जान पर खेलकर भाया न कोई खेल हमें …
स्वतंत्रता आंदोलन के जांबाज क्रांतिकारियों को बिस्मिल की इन लाइनों की तरह ऐसे खेल हमेशा से भाते रहे हैं, फिर चाहे वो अलीपुर की जेल हो या फिर कामागाटा मारू जहाज का क्रांतिकारी सफर. जज़्बा हर जगह जान पर खेलकर देश को आजाद कराने का ही रहा.
‘कामागाटा मारू’ इंसीडेंट 23 मई 1914 में हुआ था. चंद बरस पहले ये फिर चर्चा में आया, जब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कनाडा की संसद में 20 मई, 2016 को एक सदी पुरानी इस घटना के लिए खेद व्यक्त किया, माफी मांगी. उन्होंने संसद में कहा कि ‘आज मैं कनाडा सरकार की ओर से कामागाटा मारू इंसीडेंट के लिए माफी मांगता हूं. एक सदी पहले यह अन्याय हुआ था. इसमें दो राय नहीं कि कनाडा का तत्कालीन कानून इसके लिए जिम्मेदार था. उस घटना और उसके कारण बाद में हुईं मौतों के लिए हमें दुख है.’
2014 में भारत सरकार ने इस घटना की याद में सौ रुपए का सिक्का जारी किया था.
लाख टके का सवाल ये है कि ‘कामागाटा मारू’ है क्या और इसका आज की तारीख से क्या लेना देना है? देश इन दिनों आज़ादी के आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. आजा़दी के आंदोलन में गदर पार्टी का खासा रोल रहा है और इसका जि़क्र भी होता रहा है. इन सभी बातों का ‘कामागाटा मारू’ ये सीधा संबंध है. 23 मई वो तारीख है जब ये जहाज कनाडा के बैंकुवर तट पर पहुंचा था और उसे कनाडा की सीमा में दाखिल होने से रोक दिया गया था क्योंकि उस पर भारतीय नागरिक सवार थे. यह अलग बात है कि कनाडा में इस समय भारतीय मूल के 14 लाख से भी ज्यादा लोग निवास करते हैं लेकिन लगभग 108 साल पहले हालात ऐसे नहीं थे.
चूंकि ‘कामागाटा मारू’ कम सुना गया नाम है और यह घटना भी लाईम लाईट में उतनी नहीं है जितनी आज़ादी के आंदोलन की दूसरी घटनाएं हैं. ऐसा इसलिए भी कि यह घटना आज़ादी के आंदोलन से सीधे नहीं जुड़ी है. सो इसे समझने के लिए शुरू से शुरू करना पड़ेगा.
‘कामागाटा मारू’ दरअसल पानी और भाप के इंजन से चलने वाला कोयला ढोने वाला एक जापानी जहाज था. हांगकांग में रहने वाले एक कारोबारी और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल गदर पार्टी के क्रांतिकारी नेता गुरदीत सिंह ने इसे पहले तो किराए पर लिया. फिर इसे यात्री जहाज में तब्दील किया. और फिर हांगकांग से कनाडा के लिए रवाना हुए. इस जहाज में 376 यात्री सवार थे जिनमें 340 सिख, 24 मुस्लिम, 12 हिंदु और बाकी ब्रिटिश थे. बता दें उस दौरान भारत और हांगकांग दोनों ही ब्रिटिश शासन के अधीन थे. 23 मई 1914 को जब जहाज कनाडा के बैंकुवर (ब्रिटिश कोलंबिया) बंदरगाह पर पहुंचा. अलग-अलग कानूनों का हवाला देकर उसे तट पर ही रोक दिया गया. जहाज पूरे दो महीने समुन्दर में खड़ा रहा. इस बीच यात्रियों के लिए बीच-बीच में खाने-पीने की सप्लाई भी रोकी गई. आजादी के दीवानों को भूख-प्यास से तड़पने के लिए छोड़ दिया गया.
हुआ यूं था कि कनाडा में अप्रवासी भारतीयों को आने से रोकने के लिए एक कानून बनाया गया था – कंटीन्युअस पैसेज एक्ट. यानि समुद्र में बिना रुके कोई जहाज अगर सीधे कनाडा के तट पर पहुंचता है तो उसे ही कनाडा में दाखिल होने की परमीशन दी जाएगी.
उलझन ये थी उस दौर मे भारत से समुद्री मार्ग से सीधे कोई जहाज कनाडा नहीं जाता था. कनाडा जाने के लिए भारत से हांगकांग, बर्मा और शंघाई होकर जाना पड़ता था. इस समस्या का तोड़ गुरदीत सिंह ने ये निकाला कि जहाज हांगकांग से रवाना हुआ और कनाडा पहुंचा. यह कनाडा के उस हिस्से में पहुंचा था जहां ब्रिटिश शासन था. लेकिन कनाडाई सरकार को कुछ भी स्वीकार नहीं था. ‘कामागाट मारू’ को कानून का हवाला देकर कनाडा में दाखिल होने से रोक दिया गया था. जहाज के डॉक्टर और 20 कनाडाई नागरिकों सहित सिर्फ 24 लोगों को कनाडा में एंटर होने की परमीशन दी गई थी.
