मतदान (वोट देने) का अधिकार कोई मामूली अधिकार नहीं है, यह एक नागरिक कर्तव्य है. राजनीतिक न्याय का मतलब है राजनीतिक प्रक्रिया में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने, अपना मत व्यक्त करने का अधिकार होना. और हर मत का मूल्य या उसकी ताकत का एक समान होना. भारत ने आजादी के बाद पहले ही दिन से हर महिला को मतदान का अधिकार दिया. चूंकि राजनीतिक व्यवस्थाएं और राज्य व्यवस्थाएं पितृसत्तात्मक चरित्र और विचार के आधार पर गढ़ी जाती रहीं, इसलिए उनमें महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित ही नहीं हुआ.
वर्तमान पीढ़ी ने यह महसूस नहीं किया है, उन परिस्थितियों का सामना नहीं किया है, जब भारत के लोगों को अपनी सरकार बनाने का कोई अधिकार नहीं था, जब ब्रिटेन अपनी नीति बना कर भारत के संसाधनों को समेट कर ले जा रहा था, जब ब्रिटिश सम्राट यह तय करते थे कि भारत के किसान से भारी लगान वसूला जाएगा. भारत के लोगों को अपनी सरकार बनाने का ही अधिकार इसलिए नहीं था क्योंकि भारत उपनिवेशवादी व्यवस्था के अधीन था. भारत के लोग खुद अपनी शासन व्यवस्था तभी बना सकते थे, जब वे उपनिवेशवादी व्यवस्था यानी गुलामी से मुक्त होते. इसका मतलब है कि देश की स्वतंत्रता का संबंध लोगों की स्वतंत्रता और अपनी व्यवस्था के निर्माण के साथ है. देश की स्वतंत्रता के भीतर लोगों की राजनीतिक स्वतंत्रता का मतलब है उन्हें मतदान के माध्यम से अपने प्रतिनिधि और सरकार को चुनने का अधिकार मिलना.
लोकतंत्र और लोकतंत्र में मतदान की व्यवस्था को बहुत मामूली व्यवस्था माना जाता है, किंतु बस कल्पना कीजिए कि हमारे परिवार में जो निर्णय होते हैं, उनमें अगर हमें शामिल न किया जाए तो हमें क्या महसूस होता है? सवाल छोटे या बड़े मसलों पर निर्णय लेने का नहीं है. सवाल हर विषय, हर निर्णय का है. परिवार में भोजन में क्या सामग्री होगी? बच्चे के स्कूल में पालक–शिक्षक बैठक में कौन जाएगा? घर में किस रंग की दीवारें होंगी? बेटे या बेटी का विवाह कैसे होगा? अगर दादा जी बीमार हो गए हैं तो उन्हें कौन से अस्पताल में दाखिल किया जाना चाहिए? अगर कहीं सैर के लिए जाना है, तो कहां और कब जाएंगे? या अगर घर या जमीन खरीदना है, तो कहां और कैसे? क्या इन सब विषयों पर परिवार के लोगों से मत नहीं लिए जाते हैं! जब घर में कोई निर्णय एक व्यक्ति नहीं लेता, जब घर में मतों से निर्णय होते हैं, तब देश और राज्य की व्यवस्था में नागरिकों के मत लिए बिना निर्णय कैसे लिए जा सकते हैं?
पूरी दुनिया में किसी भी राज्य व्यवस्था में लोगों के मतों से निर्णय लेने की व्यवस्था नहीं रही है. गणतांत्रिक व्यवस्थाओं के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए जाने वाले प्राचीन ग्रीस और रोम गणराज्य में भी महिलाओं को मत देने का अधिकार नहीं रहा. एथेंस (ग्रीस) को दुनिया में सबसे शुरूआती लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है, लेकिन वहां महिलाओं को मतदान करने का अधिकार पहली बार वर्ष 1952 में बनाए गए क़ानून के माध्यम से मिला.
दुनिया में सभ्यता और विकास के मायने, नजरिया और पैमाने अगर मापने हैं तो सामाजिक व्यवस्था और लैंगिक पहचान के आधार पर मापे जाने चाहिए. जिन देशों को पिछले 200-300 सालों में सबसे ज्यादा आर्थिक रूप से संपन्न और सामरिक रूप से ताकतवर होते देखा गया है, वहां महिलाओं को शासन व्यवस्था में भाग लेने का कोई अधिकार नहीं रहा.
यह लग सकता है कि इसमें कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन ध्यान रहे कि एथेंस जिसे शुरुआती लोकतांत्रिक व्यवस्था का उदाहरण माना जाता है, वहां भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार 1952 में मिला. अमेरिका जिसने 1787 में अपना लिखित संविधान बनाया, वहां महिलाओं को मतदान का अधिकार 1920 में मिला. यह अधिकार उन्हें आसानी से हासिल नहीं हुआ. अमेरिका में संविधान बनने और लागू होने के कुछ सालों बाद ही वहां महिलाओं ने मतदान का अधिकार यानी अपना राजनीतिक अधिकार हासिल करने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया. प्रदर्शन हुए, टकराव हुए, पीड़ाएं, दर्द और उपेक्षाएं मिलीं. वर्ष 1878 में अमेरिकी कांग्रेस में संविधान में संशोधन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया, लेकिन महिलाओं को मताधिकार वाला संशोधन पारित हुआ 18 अगस्त 1920 को. वर्ष 1868 में अमेरिका के संविधान में चौदहवें संशोधन में मतदाता का मतलब था पुरुष मतदाता. कुल मिलाकर अमेरिका में संविधान निर्माण के 133 साल बाद महिलाओं मतदान का अधिकार मिला. 1920 में भी अश्वेत पुरुषों और महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं मिला. उन्हें यह अधिकार वर्ष 1964 में मिला.
