सैयद हैदर रज़ा: 60 साल पेरिस में रहकर भी हिंदुस्तान से ही जोड़ रखा दिल

मशहूर चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की सौवीं वर्षगांठ के मौके पर विशेष.
एक बच्चा अपनी स्टडी पर फोकस नहीं कर पाता था. उसके टीचर ने ब्लैक बोर्ड पर एक बिंदु बनाया और बालक से इस पर ध्यान देने को कहा. उस एकाग्र अध्ययन और बिंदु ने बरसों बरस बाद चित्रकार बन चुके इस बालक के जीवन में पुन: प्रवेश किया और अनूठी चित्र रचना सीरीज़ का उदय हुआ, चित्रकार का पुनर्जन्म भी. उसकी कला ने दुनिया भर के कला जगत में अपनी धाक जमा दी. यह चित्रकार थे सैयद हैदर रज़ा, जो चित्रकला के क्षेत्र में अपनी खुद की गढ़ी यूनिक लैंग्वेज और अपनी अलग स्टाइल के लिए जाने जाते हैं.
बिंदु को अस्तित्व और रचना केन्द्र मानने वाले रज़ा ने अस्सी के दशक में बिंदु की शुरुआत कर अपनी विषयगत कृतियों में नए प्रयोग किए जो त्रिभुज के इर्द गिर्द थे. हैरिंगबोन त्रिकोण, नीली रौशनी से सजे उनके चित्र असाधारण अनुभवों का साक्षात्कार कराते हैं.
वे 60 साल पेरिस में रहे फिर भी देश से जीवंत संबंध बनाए रखे हैं; वे कहते थे, ‘मैं अपनी भाषा नहीं भूला हूँ. हां ये जरूर है कि पैरिस में हिंदी बोलने का अवसर कम मिलता है. मगर मैं हिंदी किताबें पढ़ता रहता हूं, भारतीय मित्रों से मिलता रहता हूं, बातें करता रहता हूं और मेरे दिल में हमेशा भारत रहा है. मैं विदेशी नहीं हूं और ना ही बनना चाहता हूं. हां मैं दुनिया भर से नोबल आइडिया ज़रूर लाना चाहता हूं, लेकिन अपनी संस्कृति और अपनी पहचान को नहीं भूलना चाहता.’
इसीलिए रज़ा 60 साल विदेश में रहने के बाद भी वे भारतीय नागरिक ही रहे. उनका जन्म 22 फरवरी 1922 को ओर मृत्यु 23 जुलाई 1916 को हुई.
‘बरसात का मौसम था और बहुत ही दुर्गम स्थान था यह गांव. आवागमन के साधन थे नहीं, पुल नहीं था नदी पार करते हुए नौ किलो मीटर पैदल यात्रा करके, कैमरा साथ में है पूरा सामान, साथ में उनके दो और साथी थे. हमारे विद्यालय में पहुंचते हैं वो हमारे विद्यालय में आने के बाद प्रवेश द्वार पर ही साष्टांग प्रणाम करते हुए एक मिनट वहीं धरती पर लेटे रहते हैं. फिर बैठकर वहां की मिट्टी को उठाकर अपने माथे पर लगाते हैं, अपने शरीर पर लगाते हैं.’सैयद हैदर रज़ा ये कहते थे, ‘मैं फ्रांस इसलिए गया क्योंकि इस देश ने मुझे चित्रकला की तकनीक और विज्ञान की शिक्षा दी. फ्रांस के सिजेन जैसे श्रेष्ठ कलाकार चित्र निर्माण का रहस्य जानते थे, लेकिन मेरे फ्रांसीसी अनुभव के बावजूद मेरे चित्रों का भाव सीधे भारत से आता है.
अपने बचपन और मंडला का जि़क्र करते हुए वे कहते हैं,
लंबे समय तक फ्रांस, पेरिस और यूरोप में समय बिताने वाले अपनी ज़मीन को कभी नहीं भूले. रज़ा अपने शिक्षकों का और मंडला और दमोह का जि़क्र हमेशा करते रहे हैं. दमोह के हाई स्कूल के शिक्षक दरयाब सिंह राठौर को वो श्रेय देते हैं कि उन्होंने ही रज़ा को कला की तरफ जाने को प्रेरित किया. प्राईमरी स्कूल में पढ़ाने वाले गुरू बेनी प्रसाद स्थापक के बारे में प्रेम से बताते हुए वे कहते थे. ‘वे हिमालय के आश्रम जाते थे वहां से लौटकर हमें बहुत अच्छी शिक्षा देते थे, बहुत सुंदरता से कहते थे.‘हे मानुष रख पग पंकज पर ध्यान.’
मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के बावरिया ग्राम में जन्मे रज़ा की प्राथमिक शिक्षा मंडला जिले में हुई. हाई स्कूल की शिक्षा दमोह में. नर्मदा के किनारे पले बढ़े रज़ा नर्मदा नदी के प्रति हमेशा श्रदधानत नज़र आए बातचीत और में भी व्यवहार में भी. अपनी हाई स्कूल के पढ़ाई के बाद वो नागपुर चले गए चित्रकला सीखने. यहां उन्होंने नागपुर कला महाविद्यालय में आर्ट की शिक्षा ली. 1943 से 1947 तक उन्होंन मुंबई के सर जे.जे. कला विद्यालय से आगे की कला शिक्षा ग्रहण की. इसके बाद उन्हें फ्रांस सरकार की छात्रवृत्ति मिली और उन्होंने 1950 से 1953 के बीच पेरिस के इकोल नेशनल सुपीरियर डे ब्यु आर्ट्स से कला के नए आयाम सीखे.
पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पूरे यूरोप का भ्रमण किया. 1956 में उन्हें प्रिक्स डे ला क्रिटिक पुरस्कार से नवाज़ा गया. यह किसी गैर फ्रांसीसी को मिलने वाला पहला पुरस्कार था.
1947 में को फाउंडर के रूप में उन्होंने के.एच.आरा आौर एफ.एन. सुज़ा के साथ बाम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रूप की स्थापना की. उनका मानना था कि आर्ट में यूरोपियन रियलिज्म का बहुत इम्पेक्ट है उसकी जगह भारत के इनर विज़न को इंडियन आर्ट के केन्द्र में लाया जाए, ग्रूप के माध्यम से.
बाद के वर्षों में उन्होंने भारतीय अघ्यात्म पर भी काम किया और ‘कुंडलिनी नाग’ और ‘महाभारत’ जैसे विषयों पर चित्र बनाए. रज़ा के ‘सिटी स्केप’ और ‘बारामूला इन रूइन्स‘ हिंदुस्तान के विभाजन और मुंबई दंगों की त्रासदी की दुख और पीड़ा को दर्शाते हैं. उनकी भारत यात्रा के बाद उनके चित्रों में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलता है.
उनके सानिंध्य में लंबे समय तक रहे वरिष्ठ चित्रकार अखिलेश उनके काम के बारे में कहते हैं ‘ रज़ा दुनिया के अकेले ऐसे चित्रकार हैं जिन्होंने रंगों की गहराई समझने में जीवन लगा दिया. वे चित्र में रंग रूढि़ के विपरीत जाकर रंग प्रयोग करते थे और उनके रंग नई आभा लिए दिखते थे. रज़ा के चित्रों में भारतीयता का अंश, यहां की परंपरा, मिनिएचर चित्रों के प्रयोग और लोक आदिवासी जीवन के साथ घनिष्ठ और सार्थक संबंध होने के कारण ही दिखाई देता है. वे हमेशा दृश्य चित्रण करते रहे लेकिन हूबहू चित्रण कभी नहीं किया.’
10 जून 2010 उनके जीवन का महत्वूर्ण तिथि है जब क्रिस्टी की नीलामी में उनकी पेंटिंग ‘सौराष्ट्र’ 16.42 करोड़ रूपए (34,85,965 डालर) में बिकी. इसी के साथ वो सबसे मंहगे आधुनिक चित्रकार की श्रेणी में शामिल हो गए थे.
नए कलाकारों को संदेश देते हुए एक बार उन्होंने कहा था ‘मुझे कला के एलीमेंट सीखने में 30 से 40 साल तक लगे हैं. इसलिए प्रदर्शनी और सेल करने के लिए जल्दी मत करो. अपनी अंदरूनी खोज करो और समझो कि कला तत्व क्या हैं. कैनवास के ऊपर किस तरह रंगों को मिलना चाहिए यह समझो. अपने अंदर की दृष्टि को ढूंढना जरूरी है और इसमें समय लगता है.’
और अंत में एक सूचना भी, सैयद हैदर रज़ा की सौंवी वर्षगांठ के मौके पर आलियांस फ्रांसिस द भोपाल, के तत्वावधान में 22 फरवरी से 28 फरवरी तक रज़ा मध्य 'RAZA MADHYA' के नाम से एक प्रदर्शनी का आयोजन कर रही है. जिसमें उनके काम को देखा जा सकता है.
बिंदु को अस्तित्व और रचना केन्द्र मानने वाले रज़ा ने अस्सी के दशक में बिंदु की शुरुआत कर अपनी विषयगत कृतियों में नए प्रयोग किए जो त्रिभुज के इर्द गिर्द थे. हैरिंगबोन त्रिकोण, नीली रौशनी से सजे उनके चित्र असाधारण अनुभवों का साक्षात्कार कराते हैं.
