होम लाइब्रेरी, ताकि राजस्थान के भील बच्चों में बनी रहे पढ़ाई की संस्कृति

विश्व पर्यावरण के अवसर पर एक गतिविधि में भाग लेते होम लाइब्रेरी के बच्चे (फोटो साभार: पराग लइब्रेरी)
कोरोना महामारी में ग्रामीण भारत के असंख्य बच्चे स्कूली और ऑनलाइन एजुकेशन से डिस्कनेक्ट होकर जब बुनियादी शिक्षा से भी बेदखल हो चुके हैं, तब कुछ पुस्तक प्रेमियों ने दक्षिण राजस्थान के सुदूर भील आदिवासी बहुल दो दर्जन से ज्यादा गांवों में जहां पहुंचना तक मुश्किल था, वहां छोटे बच्चों को पढ़ाई की संस्कृति से जोड़ रखने के लिए एक ऐसी पहल की है, जिसमें पुस्तकालय की कल्पना को सरकारी स्कूल से बाहर निकालते हुए बच्चों के घरों में ही पुस्तकालय स्थापित किए जा रहे हैं. इस तरह, 'होम लाइब्रेरी' कांसेप्ट के तहत इन दिनों बच्चों को घर पर ही पढ़ाई-लिखाई का माहौल देने और समुदाय को लाइब्रेरी से कनेक्ट करके उन्हें बाल-साहित्य के प्रति जागरूक बनाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं.
इस तरह, राजस्थान के पाली जिले के बाली क्षेत्र में पिछले साल अगस्त से अब तक कुल 28 लाइब्रेरी संचालित हो रही हैं. हालांकि, कोरोना महामारी के बीच किसी सरकारी स्कूल की लाइब्रेरी का विकेंद्रीकरण करके उन्हें दूर-दराज के स्थानों तक ले जाना आसान न था, फिर भी इस दौरान कोरोना संक्रमण से बचने के सारे उपायों को प्राथमिकता देते हुए यह काम अच्छी तरह से पूरा कर लिया गया है. वहीं, स्थानीय स्तर पर भील बच्चों के घरों में लाइब्रेरी के विचार को मूर्त रुप देने के लिए पुस्तक प्रेमियों की 'पराग लाइब्रेरी' को 'सेंटर फॉर माइक्रोफाइनेंस' समूह के कार्यकर्ताओं का सहयोग मिल रहा है.
एनईपी की मंशा के अनुरूप
होम लाइब्रेरी की इस पूरी पहल को पिछले वर्ष आई एनईपी (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) से जोड़कर भी देखा जा सकता है, जिसमें साफ तौर पर यह उल्लेख किया गया है कि पुस्तकालयों को स्कूल से बाहर निकालकर समुदाय का हिस्सा बनाना चाहिए, इसलिए सामुदायिक पुस्तकालयों की स्थापना की जानी चाहिए. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की इसी अवधारणा के अनुकूल सामुदायिक पुस्तकालयों को विस्तार देने की पहल से जुड़े 'पराग लाइब्रेरी' के प्रबंधक नवनीत नीरव बताते हैं कि होम लाइब्रेरी में पुस्तकें और स्टेशनरी की चीजें तो होती ही हैं, पुस्तकालय को केंद्र में रखते हुए कई तरह की अन्य गतिविधियां भी कराई जाती हैं और साथ ही बच्चों द्वारा बनाई गई चीजों को भी वहां पर डिस्प्ले किया जाता है.