सवाल ये है कि जब पता था कि कनाडा का कानून देश में घुसने की इजाज़त नहीं देता तो फिर गुरदीत सिंह ने इतनी मेहनत करके कनाडा जाने की कोशिश ही क्यों की ? दरअसल हुआ यूं था कि साल 1913 में कनाडा के सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम जजमेंट दिया था. कोर्ट ने ऐसे 35 भारतीयों को देश में घुसने का अधिकार दे दिया था जो सीधे भारत से नहीं आए थे. इस फैसले से उत्साहित होकर ही गुरदीत ने कनाडा जाने का निर्णय लिया.
4 अप्रैल 1914 को चला ये जहाज पूरे दो महीने कनाडा के तट पर खड़ा रहा. अंतत: 23 जुलाई 1914 को कनाडा की नौ सेना द्वारा इसे बलपूर्वक वापस लौटा दिया गया. लगभग पांच महीने समुद्र में भटकने के बाद जहाज 29 सितंबर को कोलकाता के बजबज बंदरगाह पहुंचा. लेकिन यहां पहुंचकर भी इसके यात्रियों को सुकून नहीं था.
गुरदीत सिंह के तार चूंकि गदर पार्टी से जुड़े हुए थे. और गदर पार्टी अंग्रेजों की आंख की किरकिरी थी. बताते चलें गदर पार्टी का गठन 1913 में अमेरिका और कनाडा में भारतीयों ने किया था. उद्देश्य था भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराना. सो बजबज बंदरगाह पर जब जहाज पहुंचा तो बाबा गुरदीत सिंह और उनके साथियों की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज पुलिस जहाज पर पहुंच गई. अंग्रेज सिपाहियों का विरोध स्वाभाविक था, हुआ भी. गम्भीर झड़प हुई और फलस्वरूप गोलीबारी भी. 19 लोग मारे गए. बहुत सारे अरेस्ट हुए पर नेतृत्व कर रहे गुरदीत सिंह साथियों के साथ भागने में सफल रहे.
कामागाटा मारू की घटना पर बहुत हंगामा हुआ. जांच के लिए समिति बनाई गई. लीपापोती भरी रिपोर्ट पेश भी की गई. क्रांतिकारी और जत्थे के मुखिया गुरदीत सिंह अपनी किताब में लिखते हैं-
‘हम सभी प्रार्थना के लिए इकट्ठा हुए थे तभी एक पुलिस वाले ने बीच में घुसकर लाठी चलाई. उसे ग्रंथ साहिब तक पहुंचने से रोका गया तभी एक अन्य पुलिस वाले ने बिना चेतावनी गोली चला दी.’
इस घटना ने आज़ादी के आंदोलन को भड़काने में चिंगारी का काम किया. देश के लोगों का गुस्सा ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ चरम पर पहुंच गया और इसने आज़ादी की लड़ाई को प्रचंड रूप दे दिया.
बात करिश्माई भारतीय क्रांतिकारी भगत सिंह के आदर्श करतार सिंह सराभा की. सराभा खुद भी एक करिश्माई क्रांतिकारी थे जिनके तार सीधे तो नहीं लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर ‘कामागाटा मारू इंसीडेंट’ से जुड़े हुए हैं. वे गदर पार्टी के सदस्य थे और जब उन्होंने गदर पार्टी को ज्वाइन किया तब उनकी उम्र महज 15 बरस की थी. उन्होंने इसी उम्र से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी. 16 नवंबर 1915 में लाहौर की सेंट्रल जेल में उन्हें फांसी दे दी गई. उनका जुर्म था स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना. उस समय उनकी उम्र महज 19 बरस थी. भगत सिंह को 23 साल की उम्र में फांसी दी गई थी. अद्भुत संयोग यह है कि करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई को हुआ था. ‘कामागाटा मारू’ घटनाक्रम की तारीख से महज एक दिन बाद की तारीख को, 1896 में.
इस घटना पर निर्माता-निर्देशक राजबंस खन्ना ने 1974 में एक हिंदी फिल्म बनाई थी ‘जीवन संग्राम’. फिल्म पूरी यात्रा को दिखाने के बजाए जहाज के भारत लौटने के बाद की घटनाओं को काल्पनिक अंदाज़ में बयां करती है. इसमें शशिकपूर, राधा सलूजा, ओम शिवपुरी, मनमोहन, असित सेन, इफ्तेखार और जलाल आगा ने अदाकारी की थी. पटकथा और संवाद गुलज़ार और कमर जलालाबादी ने लिखे थे.
चलते-चलते राम प्रसाद बिस्मिल की कविता की कुछ लाईनों को गुनगुनाते चलें …
न मयस्सर हुआ राहत में कभी मेल हमें,
जान पर खेल के भाया न कोई खेल हमें,
एक दिन को भी न मंज़ूर हुई बेल हमें,
याद आएगी अलीपुर की बहुत जेल हमें,
लोग तो भूल ही जाएंगे इस अफसाने को …
हैफ़ (हाय) जिस पे कि हम तैयार थे मर जाने को ….
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.
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