वे 60 साल पेरिस में रहे फिर भी देश से जीवंत संबंध बनाए रखे हैं; वे कहते थे, ‘मैं अपनी भाषा नहीं भूला हूँ. हां ये जरूर है कि पैरिस में हिंदी बोलने का अवसर कम मिलता है. मगर मैं हिंदी किताबें पढ़ता रहता हूं, भारतीय मित्रों से मिलता रहता हूं, बातें करता रहता हूं और मेरे दिल में हमेशा भारत रहा है. मैं विदेशी नहीं हूं और ना ही बनना चाहता हूं. हां मैं दुनिया भर से नोबल आइडिया ज़रूर लाना चाहता हूं, लेकिन अपनी संस्कृति और अपनी पहचान को नहीं भूलना चाहता.’

आलियांस फ्रांसिस द भोपाल, के तत्वावधान में 22 फरवरी से 28 फरवरी तक रज़ा मध्य 'RAZA MADHYA' के नाम से एक प्रदर्शनी
सैयद हैदर रज़ा अपनी मिट्टी से कितना प्यार करते थे उसकी एक बानगी यहां देखी भी जा सकती है. उनकी पैरिस टू मंडला की एक विज़िट की प्रत्यक्ष गवाही देते हुए शासकीय पूर्व माध्यमिक शाला ककैया, जिला मंडला (स्थापना वर्ष 1890) के एक शिक्षक श्री मुकेश पटेल एक किस्सा शेयर करते हैं. रज़ा ने इसी स्कूल में शिक्षा का शुरुआती पाठ पढ़ा था.
‘बरसात का मौसम था और बहुत ही दुर्गम स्थान था यह गांव. आवागमन के साधन थे नहीं, पुल नहीं था नदी पार करते हुए नौ किलो मीटर पैदल यात्रा करके, कैमरा साथ में है पूरा सामान, साथ में उनके दो और साथी थे. हमारे विद्यालय में पहुंचते हैं वो हमारे विद्यालय में आने के बाद प्रवेश द्वार पर ही साष्टांग प्रणाम करते हुए एक मिनट वहीं धरती पर लेटे रहते हैं. फिर बैठकर वहां की मिट्टी को उठाकर अपने माथे पर लगाते हैं, अपने शरीर पर लगाते हैं.’सैयद हैदर रज़ा ये कहते थे, ‘मैं फ्रांस इसलिए गया क्योंकि इस देश ने मुझे चित्रकला की तकनीक और विज्ञान की शिक्षा दी. फ्रांस के सिजेन जैसे श्रेष्ठ कलाकार चित्र निर्माण का रहस्य जानते थे, लेकिन मेरे फ्रांसीसी अनुभव के बावजूद मेरे चित्रों का भाव सीधे भारत से आता है.
अपने बचपन और मंडला का जि़क्र करते हुए वे कहते हैं,
‘जंगल के वृक्ष, पशु, पक्षी, जानवर पर्वत आदि मिलकर बहुत सुंदर परिदृश्य की रचना करते थे. उन्हें देखकर मैं आनंद से भर जाता था मुझे लगता था कि इसे पेंसिल से कागज पर उकेरूं. इसी नैसर्गिक सौंदर्य ने ही मुझे चित्रकारी करने की प्रेरणा दी.’
लंबे समय तक फ्रांस, पेरिस और यूरोप में समय बिताने वाले अपनी ज़मीन को कभी नहीं भूले. रज़ा अपने शिक्षकों का और मंडला और दमोह का जि़क्र हमेशा करते रहे हैं. दमोह के हाई स्कूल के शिक्षक दरयाब सिंह राठौर को वो श्रेय देते हैं कि उन्होंने ही रज़ा को कला की तरफ जाने को प्रेरित किया. प्राईमरी स्कूल में पढ़ाने वाले गुरू बेनी प्रसाद स्थापक के बारे में प्रेम से बताते हुए वे कहते थे. ‘वे हिमालय के आश्रम जाते थे वहां से लौटकर हमें बहुत अच्छी शिक्षा देते थे, बहुत सुंदरता से कहते थे.‘हे मानुष रख पग पंकज पर ध्यान.’
मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के बावरिया ग्राम में जन्मे रज़ा की प्राथमिक शिक्षा मंडला जिले में हुई. हाई स्कूल की शिक्षा दमोह में. नर्मदा के किनारे पले बढ़े रज़ा नर्मदा नदी के प्रति हमेशा श्रदधानत नज़र आए बातचीत और में भी व्यवहार में भी. अपनी हाई स्कूल के पढ़ाई के बाद वो नागपुर चले गए चित्रकला सीखने. यहां उन्होंने नागपुर कला महाविद्यालय में आर्ट की शिक्षा ली. 1943 से 1947 तक उन्होंन मुंबई के सर जे.जे. कला विद्यालय से आगे की कला शिक्षा ग्रहण की. इसके बाद उन्हें फ्रांस सरकार की छात्रवृत्ति मिली और उन्होंने 1950 से 1953 के बीच पेरिस के इकोल नेशनल सुपीरियर डे ब्यु आर्ट्स से कला के नए आयाम सीखे.
पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पूरे यूरोप का भ्रमण किया. 1956 में उन्हें प्रिक्स डे ला क्रिटिक पुरस्कार से नवाज़ा गया. यह किसी गैर फ्रांसीसी को मिलने वाला पहला पुरस्कार था.
1947 में को फाउंडर के रूप में उन्होंने के.एच.आरा आौर एफ.एन. सुज़ा के साथ बाम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रूप की स्थापना की. उनका मानना था कि आर्ट में यूरोपियन रियलिज्म का बहुत इम्पेक्ट है उसकी जगह भारत के इनर विज़न को इंडियन आर्ट के केन्द्र में लाया जाए, ग्रूप के माध्यम से.
पद्मश्री, पद्म विभूषण और ललित कला अकादेमी का फैलोशिप अवार्ड, पाने वाले रज़ा को फ्रांस का लीज़न ऑफ ऑनर भी मिला. यह फ्रांस का सबसे महत्वपूर्ण अवार्ड है जो सिविल और आर्मी दौनों लोगों को दिया जाता है खास बात ये है कि इसकी स्थापना नेपोलियन ने 1802 में की थी.
बाद के वर्षों में उन्होंने भारतीय अघ्यात्म पर भी काम किया और ‘कुंडलिनी नाग’ और ‘महाभारत’ जैसे विषयों पर चित्र बनाए. रज़ा के ‘सिटी स्केप’ और ‘बारामूला इन रूइन्स‘ हिंदुस्तान के विभाजन और मुंबई दंगों की त्रासदी की दुख और पीड़ा को दर्शाते हैं. उनकी भारत यात्रा के बाद उनके चित्रों में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलता है.
उनके सानिंध्य में लंबे समय तक रहे वरिष्ठ चित्रकार अखिलेश उनके काम के बारे में कहते हैं ‘ रज़ा दुनिया के अकेले ऐसे चित्रकार हैं जिन्होंने रंगों की गहराई समझने में जीवन लगा दिया. वे चित्र में रंग रूढि़ के विपरीत जाकर रंग प्रयोग करते थे और उनके रंग नई आभा लिए दिखते थे. रज़ा के चित्रों में भारतीयता का अंश, यहां की परंपरा, मिनिएचर चित्रों के प्रयोग और लोक आदिवासी जीवन के साथ घनिष्ठ और सार्थक संबंध होने के कारण ही दिखाई देता है. वे हमेशा दृश्य चित्रण करते रहे लेकिन हूबहू चित्रण कभी नहीं किया.’
10 जून 2010 उनके जीवन का महत्वूर्ण तिथि है जब क्रिस्टी की नीलामी में उनकी पेंटिंग ‘सौराष्ट्र’ 16.42 करोड़ रूपए (34,85,965 डालर) में बिकी. इसी के साथ वो सबसे मंहगे आधुनिक चित्रकार की श्रेणी में शामिल हो गए थे.
नए कलाकारों को संदेश देते हुए एक बार उन्होंने कहा था ‘मुझे कला के एलीमेंट सीखने में 30 से 40 साल तक लगे हैं. इसलिए प्रदर्शनी और सेल करने के लिए जल्दी मत करो. अपनी अंदरूनी खोज करो और समझो कि कला तत्व क्या हैं. कैनवास के ऊपर किस तरह रंगों को मिलना चाहिए यह समझो. अपने अंदर की दृष्टि को ढूंढना जरूरी है और इसमें समय लगता है.’
और अंत में एक सूचना भी, सैयद हैदर रज़ा की सौंवी वर्षगांठ के मौके पर आलियांस फ्रांसिस द भोपाल, के तत्वावधान में 22 फरवरी से 28 फरवरी तक रज़ा मध्य 'RAZA MADHYA' के नाम से एक प्रदर्शनी का आयोजन कर रही है. जिसमें उनके काम को देखा जा सकता है.
ब्लॉगर के बारे में
शकील खानफिल्म और कला समीक्षक
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.
First published: February 22, 2021, 11:20 AM IST