भारत में कोरोना संक्रमण से बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के कारण लंबे समय से स्कूल बंद हैं और इस बीच बहस इस बात के लिए चल रही है कि क्या ऑनलाइन एजुकेशन कक्षा आधारित शिक्षण पद्धति की जगह ले सकता है, या फिर यह महज मजबूरी है. इसी बहस के नतीजे में कुछेक जगहों पर स्कूल और ऑनलाइन दोनों के विकल्प तलाशते हुए नई तरह की पहल शुरू हुईं. दूसरी तरफ, वैश्विक महामारी के दरम्यान कुछ देशों में स्कूली शिक्षा से जुड़ी चर्चित घटनाएं भी घटीं, जो कहीं रोचक बहसों तो कहीं चिंता का सबब भी बन गईं. इन्हीं में एक हांगकांग तो दूसरी अफगानिस्तान की स्कूली शिक्षा से संबंधित घटना है.
हांगकांग में इस तरह छिड़ी स्कूली बच्चों की अभिव्यक्ति पर रार
हांगकांग में पिछले दिनों स्कूली बच्चों के अभिव्यक्ति के अधिकार से संबंधित एक विवाद ने कोविड-19 वैश्विक महामारी के बीच शैक्षणिक मुद्दों पर दिलचस्पी रखने वाले दुनिया भर के विद्वानों का ध्यान अपनी ओर खींचा. इसके पीछे वजह थी हांगकांग के स्कूल परिसरों में बच्चों द्वारा किए जाने वाले राजनीतिक गीत-संगीत के आयोजन, जिन्हें लेकर वहां की सरकार और विशेष तौर पर शिक्षा मंत्रालय ने सख्त आपत्ति जताई और कहा कि स्कूली बच्चों को चाहिए कि वे सियासी विषयों से दूर रहें.
दूसरी तरफ, इस दौरान वहां के कुछ नागरिक समूहों ने उनके अपने देश के शिक्षा मंत्री केविन येउंग के रुख पर विरोध जताते हुए यह मांग की कि बच्चों को भी राजनीतिक मुद्दों पर शांतिपूर्ण तरीके से अपना मत रखने और राजनीतिक मुद्दों पर हस्तक्षेप करने का अधिकार होना चाहिए. केविन येउंग ने बच्चों द्वारा स्कूल परिसर में राजनीतिक गीत-संगीत के आयोजनों पर रोक लगा दी थी. इस बारे में उनका कहना था कि स्कूली बच्चे अवयस्क होते हैं और इसलिए वे पूरी तरह से अभिव्यक्ति के अधिकार के योग्य नहीं माने जा सकते हैं.
इस घटना को लेकर तब एक नया मोड़ आ गया जब वहां के नागरिक समूहों ने शिक्षा मंत्री केविन येउंग के मत से उलट तर्क रखे. हालांकि, कौन बोलेगा और कौन नहीं बोलेगा, इस बिंदु पर बोलने के अधिकार को लेकर कोई स्पष्ट निर्धारण नहीं हुआ है. इसके बावजूद कुछ नागरिक समूह और मानवाधिकार संगठनों ने इस संबंध में अंतराष्ट्रीय मानवाधिकर कानूनों का हवाला दिया और यह कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तभी प्रतिबंधित किया जा सकता है जब उससे दूसरों लोगों के अधिकारों में बाधा पहुंच रही हो, या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आवश्यक हो, या फिर सार्वजनिक सुरक्षा से जुड़ा संवेदनशील मामला हो.
वहीं, हांगकांग में चल रही इस पूरी बहस की एक अहम बात यह भी रही कि वहां के शिक्षा मंत्री केविन येउंग ने एक अन्य राजनीतिक गीत ‘आई लव बेसिक लॉ’ को गाने-बजाने की मंजूरी जारी रखी है.
सरकार द्वारा लगाई गई रोक के पक्ष में खड़ा है एक पक्ष
हालांकि, हांगकांग में एक दूसरा तबका भी है जो इस आधार पर स्कूलों में ‘ग्लोरी टू हांगकांग’ या ‘वी ग्रो थिस वे’ जैसे सत्ता-विरोधी गानों को यह कहते हुए रोकने के सरकारी निर्णय का समर्थन कर रहा है कि इनसे स्कूल की कक्षाओं में अन्य बच्चों की पढ़ाई-लिखाई बाधित होती है. वहीं, सरकार के इस निर्णय का विरोध करने वाले नागरिकों का कहना है कि यदि इनसे कक्षाओं के अन्य बच्चों की पढ़ाई-लिखाई बाधित हो रही है तो इस बारे में स्कूल प्रबंधन निर्णय ले सकते हैं, लेकिन देश की निर्वाचित सरकार ऐसे गीतों पर प्रतिबंध लगाने के लिए जो आधार बता रही है उसे तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता है.
दूसरी तरफ, हांगकांग के शिक्षा मंत्री केविन येउंग ने अपने निर्णय को उचित बताते हुए यह भी कहा है कि, “किसी भी परिस्थिति में किसी भी व्यक्ति को छात्रों को विवादास्पद या विकसित हो रहे राजनीतिक मुद्दों पर अपना रुख इंगित करने के लिए उकसाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.”