उदाहरण के लिए, पिछली 5 जून को 'विश्व पर्यावरण दिवस' के अवसर पर बच्चों द्वारा पर्यावरण से जुड़ी पुस्तकों का डिस्प्ले किया गया. इस दौरान बच्चों ने पुस्तकों में दर्ज पर्यावरण से जुड़ी अहम जानकारियों को पढ़कर सुनाया. इस तरह की गतिविधियां पिछले कई महीनों से लगातार की जा रही हैं. इसी कड़ी में 'राष्ट्रीय पुस्तकालय दिवस' से लेकर 'साइकिल दिवस' तक कई संवाद-सत्र आयोजित किए जा चुके हैं. वहीं, सप्ताह में कम-से-कम दो दिन सरकारी स्कूल के शिक्षक होम लाइब्रेरी का अवलोकन करते हैं और बच्चों के साथ विभिन्न गतिविधियों का संचालन भी करते हैं. इस दौरान बुक टॉक, रीड अलाउड, रोल प्ले, स्टोरी मेकिंग, पेंटिंग, क्लरिंग और आर्ट एंड क्राफ्ट से जुड़ी अनेक गतिविधियां कराई जा रही हैं.नवनीत नीरव के मुताबिक हर एक लाइब्रेरी में मोहल्ले के करीब 25-30 बच्चे पढ़ते-लिखते हैं. एक लाइब्रेरी को सामान्य 30-40 पुस्तकें दी जाती हैं. जब बच्चे इन पुस्तकों को पढ़ चुके होते हैं तब वे पुस्तकों को अपने सरकारी स्कूल के शिक्षकों को लौटाते हैं और फिर दूसरे चरण में 30-40 नई पुस्तकों को लेते हैं. वह कहते हैं, "होम लाइब्रेरी की एक अच्छी बात यह है कि यह पूरे दिन खुली रहती है और कई बार समुदाय के वयस्क व्यक्ति भी पुस्तकों को पढ़ने के लिए आते हैं. होम लाइब्रेरी में बच्चों को अपने आसपास के अन्य बच्चों के लिए पुस्तक इशू करने की अनुमति दी गई है. ज्यादातर पुस्तकें हिन्दी में ही हैं, लेकिन बच्चों के लिए कुछ पुस्तकें मारवाड़ी और अंग्रेजी में भी उपलब्ध कराई गई हैं."
ऐसे शुरू हुई पहली होम लाइब्रेरी
होम लाइब्रेरी के बनने की कहानी के बारे में बातचीत करते हुए इस पहल से जुड़े समन्यवयक लक्ष्मीनारायण बताते हैं कि कोरोना लॉकडाउन से पहले बच्चे पिछले कुछ वर्षों से अपने-अपने सरकारी स्कूलों के पुस्तकालयों से जुड़े हुए थे. इसलिए बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित हो चुकी थी. उसके बाद मार्च, 2020 में कोरोना के कारण जब लॉकडाउन और पाबंदियां लगाई गईं तो बच्चे घरों में बंद हो गए. इस दौरान कई बच्चों और उनके परिजनों ने हमें बताया कि बाल-साहित्य बाजार में उपलब्ध न होने से उनका पढ़ना भी बंद हो चुका है. फिर हमने होम लाइब्रेरी खोलने के लिए गांवों में मोहल्लों की पहचान की और साल 2020 को ही एक अगस्त के दिन रेलिया गांव में कक्षा पांचवीं के छात्र लक्ष्मण कुमार के घर बच्चों के लिए होम लाइब्रेरी खोली.
लक्ष्मीनारायण के मुताबिक, हर एक होम लाइब्रेरी बच्चों, सरकारी शिक्षकों और अभिभावकों के समन्वय से संचालित की जा रही है. होम लाइब्रेरी के बेहतर संचालन के लिए सरकारी स्कूलों के शिक्षकों द्वारा बच्चों के लिए सही समय पर पर्याप्त संख्या में पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती हैं, इसलिए यहां सरकारी शिक्षकों के साथ चर्चा करके उन्हें भरोसे में बनाए रखना बहुत अहम होता है. इसके बाद वॉलेंटियर का रोल शुरू होता है, जो आमतौर पर बच्चों के अभिभावक या आसपास के बड़े बच्चे ही होते हैं और आर्थिक मदद लिए बिना जो लाइब्रेरी के संचालन में बच्चों की मदद करते हैं.
होम लाइब्रेरी के कारण बच्चों के अभिभावकों से भी सीधे जुड़ने का मौका मिल रहा है. इसके अंतर्गत समन्वयकों द्वारा उन्हें कुछ टास्क दिए जा रहे हैं. जैसे कि अभिभावकों से 'हवा महल' नाम की शैक्षिक पत्रिका की सामग्री के बारे में चर्चा के लिए आमंत्रित किया जा सकता है. इससे पढ़ाई की संस्कृति को विकसित करने के मार्ग में बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों की जिम्मेदारियां भी तय हो रही हैं.
स्कूल खुले तब भी जारी रहेंगे प्रयास
दरअसल, कोरोना-काल ने होम लाइब्रेरी के जरिए यह सिखा दिया है कि दीर्घकालीन अवकाश की स्थिति में यदि बच्चों के पढ़ने-लिखने की आदत प्रभावित होती है तो ऐसी स्थिति में भी होम लाइब्रेरी का सतत संचालन जरूरी है, बशर्ते कि होम लाइब्रेरी का संचालन अनौपचारिक हो और ऐसी लाइब्रेरी का मालिकाना हक बच्चों के पास ही सुरक्षित रहे.
