बाघ आदि के लिए आदिवासी को शत्रु मानना कितना ठीक?

यदि हम भारत में वन्य जीवन और वनों के इतिहास पर नजर डालें तो जो अंग्रेज पहले शिकार के शौक में लिप्त थे, वे बाद में प्रकृति प्रेमी और वन्यजीव रक्षक के रूप में उभरे. बाद में देशी वनवासियों को यह सब भूलकर वन्य जीवन के प्रति अपने प्रेम का पोषण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. लेकिन आदिवासी सहजीवन का इतिहास नहीं लिख सके. इसलिए जंगल और वन्य जीवों को बचाने में उनकी उपलब्धियां सामने नहीं आ सकीं.

Source: News18Hindi Last updated on: September 19, 2022, 7:07 pm IST
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बाघ आदि के लिए आदिवासी को शत्रु मानना कितना ठीक?
Tiger and tribe

बाघ आदिवासियों के लिए पराया नहीं है, बल्कि नागरिक समाज के लिए आदिवासी भी पराया है और बाघ भी पराया है. इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए बाघ संरक्षण योजना के लिए ‘आदिवासी हटाओ’ धारणा को चुनौती दी जा रही है. यह सवाल तक पूछे जा रहे हैं कि प्रकृति और वन्य जीवन के साथ आदिवासी संबंधों को समझे बिना बाघ पुनर्वास के तहत ‘मानव-मुक्त’ परियोजनाओं को लागू करने वाले लोग प्रकृति प्रेमी कैसे हैं?


बात अठारहवीं शताब्दी के अंत की है, स्टेनली डब्ल्यू कॉक्सन चंद्रपुर जिले के उपायुक्त थे, जो मध्य भारत के सबसे बड़े ब्रिटिश अधिकारी थे. एक दिन जब वह जिंगरू नाम के अपने आदिवासी सेवक के साथ गढ़चिरौली के पास कोरची इलाके में एक जमींदार की संपत्ति के विवाद को सुनने के लिए जा रहे थे, तभी उन्हें जंगल में एक आदिवासी दिखाई दिया. उस आदिवासी के दोनों हाथों में बाघ के दो शावक थे.


वह आदिवासी बाघ के शावकों को उनकी मां से दूर अपने घर ले जा रहा था. वह आदिवासी उन्हें अपने घर पर पालना चाहता था. जिंगरू ने स्टेनली को दोनों शावक खरीदने के लिए कहा. अंग्रेज अधिकारी स्टेनली के लिए बाघों को घर पर पालने का विचार रोमांचक लगा. अंत में उन्होंने सौदा कर लिया. 25-25 रूपए में दोनों शावकों को स्टेनली अपने सरकारी आवास पर ले आए. तब मुंबई से विशेष रूप से एक बोतल मंगवाई गई थी, ताकि बाघ के शावकों को दूध पिलाया जा सके.

अगले तीन महीने तक बाघ के शावक बंगले में बंदरों के साथ खुशी-खुशी खेलते रहे. इस नजारे को देखने के लिए लोग रोजाना स्टेनली के आवास पर जमा होते थे. एक दिन उनमें से एक बाघ के शावक ने खेलते समय स्टेनली की मिट्टी के बर्तनों को नुकसान पहुंचाया. इस घटना से डरकर अफसर ने शावकों को मुंबई के एक सर्कस में बेच दिया. वहां से वे बाद में लंदन के चिड़ियाघर पहुंचे. रिटायरमेंट के बाद इंग्लैंड लौटे स्टेनली ने इस घटना को अपनी आत्मकथा ‘एंड दैट रिमाइंड्स मी’ में लिखा है. लंबे समय से मध्य भारत में काम करने वाले स्टैनली ने आदिवासियों और बाघों के बीच सहजीवन पर बहुत खुलकर लिखा है.


नहीं टूटा आदिवासियों और बाघों का सहजीवन


अंग्रेज चले गए, देश को आजादी मिली, लेकिन आदिवासियों और बाघों का सहजीवन नहीं टूटा. रायपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में आदिवासियों द्वारा जवाहरलाल नेहरू को बाघ का शावक भेंट करने का इतिहास है. रायपुर के पास नारायणपुर में रहने वाले चंद्रू की कहानी विश्व प्रसिद्ध है. भारत के पहले ‘मोगली’ की उपाधि धारण करने वाले चंद्रू ने घर में एक बाघ को पाला. उनकी अनोखी दोस्ती की कहानी पूरी दुनिया में चर्चा में थी. यह स्वीडिश फिल्म निर्माता अर्ने सैक्सफोर्ड द्वारा इस पर बनाई गई फिल्म ‘द फ्लूट एंड द एरो’ की वजह से है. यह फिल्म भारत में ‘इन द जंगल सागा’ के नाम से रिलीज हुई थी.

यह कहानी है 1957 की.


