकार हासिल नहीं होता है.
अगर कोई यह पूछे कि क्या वास्तव में लोकतंत्र सभी को साथ लेने की गारंटी देता है? तब यह तो नहीं ही कहा जा सकता है कि यह व्यवस्था ऐसी कोई गारंटी दे सकती है. लेकिन उपलब्ध व्यवस्थाओं में यह सबसे ज्यादा गारंटी देने वाला विकल्प जरूर है. इसे समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम लोकतंत्र के कुछ बुनियादी सिद्धांतों को जानें. वही लोकतंत्र ज्यादा से ज्यादा गारंटी दे सकता है, जिसमें हर स्तर पर सहभागिता के साथ जवाबदेहिता होती है, जिसमें तर्क और पक्ष के साथ नैतिकता और वैधता भी होती है, जिसमें स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी का दबाव भी होता है. जिसमें विवेक, तर्क और बहस के साथ बंधुता, न्याय, समता, गरिमा के संस्कार भी होते हैं. अगर यह समीकरण पूरा न हो, तो लोकतंत्र की इमारत की दीवारें कमजोर होती जाती हैं.
लोकतंत्र की व्यवस्था का विकल्प अपनाने के मूल में यह सीख है कि डंडे, हिंसा, दबाव या अपमान से हासिल की गई सत्ता तभी तक बनी रह पाती है, जब तक कि दूसरों को ये विकल्प लागू करने के मौके न मिल जाएं. दबाव और हिंसा की राजनीति व्यवस्था में लोगों के विश्वास को तोड़ देती हैं. लोकतंत्र में देश-समाज के लोग अपना योगदान देते हैं, अपनी जिम्मेदारी को महसूस करते हैं, उन्हें किसी दिशा में धकियाने की जरूरत नहीं पड़ती है.
लोकतंत्र में व्यक्ति निष्पक्ष नहीं होता है. उसकी अपनी भूमिका और पक्ष भी होता है. जब अन्याय हो, जब कुछ ऐसा हो रहा हो, जिससे समाज में शोषण, असमानता या वैमनस्यता फैलती हो, तब व्यक्ति को निष्पक्ष नहीं रहना चाहिए. उसे सत्य, न्याय और बंधुता का पक्ष लेना चाहिए और अन्याय, हिंसा और समाज को नुकसान पहुंचाने वाली नीतियों का प्रतिकार करना चाहिए. लोकतंत्र का सिद्धांत व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, तो साथ ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी तय करता है.
जब भारत आजाद हुआ, तब संविधान बनाने वालों ने लोकतंंत्र की व्यवस्था को क्यों चुना? क्योंकि उन्हें पता था कि जितनी विविधता भारत में है, उतनी संभवतः दुनिया के किसी और देश में नहीं है. इस विविधता को सजाने-संवारने और सबके मिलजुल कर रहने के लिए लोकतंत्र ही सबसे बेहतर व्यवस्था मानी गई.
हम अक्सर कहते हैं कि देश-दुनिया में विकास हो रहा है. इसका मतलब यह है कि अब ज्यादा लोग शिक्षा पा रहे हैं, दुनिया के बारे में, दूसरे विचारों के बारे में ज्यादा जान रहे हैं, अब ज्यादा बहस और नवाचार हो रहे हैं. स्वाभाविक रूप से इसका मतलब है कि इन बदलावों से लोग ज्यादा तार्किक भी हो रहे हैं. जब समाज तार्किक होता है, तब केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही समाज का संचालन और व्यवस्थापन किया जा सकता है. तब कोई अन्य पद्धति नहीं चल सकती है. क्योंकि लोग प्रश्न करते हैं, वे स्पष्टता चाहते हैं और सही-गलत का आकलन करने लगते हैं. वे चुप नहीं रहते और विश्लेषण करने लगते हैं.
