लंबी प्रतीक्षा के बाद आई एपिक साइंस फिक्शन फिल्म ‘अवतार 2’ यानी ‘Avatar: The Way OF Water’ ने कुल जमा 15 दिन में भारत में 300 करोड़ के क्लब में एंट्री कर ली. उसने यह आंकड़ा उम्मीद के मुताबिक या यूं कहें उम्मीद से भी जल्दी प्राप्त कर लिया. 18वें दिन फिल्म का भारत में कुल कलेक्शन था 342 करोड़ और वर्ल्ड वाईड कलेक्शन था लगभग 12000 करोड़ रुपए. लेकिन हम ज्यादा बात नहीं करने वाले कि फिल्म ने कितने कमाए या कितने रिकार्ड तोड़े; हम तो यहां तकनीक पर बात करने वाले हैं.
इस फिल्म का वास्तविक हीरो कौन है ऑबवियसली जेम्स कैमरून. हो भी क्यों न, वो इस फिल्म के निर्देशक हैं और फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि यह निर्देशक का मीडिया है. ऊपर से वो इस फिल्म के सह निर्माता हैं, स्टोरी, स्क्रीनप्ले में सह लेखक हैं. फिल्म के कैरेक्टर्स उन्होंने रचे हैं. कुल मिलाकर यह जेम्स का क्रिएशन है. लेकिन, लेकिन फिर भी अगर हम कहें कि फिल्म का असल हीरो कोई और है तो आप क्या कहेंगे?
फिल्म के रियल हीरो हैं वीएफएक्स, सीजीआई और एसएफएक्स टेक्निक. इसमें कोई शक नहीं है कि ये सिर्फ टूल हैं जिनका बहुत ही खूबसूरती से जेम्स ने इस्तेमाल किया है. न सिर्फ इस्तेमाल किया है बल्कि उन्होंने इस के लिए तकनीक के आने का इंतजार भी किया, लंबा इंतजार – ‘जो मज़ा इंतजार में है वो वस्ले यार में कहां’ वाला इंतजार. फ्रेंचाईज की पहली मूवी ‘अवतार’ 18 दिसंबर 2009 को रिलीज़ हुई थी जबकि दूसरी मूवी पूरे तेरह बरस बाद 16 दिसंबर 2022 को सुनहरे परदे की शक्ल देख पाई. पहली मूवी भी आसानी से आकार नहीं ले पाई थी. 1994 से इस पर शुरुआती काम प्रारंभ हुआ जो 2009 में फिल्म का आकार ले पाया. कुछ लोग कहते हैं ‘सपने कभी अपने नहीं होते’, गलत कहते हैं ‘अवतार’ सीरीज का प्रोडक्शन वास्तव में एक सपने का सच होना है.
वापिस ‘अवतार’ पर, थोड़ा प्रैक्टिकल होकर बात करते हैं. ठान लेना अलग बात है इसे अंजाम तक पहुंचाना अलग बात. ठीक है, इसके लिए जो ज़ुनून चाहिए वो जेम्स कैमरून के पास था. इसीके चलते जेम्स ने 1994 में ही 80 पेज का पहला ड्राफ्ट तैयार भी कर लिया था. लेकिन सिर्फ जुनून से क्या होता है, जेम्स ने जब अपने सपने को सेल्युलाईड के परदे पर उतारने का निर्णय लिया तो जमीनी सच्चाई ने उसके सपने को औंधे मुंह पटक दिया. लेकिन मानना पड़ेगा कि जुनून से ही सब कुछ होता है. जब कैमरून ने पाया कि सपने को साकार करने के लिए जरूरी तकनीक अभी मौजूद नहीं है, तो उन्होंने प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया. इस विश्वास के साथ लिया कि उसके लिए यूजफुल जरूरी तकनीक आना तय है, आई भी. यानी सब्र का फल मीठा होता है एक बार फिर साबित हुआ. वो तकनीक थी वीएफएक्स, सीजीआई और वीएफएक्स.
