तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था.
इंकलाब और रूमानियत का क्लॉसिक रूप अगर किन्हीं दो लाइनों में देखना हो तो शायर मजाज़ की ये लाईनें सुन लीजिए, गुनगुना लीजिए. नौजवान खातून के आंचल के पीछे छिपे खूबसूरत हुस्न के दीदार का ख्वाहिशमंद शायर उससे इंकलाबी अंदाज़ में कह रहा है कि तू अपने माथे से आंचल उठाकर उसे परचम यानि झंडा बना ले. बरसों पहले लिखी हुई ये लाइनें आज भी मौजूं हैं, हमसे आज भी रिलेट करती हैं.
इसे विडंबना ही कहेंगे कम लिखकर भी बहुत ज्यादा पसंद किया जाने वाला ये शायर अपनी लाइफ में तीन बार नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हुआ क्योंकि उसकी शायरी को वो तवज्जो नहीं मिल रही थी जिसकी वो हकदार थी. उनकी शायरी का सही मूल्यांकन नहीं किया जा रहा था. हां, पहली बार का नर्वस ब्रेकडाउन जरूर बेरोजगारी और भविष्य की अनियमितता को लेकर था.
‘नौ-जवान ख़ातून से’ शीर्षक वाली अपनी गजल के सहारे महिलाओं से मुख़ातिब शायर असरार-उल-हक मजाज़ उर्फ मजाज़ लखनवी इंकलाबी आग्रह करते हैं:
तिरी नीची नज़र ख़ुद तेरी इस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था.
(इस्मत यानि शील सतीत्व, नश्तर यानि चीर-फाड़ करने वाला छोटा चाकू)
इसी ग़ज़ल के एक शेर में वो कहते हैं:
दिल-ए-मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल
तू आंसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
(मज़रूह यानि घायल)
परचम वाला शुरूआती शेर भी इसी गज़ल से है.
‘मजाज़’ शराबी थे, खूबसूरत भी बहुत थे और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ा करते थे. तभी से शायरी भी किया करते थे. नौजवान इनकी शायरी और इनकी पर्सनालिटी के दीवाने हुआ करते थे, लड़के भी और लड़कियां भी. लड़कियों का तो कहना ही सुना है वो उनके दिलों की धड़कन थे, उनकी किताबों में मजाज़ की फोटो हुआ करती थी.
शराबखोरी की लत उनकी हालात के लिए और नर्वस डाउन के लिए बहुत कुछ जिम्मेदार थी. इसी के चलते बहुत ही कम उम्र में उनकी मौत हो गई थी. उन्हें अपनी बहनों से बहुत मोहब्बत थी. खासतौर पर साफिया से. आमतौर वो शराब पीकर घर नहीं आते थे. एक बार वो नशे की हालत में घर आ गए. उस दिन साफिया और मजाज़ अपने-अपने कमरों में रात भर रोते रहे. उसके बाद मजाज़ ने कसम ली कि आज के बाद न तो शराब पीकर घर आएंगे और न ही कभी घर में पिएंगे.
मजाज़’ इक बादा-कश (शराबी) तो है यकीनन
जो हम सुनते थे वो आलम (हाल) नहीं है.
बहन साफिया शायर जां निसार अख्तर की पत्नी थीं और फिल्म राइटर और गीतकार जावेद अख्तर की मां. यानि मजाज़ जावेद साहब के सगे मामा थे. अपने शैशव काल में मजाज़ को नींद नहीं आती थी इसलिए उनकी बहनें (साफिया और हमीदा) उन्हें जगन भईया कहकर बुलाती थीं. उनके भाई अंसार हरवानी जर्नलिस्ट थे.