वहीं, वहां के नागरिक समूह उनकी बात का यह कहते हुए विरोध कर रहे हैं कि असल में शिक्षा मंत्री की सोच अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत बच्चों के लिए शिक्षा के वास्तविक लक्ष्यों के खिलाफ है. इन वास्तविक लक्ष्यों के अंतर्गत बच्चों के व्यक्तित्व, उनकी मानसिक क्षमताओं, सांस्कृतिक पहचान, उनके मूल्यों के विकास, मानवाधिकारों के प्रति सम्मान और उन्हें स्वतंत्र समाज में एक जिम्मेदार जीवन के लिए तैयार करने जैसी बातें शामिल की गई हैं. इस तरह, यह कहा जा सकता है कि कई राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर बच्चों को उनके अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सुरक्षित है.
और क्या स्कूली बच्चों को यह अनुमति दी जानी चाहिए, या फिर उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए कि उन्हें कक्षा में बढ़ने के लिए, या अपने स्कूल के अखबार या स्कूल के ब्लॉग पर आलेख पोस्ट करने के लिए, या आर्ट की क्लास में पेंटिंग बनाने के लिए, या फिर खुले मैदान में भाषण प्रतियोगिता के लिए समसामयिक राजनीति से जुड़े विषयों पर बहस करने के लिए अनुमति दी जानी चाहिए.
अफगानिस्तान में ऐसे भी शिक्षा की पूर्ण पहुंच से दूर हो सकते हैं बच्चे
कोरोना आपदा के दौरान अफगानिस्तान सरकार के एक प्रस्ताव पर विश्व के कुछ मानवाधिकार संगठनों ने शिक्षा के क्षेत्र में वहां की सरकार की प्रतिबद्धता को लेकर चिंता जताई है. इस प्रस्ताव में कहा गया है कि प्राथमिक स्कूलों के तहत पहले तीन वर्षों के लिए बच्चे मस्जिद में पढ़ेंगे. पिछले 6 दिसंबर को अफगानिस्तान सरकार द्वारा लाए गए इस प्रस्ताव के बाद से ही ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ जैसे वैश्विक संगठन अफगानिस्तान में बच्चों के लिए शिक्षा की पूर्ण पहुंच की मांग कर रहे हैं.
दरअसल, इस प्रस्ताव को लाते समय अफगानिस्तान की शिक्षा मंत्री रंगीना हमीदी ने यह घोषणा की थी कि, “हम स्कूल की अवधि की पहली, दूसरी और तीसरी कक्षाओं को मस्जिद में स्थानांतरित करने के लिए काम कर रहे हैं.” उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था कि नए भर्ती हुए छात्र मस्जिद परिसर के भीतर लगने वाले स्कूल में इन तीन कक्षाओं का अध्ययन करेंगे और फिर उसके बाद चौथी कक्षा के लिए स्कूल जाएंगे.
इस मुद्दे को लेकर ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ में महिला अधिकार विभाग की अंतरिम सह-निदेशक हीथर बार की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. उनके मुताबिक मुद्दा यह नहीं है कि प्राथमिक स्कूल के बच्चों को धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए या नहीं. अफगानिस्तान के स्कूली राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में इस्लामिक अध्ययन पहले से ही एक प्रमुख भाग के रुप में शामिल है.
वह कहती हैं, “इस प्रस्ताव को नीतियों के क्रियान्वयन में और अधिक स्पष्टता लाने के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. क्योंकि, इस प्रस्ताव से एक खतरा यह है कि गरीब समुदाय और दूरदराज के कई बच्चे शिक्षा से वंचित हो सकते हैं.” उनकी यह चिंता इस तथ्य से जुड़ी हुई है कि अफगानिस्तान में 41% स्कूलों के पास अपने भवन नहीं हैं.
इसके पीछे वजह यह बताई जा रही है कि मस्जिदें राष्ट्रीय पाठ्यक्रम को मानने के लिए बाध्य नहीं होती हैं. वहां शिक्षा मंत्रालय द्वारा निगरानी का कोई तंत्र तैयार नहीं है और बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को लेकर भी किसी तरह की कोई सुनिश्चितता नहीं है. ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ के सर्वेक्षण में मस्जिदों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों ने यह बताया कि वहां उन्हें मुख्य रुप से धार्मिक शिक्षा दी जाती है.
आमतौर पर ऐसे बच्चे चौथी के लिए सरकारी स्कूलों में दाखिल होने लायक नहीं रहते हैं, क्योंकि उनमें चौथी के स्तर की प्रारंभिक शिक्षा की कमी रहती है. ऐसे में अफगानिस्तान सरकार का तीन साल मस्जिद में पढ़ाने के बाद चौथी से सरकारी स्कूलों में बच्चों को स्थांतरित करने का प्रस्ताव अपनेआप में ही सवाल पैदा करता है. जबकि, मस्जिदों को शिक्षा मंत्रालय द्वारा पंजीकृत किया जाना चाहिए और मस्जिदों को बच्चों के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम पढ़ाना चाहिए. लेकिन, लंबे समय तक की जा रही इन मांगों के बावजूद ऐसा किसी प्रकार का कोई सुधार होता नहीं दिख रहा है.
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
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