क्या बला है VFX और CGI
जानते हैं ये किन बलाओं के नाम हैं. इन बलाओं के सामान्य रूप से हम रोज दो चार होते हैं. हम टीवी न्यूज रोज देखते हैं. देखते हैं कि एंकर मौसम का हाल बता रही है और पीछे स्क्रीन पर बारिश तूफान आंधी के दृश्य चल रहे हैं, देखने में ऐसा लग रहा है कि एंकर खुद घटनास्थल पर मौजूद होकर हमें वहां के हाल बता रही है. इसे ही मोटा मोटा वीएफएक्स या सीजीआई तकनीक कह सकते हैं. वीएफएक्स यानी विजुअल इफेक्ट्स और सीजीआई यानी कम्प्यूटर जनरेटेड इमेजिनरी.
थोड़ा डीप में जाते हैं. एक छोटा-मोटा प्रोड्यूसर डाक्यूमेंट्री बना रहा है. यह डाक्यूमेंट्री शहीदों के एक स्मारक पर बनाई जानी है. स्मारक हजार किलोमीटर दूरी पर स्थित है. डाक्यूमेंट्री के लिए स्मारक शूट करना जरूरी है और वहां ले जाकर एंकर का नरेशन भी शूट करना है. बजट इतना है नहीं कि एंकर और पूरी क्रू को स्मारक तक जाया जा सके. लेकिन एंकर को स्मारक पर उसके आसपास घूमकर कर कमेंट्री करना भी बहुत जरूरी है. अंटी में पैसे हैं नहीं. क्या करें? कैसे करें? एक तरीका है स्मारक की हूबहू प्रतिकृति बनवाकर उसका इस्तेमाल किया जाए और एंकर से नरेशन कराया जाए. लेकिन यहां भी समस्या है कि प्रतिकृति बनाना खर्चीला है, हूबहू बनाना तो बहुत ज्यादा खर्चीला. उसके बाद भी जरूरी नहीं कि रियल लुक आ ही जाए.
ऐसे में वीएफएक्स और सीजीआई रॉबिन हुड बनकर सामने आते हैं. बिना एंकर और उसकी टीम को ले जाए ही ऐसा दृश्य रच देते हैं मानो एंकर स्मारक के सामने खड़े होकर उसकी जानकारी दे रही है. जबकि किया सिर्फ इतना गया है कि अकेले कैमरामेन को भेजकर खाली स्मारक के फुटेज मंगा लिए गए हैं और ज्यादा बजट कम होने पर पहले से उपलब्ध फुटेज यूज़ के लिए उठाए जा सकते हैं. इधर, स्टुडियो में ग्रीन परदे के बैकग्राउंड के सामने खड़ी होकर एंकर स्मारक के बारे में यूं बता रही है मानो वो स्मारक के सामने ही खड़ी है. बाद में पोस्ट प्रोडक्शन में एडिटिंग सॉफ्टवेयर की मदद से ग्रीन परदे को हटा दिया जाता है और वहां स्मारक के शॉट्स लगा दिए जाते हैं. बाद में इसकी मिक्सिंग कर फाइनल रूप दे दिया जाता है. फाइनल रूप देखकर दर्शक को ऐसा महसूस होता है मानो सीन्स स्मारक पर जाकर शूट किए गए हैं. ये कमाल करते हैं विज़ुल इफेक्ट और कम्प्यूटर जनरेटेड इमेजिनरी.
‘अवतार’ और इस जैसे ढेर सारी हॉलीवुड फिल्में इसी तकनीक का इस्तेमाल करती हैं. बेसिक तरीका जरूर ऐसा ही है लेकिन तकनीक में भारी अंतर है. हर विज़ुअल एक से नहीं होते, न उनके परिणाम एक जैसे. मामला कुछ यूं है कि शक्कर जितनी ज्यादा डालोगे, पकवान उतना ही मीठा बनेगा.