इस बारे में लक्ष्मीनारायण मानते हैं कि कोरोना महामारी की स्थिति में देश के बहुसंख्यक वंचित बच्चे पढ़ाई के नाम पर कुछ करने की हालत में नहीं हैं, तब होम लाइब्रेरी के बहाने बच्चों के लिए काफी कुछ करने की गुंजाइश निकाली जा सकती है. जैसे कि इस तरह से बच्चों के लिए संसाधन उपलब्ध कराए जा सकते हैं. बच्चों को एक मंच दिया जा सकता है, जिसके माध्यम से वे पढ़ने के अलावा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में व्यस्त रहें.

होम लाइब्रेरी की जरूरत पर कूरन गांव के अभिभावक हंसाराम गरासिया अपने अनुभव बताते हैं कि इसके कारण उन्हें स्कूल से बाहर पहली बार बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा बातचीत का मौका मिल रहा है. इस तरह, उन्होंने यह भी जाना कि बच्चे क्या लिख-पढ़ रहे हैं और क्या-क्या सीख रहे हैं.
दूसरी तरफ, कूरन गांव के ही एक अन्य अभिभावक प्रकाशचंद्र कहते हैं, "स्कूल बंद होने के बाद कई महीने बच्चे इधर-उधर घूमते थे, अब उन्हें ऐसी जगह मिल गई है जहां वे किताबों को पढ़कर बड़े-बूढ़ों के लिए कहानी सुना सकते हैं, फिर हम भी उन्हें अपने बचपन में सुनी गईं कहानियां सुनाते हैं."
वहीं, कक्षा पांचवीं में पढ़ने वाले रघुनाथपुरा गांव के प्रदीप कुमार मानते हैं कि कोरोना संक्रमण से बचने का सबक उसने होम लाइब्रेरी के संचालन से ही सीखा. प्रदीप के मुताबिक, "हमने साफ-सफाई का ध्यान रखना सीखा. हमने मास्क और सैनिटाइजर का सही तरीके से उपयोग करना जाना. हमें बताया गया कि किताबें कैसे बांटनी हैं और एक-दूसरे से कितना अंतर रखते हुए बैठना है."
अंत में लक्ष्मीनारायण कहते हैं, "यह महज कोरोना-काल के लिए नहीं है, जब स्कूल खुलेंगे तब भी होम लाइब्रेरी जारी रहेंगी, बल्कि इनकी संख्या भी बढ़ाई जाएगी और ज्यादा से ज्यादा अभिभावकों को इससे जोड़ने की कोशिश की जाएगी. ऐसा इसलिए कि बच्चों के लिए स्कूल के अलावा घर पर भी पढ़ने-लिखने का माहौल मिलता रहे."
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
इस तरह, राजस्थान के पाली जिले के बाली क्षेत्र में पिछले साल अगस्त से अब तक कुल 28 लाइब्रेरी संचालित हो रही हैं. हालांकि, कोरोना महामारी के बीच किसी सरकारी स्कूल की लाइब्रेरी का विकेंद्रीकरण करके उन्हें दूर-दराज के स्थानों तक ले जाना आसान न था, फिर भी इस दौरान कोरोना संक्रमण से बचने के सारे उपायों को प्राथमिकता देते हुए यह काम अच्छी तरह से पूरा कर लिया गया है. वहीं, स्थानीय स्तर पर भील बच्चों के घरों में लाइब्रेरी के विचार को मूर्त रुप देने के लिए पुस्तक प्रेमियों की 'पराग लाइब्रेरी' को 'सेंटर फॉर माइक्रोफाइनेंस' समूह के कार्यकर्ताओं का सहयोग मिल रहा है.
एनईपी की मंशा के अनुरूप
होम लाइब्रेरी की इस पूरी पहल को पिछले वर्ष आई एनईपी (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) से जोड़कर भी देखा जा सकता है, जिसमें साफ तौर पर यह उल्लेख किया गया है कि पुस्तकालयों को स्कूल से बाहर निकालकर समुदाय का हिस्सा बनाना चाहिए, इसलिए सामुदायिक पुस्तकालयों की स्थापना की जानी चाहिए.