मजाज़ का जन्म बाराबंकी के रूदाली में हुआ था. तब शायद बाराबंकी जिला नहीं रहा होगा. बहरहाल, जमींदार और कुलीन परिवार से ताल्लुक रखने वाले उनके पिता चौधरी सिराज-उल-हक अपने गांव के संभवत: पहले व्यक्ति थे जिन्होंने एलएलबी की डिग्री ली थी. ये अलग बात है कि उन्होंने वकालत करने की जगह सरकारी नौकरी को प्राथमिकता दी. इसी के चलते ‘मजाज़’ की शिक्षा पहले रूदाली और आगरा में हुई और बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में. जहां उनका वक्त मुशायरों और संगीत की महफिलों में ज्यादा गुज़रता था. 1931 में ही उन्हें कॉलेज के मुशायरे में बेहतरीन ग़ज़ल पर गोल्ड मेडल मिल गया था. संभवत: इसी के चलते वो लड़कियों के दिलों की धड़कन बने.
बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तिरी ज़ुल्फों का पेच-ओ-ख़म नहीं है.
19 अक्टूबर 1911 में जन्म लेने वाले और चवालीस साल की कम उम्र में (5 दिसंबर, 1955) में फानी दुनिया को अलविदा कह देने वाले शायर के समकालीन शायरों में फैज़ अहमद फ़ैज़, फानी बदायूंनी, जज़्बी, मखदूम, साहिर लुधियानवी, इस्मत चुगताई और अली सरदार जाफरी जैसे नामचीन शायर शामिल थे. इन सभी से उनके घनिष्ठ दोस्ताना ताल्लुकात थे. जोश और फिराक उनको बखूबी जानते थे.
मजाज़ की क्रांतिवादिता और कवित्व के बारे में सुप्रसिद्ध शायर फैज़ अहमद फ़ैज़ लिखते हैं:
‘मजाज़ की क्रांतिवादिता आम शायरों से अलग है. मजाज़ क्रांति का प्रचारक नहीं, क्रांति का गायक है. उसके नग्मों में बरसात के दिन सी आरामायक शीतलता है और वसंत की रात सी उष्णता और प्रभावोत्पादकता भी.’
मजाज़ को उर्दू शायरी का जॉन कीट्स कहा जाता है. जॉन कीट्स अंग्रेजी भाषा के रोमांटिक कवि थे. उन्होंने रूमानियत को अंग्रेजी साहित्य में नए आयाम दिए. कीट्स बहुत कम उम्र में दुनिया से कूच कर गए थे. नोटेबल कोट है, ‘सौंदर्य ही सत्य है, सत्य ही सौंदर्य – पृथ्वी और आप बस इतना ही जानते हैं और आपको बस इतना ही जानना है.’ हमारे यहां तो पहले ही कहा जाता रहा है -सत्यम् शिवम् सुंदरम्.
मजाज़ की शायरी से कुछ चुनिंदा मोती:
कुछ तुम्हारी निगाह काफि़र थी, कुछ मुझे खराब होना था
एक और शेर
मिरी बरबादियों का हम-नशीनों,
तुम्हें क्या खुद मुझे भी ग़म नहीं है.
(हम-नशीनों – कंपेनियन्स, एसोसिएट्स)
शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूं
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ए वहशत-ए-दिल क्या करूं.
(नाशाद – अवसादग्रस्त)
ये (ऊपर) मजाज़ की सबसे मशहूर नज़्म ‘आवारा’ से लिया गया एक पीस है. यह गज़ल को 1953 में फिल्म ‘ठोकर’ का हिस्सा बनी. इसे तलत मेहमूद ने स्वर दिया था. फिल्म में शम्मी कपूर नायक थे. ‘आवारा’ ग़ज़ल का एक और अंतरा:
झिलमिलाते कुमकुमों की राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर रखी हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या क्या करूं
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं.
समकालीन कहते थे, मजाज़ जीता ही मरने के लिए, वो जीया ही मरने के लिए.
जिंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम
जि़ंदगी है तो गुनहगार हूं मैं.
चलते-चलते उनकी कुछ पंक्तियां और
वो मुझ को चाहती है और मुझ तक आ नहीं सकती
मैं उसको पूजता हूं और उसको पा नहीं सकता.
ज़बां पर बे-खुदी में नाम उसका आ ही जाता है
अगर पूछे कोई ये कौन है बतला नहीं सकता.
कहां तक किस्स-ए-आलाम-ए-फ़ुर्क़त मुख़्तसर ये है
यहां वो आ नही सकती, वहां मैं जा नहीं सकता.
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.
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