गणेश शंकर विद्यार्थी पुण्‍यतिथि: जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो

Ganesh Shankar Vidyarthi Death Anniversary: आजादी के संघर्ष के दौर के कलम के सिपाहियों की बात करें तो दिमाग में सबसे पहला नाम कानपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार 'प्रताप' का आता है, इसके संपादक, पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी का आता है. वे देश के लोगों को एकता के सूत्र में जोड़े रखने और सांप्रदायिक सद्भाव के प्रबल हामी थे. अंतत: अपने इसी पवित्र मिशन के लिए ही उन्‍होंने छोटी सी उम्र में अपने प्राणों की आहूति दे दी.

Source: News18Hindi Last updated on: March 25, 2023, 1:31 pm IST
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गणेश शंकर विद्यार्थी पुण्‍यतिथि: जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो
गणेशशंकर विद्यार्थी जब महज सोलह बरस के थे तभी उन्‍होंने 'हमारी आत्‍मोसर्गता' नामक किताब लिख डाली थी.

स्‍वाधीनता आंदोलन की लड़ाई अनेक हथियारों से लड़ी गई. अहिंसा सबसे मारक और ताकतवर हथियार था और भारत को आजादी दिलाने का सबसे ज्‍यादा श्रेय गांधी के इस अचूक हथियार को सर्वाधिक दिया जाता है. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सहित उनके क्रांतिकारी साथियों को भी आजादी की लड़ाई के दिलेर सैनिकों के तमगे से बराबर नवाजा जाता है. एक और हथियार था जिसने स्‍वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के छक्‍के छुड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उस हथियार को ‘कलम’ के नाम से पुकारा जाता है. इसकी मारक क्षमता बेमिसाल है, कल भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी.


उस दौर के कलम के सिपाहियों की बात करें तो दिमाग में सबसे पहला नाम कानपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘प्रताप’ का आता है, इसके संपादक, पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी का आता है. विद्यार्थी की पहचान ऐसे पत्रकार की थी जिन्‍होंने अखबार को आजादी की लड़ाई के ऐसे हथियार के रूप में विकसित किया, जिसने अंग्रेजों की नाक में नकेल कसने का काम किया. उर्दू के मशहूर शायर और लेखक अकबर इलाहाबादी, जिनके शेर स्‍वतंत्रता संग्राम के दौरान खासे चर्चित रहा करते थे, अखबार की अहमियत यूं बयां करते हैं –


‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो.’


अकबर इलाहाबादी की शायरी यूं तो बहुत मार्के की बात कहती है, लेकिन इसे वास्‍तविकता के धरातल पर उतारना आसान नहीं था. जिस दौर में विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ का प्रकाशन किया, उस दौर में तो बिलकुल नहीं. ये समय अंग्रेजों के क्रूर शासन के चरमोत्‍कर्ष का दौर था, जहां ‘तोप’ आग उगलने को बेताब रहती थी और फांसी के फंदे लिए जल्‍लाद के हाथ गर्दनों की तलाश में गली-मोहल्‍ले भटकते रहते थे. ऐसे दौर में उस शासन के खिलाफ कलम चलाना, तलवार की धार पर चलने जैसा था. तब शासक खुद ही फरियादी हुआ करता था, वकील भी वही था और जज भी वही. ऐसे समय कलम को तलवार की शक्‍ल देकर, दुश्‍मन की आंख में आंख डालकर ललकारना हर किसी के बस की बात नहीं थी. इसीलिए तो गणेश शंकर विद्यार्थी होना भी आसान नहीं था.


विद्यार्थी महज पत्रकार तो थे नहीं, साहित्‍यकार, समाजसेवी और स्‍वतंत्रता सेनानी भी थे. देश के लोगों को एकता के सूत्र में जोड़े रखने और सांप्रदायिक सद्भाव के प्रबल हामी भी. अंतत: अपने इसी पवित्र मिशन के लिए ही उन्‍होंने छोटी सी उम्र में अपने प्राणों की आहूति दे दी. 25 मार्च 1931 को जिस समय उन्‍होंने मौत को गले लगाया तब वो महज 41 बरस के थे. जन्‍म दिनांक थी 26 अक्‍टूबर 1890. कानपुर उनकी और उनके अखबार ‘प्रताप’ की कर्मस्‍थली थी. 1931 में वहां हिंदु-मुस्लिम दंगों ने विकराल रूप ले लिया. अपने ही शहर में दंगे जब चरम पर हों तो गणेश शंकर विद्यार्थी चुप कैसे बैठ सकते थे. सो, अपनी जान की परवाह न करते हुए निर्दोंष लोगों को बचाने और दंगे खत्‍म करने के लिए वे दंगाईयों के बीच कूद पड़े. अंतत: एक हिंसक भीड़ के हथियार का शिकार होकर शहादत को प्राप्‍त हुए. हालात ये थे कि उनका शव अस्‍पताल में लाशों के बीच गुम हो गया था. वह इतना फुल चुका था कि मुश्किल से पहचाना गया. 29 मार्च को उनका अंतिम संस्‍कार हुआ.