नई तकनीक, पैसे की बचत और बेहतरीन काम
वीएफएक्स, सीजीआई और एसएफएक्स टेक्निक के बारे में मोटा-मोटा जानने की कोशिश करते हैं. क्योंकि इसे टेक्निकल गहराई में जाकर समझना या समझाना इस लेख का उद्देश्य नहीं है इसलिए मोटी-मोटी जानकारी. इस तकनीक के इस्तेमाल से समय और पैसे की बचत तो होती ही है. खतरनाक ओर असंभव नज़र आने वाले सीन भी आसानी से क्रिएट किए जा सकते हैं. बरसों पहले खत्म हुए डायनासोर हों या स्पेस में जंग लड़ते एलियंस. कल्पनातीत और उड़ने वाली ऐसी मशीनें जिन्हें देखकर उंगली बरबस ही दांतों तले पहुंच जाए. ‘टाईटैनिक’ के डूबने के रोमांचकारी दृश्य या फिर ‘एवेंजर’ और ‘अवतार’ तथा ‘अवतार’ 2 के सीन्स. ये सब विज़ुअल इफेक्ट्स और उसके संगी साथी सीजीआई और एसएफएक्स के कमाल हैं.
बाहुबली, रोबोट में भी इस्तेमाल हुई यही तकनीक
बेहद खूबसूरत ओर मन को मोह लेने वाली सीनरी हो या एक्शन के खतरनाक सींस. या फिर कल्पना से उपजे जीव जंतु ये सब इन्हीं में से किसी एक या दो तकनीक को मिला कर रचे जाते हैं. आपको ‘मोगली’ की याद है ये कम्प्यूटर ग्राफिक का कमाल है. ‘लाईफ ऑफ पाई’ का लड़का और शेर याद है, जो समुद्र में एक ही नाव पर सफर कर रहे हैं. इसमें एक छोटा सा टेडी बियर था जिसे हमने शेर के रूप में देखा.
इन टेक्निक पर आधारित भारतीय फिल्मों की बात करें तो ‘बाहुबली’ का नाम सबसे पहले याद आता है, यह फिल्म इन्हीं तकनीक की बदौलत इतनी भव्य और लार्जर देन लाईफ इमेज वाली बन पाई थी. लेकिन ये पहली नहीं थी ‘कृष’ हो ‘रा वन’ या फिर ‘रोबोट’ ये भारत में ही बनी थीं. ‘मक्खी’ भी याद आती है. साउथ की अनेक चर्चित फिल्मों में इस तकनीक का इस्तेमाल खुलकर इस्तेमाल हुआ है. एक्सीडेंट का सीन हो, या बम ब्लॉस्ट, या फिर सुनामी, बाढ़, तूफान आंधी, छत से कूदना, उड़ना, कार ब्लॉस्ट आदि ऐसे सीन हैं जो रियल में बनाए नहीं जा सकते या बहुत मंहगे पड़ते हैं उन्हें इन्हीं की मदद से दिखाया जाता है.
चलते-चलते अवतार 2 पर बॉलीवुड का रिएक्शन जान लेते हैं. राम गोपाल वर्मा पॉजि़टिव सेंस में कहते हैं ‘इसे एक फिल्म कहना गुनाह होगा, क्योंकि ये अनुभव की तरह है. दिमाग घुमाने वाला एक्शन और भव्य विज़ुअल्स.’ ‘स्कैम 1992’ के को डॉरेक्टर जय मेहता बोलते हैं, ‘मैंने इससे पहले परदे पर कभी ऐसा विजुअल स्पेक्टेकल नहीं देखा. ‘अवतार’ ने मेरे साथ आज वही किया है जो बचपन में ‘जूरासिक पार्क’ ने किया था.’ अक्षय कुमार ने कहा ‘अवतार – द वे ऑफ वाटर’ देखी इस फिल्म के लिए ‘शानदार’ से नीचे कोई शब्द इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. जेम्स कैमरून, आपकी जीनियस क्राफ्ट को सलाम.’
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.
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