भारत में भी ऐसी राज्य व्यवस्था नहीं रही, जिसमें महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार रहा हो. दुनिया के लोकतंत्र के इतिहास में महिलाओं को हमेशा मतदान के अधिकार से वंचित रखा गया. 19 वीं शताब्दी में पहली बार इस अधिकार के लिए संघर्ष होना शुरू हुआ और पहली बार वर्ष 1893 में न्यूजीलैंड में, वर्ष 1902 में आस्ट्रेलिया में, वर्ष 1906 में फिनलैंड में और वर्ष 1913 में नार्वे में राष्ट्रीय चुनावों में महिलाओं को मतदान करने के अधिकार मिले.
पहले विश्व युद्ध और उसके अनुभवों ने दुनिया में सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर बहुत गहरा असर डाला. वर्ष 1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू होने से दूसरे विश्व युद्ध की वर्ष 1939 की शुरुआत के बीच सोवियत संघ, कनाडा, जर्मनी, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका क्यूबा समेत 28 देशों में महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया गया. महिलाओं को मुख्यतः मतदान का अधिकार केवल स्थानीय निकायों के चुनावों में ही दिए गए थे. बाद के समय में राष्ट्रीय चुनावों में मतदान का अधिकार मिला.
इसी तरह, दूसरे विश्व युद्ध के बाद फ्रांस, इटली, रोमानिया और चीन सरीखे देशों में ये अधिकार दिए गए. भारत में संविधान के माध्यम से देश की स्वतंत्रता की शुरुआत से ही वर्ष 1949 में महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला, जबकि पाकिस्तान में राष्ट्रीय चुनावों में मतदान करने का अधिकार वर्ष 1956 में मिला.
ब्रिटेन में वर्ष 1918 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला, लेकिन उसमें भी भेदभाव था. पुरुषों को 21 साल की उम्र में वोट देने का अधिकार मिला, जबकि महिलाओं को 30 साल की उम्र का होने पर ही वोट देने का अधिकार था. 30 साल की उम्र की केवल वही महिलायें वोट डाल सकती थीं, जिनके पास या तो स्वयं की संपत्ति थी या फिर उनके पति के पास कोई संपत्ति थी. उस संपत्ति का किराया कम से कम पांच पाउंड होना चाहिए था. इसके साथ ही वे भी वोट दे सकते थे, जिन लोगों ने पहले विश्व युद्ध में भाग लिया था, वे 19 साल की उम्र में वोट डाल सकते थे.
भारत चूंकि ब्रिटिश आधिपत्य में रहा, इसलिए सभी महिलाओं को वोटिंग के अधिकार का सबसे पहला मौका संविधान बनाते समय मिला. और संविधान में यह अधिकार महिलाओं समेत सभी वयस्कों को दिया गया. इसके पहले सर्वप्रथम मद्रास प्रेसीडेंसी ने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया. हालांकि तब आय और संपत्ति सरीखी पात्रताएं साथ में जुड़ी हुई थीं.
भारत के संविधान ने स्वतंत्रता हासिल करते हुए अपना संविधान बनाया और सर्वसम्मति से उसमें हर एक वयस्क (21 वर्ष की उम्र या इससे अधिक) को मतदान करने का अधिकार दिया गया. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में पहले से ही लोकव्यापी वयस्क मताधिकार की मांग उठती रही थी. वर्ष 1927-28 में भारतीय राष्ट्रीय कांगेस ने भारत के लिए संविधान का खाका के लिए पंडित मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी. उस समिति की रिपोर्ट को नेहरु रिपोर्ट कहा जाता है. उस रिपोर्ट में भी भारत के सभी वयस्कों को मतदान का अधिकार देने का प्रावधान किया गया था. उन्हीं वर्षों में साइमन कमीशन के सामने डॉ. बीआर अम्बेडकर ने भारत के संविधान में लोकव्यापी वयस्क मताधिकार के प्रावधान को शामिल करने की मांग की थी.
वास्तव में, लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्माण, समाज से शोषण, असमानता और दासता की समाप्ति के लिए यह बेहद जरूरी माना गया कि हर व्यक्ति को मतदान का अधिकार होना चाहिए ताकि वह खुद व्यवस्था के निर्माण और बदलाव में खुद अपनी भूमिका निभा सके. आज वोट देने की भूमिका को तिरस्कार के नजरिए से देखा जाता है, लेकिन मतदान को ही स्वतंत्रता के नज़रिये से यह एक बुनियादी शर्त माना जाता है.
पूरी दुनिया में उपनिवेशवाद, शोषण और दासता पर आधारित शासन व्यवस्थाएं बनीं और लोगों पर शासन करती रहीं. उपनिवेशवाद और दासता का मतलब है – वह शासन व्यवस्था, जहां लोग स्वयं व्यवस्था चलाने वालों का चुनाव नहीं करते हैं और किसी अन्य देश/समाज के समूह अपने नियमों के मुताबिक़ दूसरे देश पर शासन करते हैं. जहां लोकतंत्र नहीं होता और जहां लोगों की गरिमा, इच्छाओं और आकांक्षाओं के लिए कोई स्थान नहीं होता है. क्या मतदान के कर्तव्य के प्रति उपेक्षा का भाव के स्वतंत्रता के प्रति अकर्मण्य होने जैसा नहीं है?
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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