पाली जिले के अंतर्गत बाली ब्लॉक के कुंडल गांव में होम लाइब्रेरी (फोटो साभार: पराग लाइब्रेरी)
उदाहरण के लिए, पिछली 5 जून को 'विश्व पर्यावरण दिवस' के अवसर पर बच्चों द्वारा पर्यावरण से जुड़ी पुस्तकों का डिस्प्ले किया गया. इस दौरान बच्चों ने पुस्तकों में दर्ज पर्यावरण से जुड़ी अहम जानकारियों को पढ़कर सुनाया. इस तरह की गतिविधियां पिछले कई महीनों से लगातार की जा रही हैं. इसी कड़ी में 'राष्ट्रीय पुस्तकालय दिवस' से लेकर 'साइकिल दिवस' तक कई संवाद-सत्र आयोजित किए जा चुके हैं. वहीं, सप्ताह में कम-से-कम दो दिन सरकारी स्कूल के शिक्षक होम लाइब्रेरी का अवलोकन करते हैं और बच्चों के साथ विभिन्न गतिविधियों का संचालन भी करते हैं. इस दौरान बुक टॉक, रीड अलाउड, रोल प्ले, स्टोरी मेकिंग, पेंटिंग, क्लरिंग और आर्ट एंड क्राफ्ट से जुड़ी अनेक गतिविधियां कराई जा रही हैं.नवनीत नीरव के मुताबिक हर एक लाइब्रेरी में मोहल्ले के करीब 25-30 बच्चे पढ़ते-लिखते हैं. एक लाइब्रेरी को सामान्य 30-40 पुस्तकें दी जाती हैं. जब बच्चे इन पुस्तकों को पढ़ चुके होते हैं तब वे पुस्तकों को अपने सरकारी स्कूल के शिक्षकों को लौटाते हैं और फिर दूसरे चरण में 30-40 नई पुस्तकों को लेते हैं. वह कहते हैं, "होम लाइब्रेरी की एक अच्छी बात यह है कि यह पूरे दिन खुली रहती है और कई बार समुदाय के वयस्क व्यक्ति भी पुस्तकों को पढ़ने के लिए आते हैं. होम लाइब्रेरी में बच्चों को अपने आसपास के अन्य बच्चों के लिए पुस्तक इशू करने की अनुमति दी गई है. ज्यादातर पुस्तकें हिन्दी में ही हैं, लेकिन बच्चों के लिए कुछ पुस्तकें मारवाड़ी और अंग्रेजी में भी उपलब्ध कराई गई हैं."
ऐसे शुरू हुई पहली होम लाइब्रेरी
होम लाइब्रेरी के बनने की कहानी के बारे में बातचीत करते हुए इस पहल से जुड़े समन्यवयक लक्ष्मीनारायण बताते हैं कि कोरोना लॉकडाउन से पहले बच्चे पिछले कुछ वर्षों से अपने-अपने सरकारी स्कूलों के पुस्तकालयों से जुड़े हुए थे. इसलिए बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित हो चुकी थी. उसके बाद मार्च, 2020 में कोरोना के कारण जब लॉकडाउन और पाबंदियां लगाई गईं तो बच्चे घरों में बंद हो गए. इस दौरान कई बच्चों और उनके परिजनों ने हमें बताया कि बाल-साहित्य बाजार में उपलब्ध न होने से उनका पढ़ना भी बंद हो चुका है. फिर हमने होम लाइब्रेरी खोलने के लिए गांवों में मोहल्लों की पहचान की और साल 2020 को ही एक अगस्त के दिन रेलिया गांव में कक्षा पांचवीं के छात्र लक्ष्मण कुमार के घर बच्चों के लिए होम लाइब्रेरी खोली.
लक्ष्मीनारायण के मुताबिक, हर एक होम लाइब्रेरी बच्चों, सरकारी शिक्षकों और अभिभावकों के समन्वय से संचालित की जा रही है. होम लाइब्रेरी के बेहतर संचालन के लिए सरकारी स्कूलों के शिक्षकों द्वारा बच्चों के लिए सही समय पर पर्याप्त संख्या में पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती हैं, इसलिए यहां सरकारी शिक्षकों के साथ चर्चा करके उन्हें भरोसे में बनाए रखना बहुत अहम होता है. इसके बाद वॉलेंटियर का रोल शुरू होता है, जो आमतौर पर बच्चों के अभिभावक या आसपास के बड़े बच्चे ही होते हैं और आर्थिक मदद लिए बिना जो लाइब्रेरी के संचालन में बच्चों की मदद करते हैं.