जब लोकतंत्र में उसूल और मूल्य होते हैं, तब लोकतंत्र ज्यादा वास्तविक और स्वस्थ होता है. अगर समाज या सरकार कुछ गलत करते हैं, तो उन्हें सुधारने का काम भी उन्हीं मूल्यों के आधार पर किया जा सकता है. बहुमत या किसी खास मत के प्रभुत्व के दबाव से नहीं.
लोकतांत्रिक समाज ज्यादा गहरा और स्थिर होता है. अगर कभी देश के ऊपर कोई संकट आता है, तब लोकतांत्रिक समाज इससे निपटने का काम केवल सरकार पर नहीं छोड़ देता है बल्कि लोग खुद भी समाधान खोजने में जुट जाते हैं.
लोकतंत्र की पहली और सबसे बड़ी जरूरत है संवाद. यह एक ऐसा भावनात्मक तत्व होता है, जो लोगों को जोड़ता है. संवाद से ही एक दूसरे के प्रति स्वीकार्यता पैदा होती. जब भी लोकतंत्र को तोड़ना होता है, तब सबसे पहले संवाद को तोड़ा जाता है. कोई भी व्यक्ति जब अपना मत व्यक्त करता है, तब हिंसा से, डर से, भय से, दबाव से उसे अपना मत वापस लेने के लिए मजबूर किया जाता है.
वास्तव में संवाद के लिए एक दूसरे को स्वीकार करना बहुत जरूरी होता है. जब संवाद होता है तो रिश्ते धारणाओं या मिथ्या सूचनाओं के आधार पर नहीं बनते हैं. इसमें अपनापन जरूरी होता है. यह समझ मूल है कि हमारा देश भी तभी बचेगा, जब दुनिया के दूसरे देश बचेंगे, हमारा समुदाय भी तभी खुशहाल और संपन्न होगा, जब दूसरे समुदाय खुशहाल और संपन्न होंगे. हमारे बच्चे भी तभी खुश और सुरक्षित होंगे, जब दुनिया के बच्चे खुश और सुरक्षित होंगे. बंधुत्व लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी तत्व है.
संवाद के लिए तीन संस्कार सबसे जरूरी हैं- सुनना, समझना और महसूस करना. इस प्रश्न का खुद को उत्तर देना चाहिए कि क्या हम बिना झगड़ा किए, बिना अपमान किए, बिना किसी पूर्वाग्रह के किसी की बात, किसी का विचार सुन सकते हैं? आखिरी बार हमने ऐसा कब किया था? दूसरा तत्व है समझना. एक दूसरे के नजरिए को वैसे ही समझना, जैसे वह व्यक्त किया गया है और फिर उसे महसूस करना. महसूस करने का मतलब है कि उस विचार के पीछे की मंशा क्या है, तर्क और परिस्थितियां क्या हैं? यह सोचना कि समाज के हित में क्या है? उस विचार के नैतिक और मानवीय पहलू क्या हैं? इन तीनों चरणों के बाद भी हम उस विचार से असहमत हो सकते हैं, फिर भी उस विचार या व्यक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करना. ये संस्कार ही समाज को लोकतांत्रिक बना सकते हैं.
यही तीन संस्कार सरकारों को भी अपनाना चाहिए. तभी वह लोकतांत्रिक हो सकती है. कोई भी नीति या नियम बनाते हुए सरकार की यह जिम्मेदारी भी है और शासन व्यवस्था का मूल्य भी कि वह निर्णय लेकर लोगों के पास न जाए. उसका निर्णय कितना ही बेहतर क्यों न हो, लेकिन लोगों से संवाद करके ही निर्णय ले. सरकार का काम नीति बनाना है और उस नीति निर्माण की प्रक्रिया में उसे यह स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि इस नीति का उद्देश्य क्या है? इसे लागू करने से किसका हित होगा? इस नीति के खराब पक्ष क्या हैं और इसके क्या दुष्परिणाम होंगे? इस नीति की जिम्मेदारी किसकी है? इन प्रश्नों के उत्तर भी सच्चे और झूठे हो सकते हैं. और यह तय करने का काम समाज करता है.
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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