प्रयाग उत्‍तरप्रदेश में जन्‍मे गणेशशंकर विद्यार्थी का पारिवारिक बैकग्राउंड लेखन या पत्रकारिता का नहीं था. फिर भी उनकी लेखन प्रतिभा कम उम्र में ही परवान चढ़ गई थी. जब वो महज सोलह बरस के थे तभी उन्‍होंने ‘हमारी आत्‍मोसर्गता’ नामक किताब लिख डाली थी. 21 बरस के हुए तो भारत की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्‍वती’ (संपादक – महावीर प्रसाद दि्वेदी) में उनका पहला लेख प्रकाशित हो गया. उनकी प्रतिभा से प्रभावित द्विवेदी जी ने 1911 में अपनी संपादकीय टीम में सहायक के रूप में जगह दे दी. लेकिन वे यहां ज्‍यादा नहीं टिके और ‘अभ्‍युदय’ में सहायक संपादक बन गए. यहां भी ज्‍यादा नहीं रहे. विद्यार्थी उनका उपनाम था. उनका जन्‍म एक कायस्‍थ परिवार में हुआ था. उनके पिता जयनारायण ग्‍वालियर रियासत में मुंगावली के एक स्‍कूल में हेड मास्‍टर थे. गणेश शंकर की शुरूआती पढ़ाई भेलसा (अब विदिशा) में, उर्दू में हुई. बाद में उन्‍होंने इलाहाबाद की कायस्‍थ पाठशाला में दाखिला लिया. उनका झुकाव शुरू से ही पत्रकारिता की तरफ था इसी के चलते साप्‍ताहिक ‘कर्मयोगी’ में पंडित सुंदरलाल के संपादकीय सहयोगी बन गए. कानपुर के करेंसी ऑफिस में नौकरी की लेकिन अंग्रेज अधिकारियों से पटरी नहीं बैठी, सो उसे छोड़कर अध्‍यापन भी किया. इस दौरान लेखन कार्य जारी रहा और अंतत: 9 नवंबर 1913 से कानपुर से अखबार ‘प्रताप’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ.


सात वर्ष बाद 1920 में ‘प्रताप’ साप्‍ता‍हिक से दैनिक हुआ. ‘प्रताप’ शुरू से ही किसानों, मजदूरों और आंदोलनकारियों का हिमायती अखबार था. आम लोगों के कष्‍टों पर इसकी कलम खूब चलती थी इसीलिए गणेश शंकर विद्यार्थी अंग्रेजों की आंखों में चुभा करते थे. सो, बार-बार जेल भेजे गए. जेल में भी उनकी कलम शांत नहीं रही और उन्‍होंने सलाखों के बीच विक्‍टर ह्यूगो के दो उपन्‍यासों ‘ला मिजरेबिल्‍स’ और ‘नाइंटी थ्री’ का अनुवाद कर डाला. इस दौरान वे स्‍वतंत्रता संग्राम में भी बढ़-चढ़कर भाग लेते रहे. गणेश शंकर गांधी जी के अनुयायी और अहिंसा के कट्टर समर्थक थे. लेकिन साथ ही क्रांतिकारियों को भी उनका सहयोग और समर्थन बराबर मिलता रहा.


बात पत्रकारिता के पितामह और पुरोधा की चल रही है सो चलते-चलते बात आज के अखबार की भी कर लें. भले ही हम इंटरनेट के युग में जी रहे हैं जहां खबरों के लिए सुबह के अखबार का इंतज़ार नहीं करना पड़ता. लेकिन फिर भी अखबार की अहमियत खत्‍म नहीं हुई है. किसी ने कहा है,


‘घर में अखबार भी अब किसी बुज़ुर्ग सा लगता है, जरूरत किसी को नहीं, जरूरी फिर भी है.’


विद्यार्थी का अखबार ‘प्रताप’ किसानों और मज़दूरों का पक्षधर था, सो एक शायर का एक शेर और:


सो जाते हैं फ़ुटपाथ पर अखबार बिछाकर,

मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
शकील खान

शकील खानफिल्म और कला समीक्षक

फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.

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First published: March 25, 2023, 1:31 pm IST