होम लाइब्रेरी के कारण बच्चों के अभिभावकों से भी सीधे जुड़ने का मौका मिल रहा है. इसके अंतर्गत समन्वयकों द्वारा उन्हें कुछ टास्क दिए जा रहे हैं. जैसे कि अभिभावकों से 'हवा महल' नाम की शैक्षिक पत्रिका की सामग्री के बारे में चर्चा के लिए आमंत्रित किया जा सकता है. इससे पढ़ाई की संस्कृति को विकसित करने के मार्ग में बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों की जिम्मेदारियां भी तय हो रही हैं.
स्कूल खुले तब भी जारी रहेंगे प्रयास
दरअसल, कोरोना-काल ने होम लाइब्रेरी के जरिए यह सिखा दिया है कि दीर्घकालीन अवकाश की स्थिति में यदि बच्चों के पढ़ने-लिखने की आदत प्रभावित होती है तो ऐसी स्थिति में भी होम लाइब्रेरी का सतत संचालन जरूरी है, बशर्ते कि होम लाइब्रेरी का संचालन अनौपचारिक हो और ऐसी लाइब्रेरी का मालिकाना हक बच्चों के पास ही सुरक्षित रहे.
इस बारे में लक्ष्मीनारायण मानते हैं कि कोरोना महामारी की स्थिति में देश के बहुसंख्यक वंचित बच्चे पढ़ाई के नाम पर कुछ करने की हालत में नहीं हैं, तब होम लाइब्रेरी के बहाने बच्चों के लिए काफी कुछ करने की गुंजाइश निकाली जा सकती है. जैसे कि इस तरह से बच्चों के लिए संसाधन उपलब्ध कराए जा सकते हैं. बच्चों को एक मंच दिया जा सकता है, जिसके माध्यम से वे पढ़ने के अलावा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में व्यस्त रहें.

भील बहुल हनुमान बस्ती में संचालित होम लाइब्रेरी का दृश्य (फोटो साभार: नवनीत नीरव)
होम लाइब्रेरी की जरूरत पर कूरन गांव के अभिभावक हंसाराम गरासिया अपने अनुभव बताते हैं कि इसके कारण उन्हें स्कूल से बाहर पहली बार बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा बातचीत का मौका मिल रहा है. इस तरह, उन्होंने यह भी जाना कि बच्चे क्या लिख-पढ़ रहे हैं और क्या-क्या सीख रहे हैं.
दूसरी तरफ, कूरन गांव के ही एक अन्य अभिभावक प्रकाशचंद्र कहते हैं, "स्कूल बंद होने के बाद कई महीने बच्चे इधर-उधर घूमते थे, अब उन्हें ऐसी जगह मिल गई है जहां वे किताबों को पढ़कर बड़े-बूढ़ों के लिए कहानी सुना सकते हैं, फिर हम भी उन्हें अपने बचपन में सुनी गईं कहानियां सुनाते हैं."
वहीं, कक्षा पांचवीं में पढ़ने वाले रघुनाथपुरा गांव के प्रदीप कुमार मानते हैं कि कोरोना संक्रमण से बचने का सबक उसने होम लाइब्रेरी के संचालन से ही सीखा. प्रदीप के मुताबिक, "हमने साफ-सफाई का ध्यान रखना सीखा. हमने मास्क और सैनिटाइजर का सही तरीके से उपयोग करना जाना. हमें बताया गया कि किताबें कैसे बांटनी हैं और एक-दूसरे से कितना अंतर रखते हुए बैठना है."
अंत में लक्ष्मीनारायण कहते हैं, "यह महज कोरोना-काल के लिए नहीं है, जब स्कूल खुलेंगे तब भी होम लाइब्रेरी जारी रहेंगी, बल्कि इनकी संख्या भी बढ़ाई जाएगी और ज्यादा से ज्यादा अभिभावकों को इससे जोड़ने की कोशिश की जाएगी. ऐसा इसलिए कि बच्चों के लिए स्कूल के अलावा घर पर भी पढ़ने-लिखने का माहौल मिलता रहे."
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
शिरीष खरेलेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
First published: June 7, 2021, 12:47 PM IST