दुनिया भर में मशहूर हुई इस फिल्म की वजह से सैक्सफोर्ड को दौलत और शोहरत मिली. लेकिन, इसमें काम करने स्वीडन गए भारतीय आदिवासी चंद्रू को सिर्फ दो रुपए प्रतिदिन का वेतन मिलता था. भारत लौटने पर चंद्रू नेहरू से मिले. नेहरू ने उसे पढ़ाई करने की सलाह दी. लेकिन, घर-गृहस्थी कैसे चलाई जाए, इस बात को लेकर असमंजस में पड़ा चंद्रू गांव आ गया. आखिरकार वर्ष 2013 में चंद्रू ने गरीबी में दुनिया छोड़ दी. उसके बाद सरकार जाग गई और रायपुर में चंद्रू का एक स्मारक बनाया गया.

सवाल है कि इतिहास को इस तरह से याद करने का क्या कारण है? दरअसल, इसका कारण वर्तमान स्थिति में छिपा है. आरोप है कि आजादी के बाद, बाघ संरक्षण की भूमिका निभाने वाली सरकारों ने बाघों की सुरक्षा के लिए आदिवासियों की भूमिका को खतरे के रूप में लेकर इस जनजाति को खलनायक बनाने का एक व्यवस्थित प्रयास किया. ऐसा प्रयास करने वाले सभी वन्यजीव प्रेमी नागरिक समाज से थे और हैं. उन्होंने न केवल इतिहास की उपेक्षा की, बल्कि इतिहास में दर्ज बाघ और आदिवासियों के सहजीवन की घटनाओं को भी अलग कर दिया. बाघ की सुरक्षा को लेकर आदिवासियों का क्या कहना है, इस बारे में किसी ने विचार तक नहीं किया, जबकि बाघों को सुरक्षित रखने में आदिवासियों के कौशल का इस्तेमाल किया जा सकता था.


अमेरिका ने बनाया दुनिया का पहला राष्ट्रीय-उद्यान


दुनिया भर में आदिवासियों की अपनी कोई ‘आवाज’ नहीं थी, इसलिए इस मुद्दे पर उनका मत और अधिकार को बेरहमी से छीन लिया गया और ‘मानव-रहित बाघ परियोजना’ की अवधारणा को सामने रखा गया. यह अवधारणा मूलत: पश्चिम की है. इस अवधारणा के तहत दुनिया भर के आदिवासी ‘शिकारी’ की छवि में कैद हैं. बता दें कि अमेरिका के ‘येलोस्टोन’ को दुनिया के पहले राष्ट्रीय-उद्यान के रूप में मान्यता प्राप्त है. इसके निर्माण के दौरान आदिवासियों को बेदखल कर दिया गया था.


बाद में यह अवधारणा यूरोप में फैल गई और बाघों को बसाने के नाम पर बड़े पैमाने पर आदिवासियों को उजाड़ा गया. भारत भी इससे अछूता नहीं रहा. बाघों के नाम पर दशकों तक आदिवासियों का विस्थापन इसी अवधारणा का परिणाम है. इस नीति को लागू करते समय इस बात पर विचार नहीं किया गया कि आदिवासी वास्तव में बाघों के दुश्मन थे भी या नहीं?


यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि आदिवासी बाघों के दुश्मन नहीं था, बल्कि बाहर से जंगल में घुसने वाले अन्य समुदाय के लोगों ने बड़ी संख्या में बाघों को मार डाला. मुगल-काल के दौरान दो उर्दू शब्द ‘चरगा’ और ‘शिकारागा’ पूरे देश में लोकप्रिय थे. बाद में, ब्रिटिश शासन लागू हुआ तो ‘गेम रिजर्व’ शब्द प्रचलन में आया. इन दोनों अवधियों और उसके पूर्व में भी बाघों का शिकार ज्यादातर राजा, नवाबों और ब्रिटिश अधिकारी करते थे. वहीं, शिकार के उपकरण और खाने-पीने का भार इन आदिवासियों के कंधों पर ही रहा.


अंग्रेजों ने तीन साल में मारे 320 बाघ


मध्य-प्रदेश बनने से पहले गुलाम भारत में सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार नाम का स्टेट था. 25 सितंबर, 1940 के रिकॉर्ड के अनुसार, वर्ष 1937 से 1940 के बीच मध्य भारत के इस स्टेट में कुल 320 बाघों का शिकार किया गया था. इस दौरान अंग्रेज शासन ने कुल 468 शूटिंग परमिट बांटे थे. इसमें कोई आदिवासी नहीं था. हालांकि, इन शिकार की घटनाओं के दौरान आदिवासी मौजूद थे, लेकिन केवल कुली के रूप में.

आजादी के 75 साल बाद भी आदिवासियों में शिक्षा का स्तर अभी भी बहुत कम है. मुगल और ब्रिटिश शासन के दौरान ये जनजातियां बहुत पिछड़ी हुई थीं. शिक्षा से पूरी तरह बेदखल थीं. ऐसी स्थिति में आदिवासियों की नियति बन गई थी की मजदूरी के लिए वे शिकारियों की मदद करें. लेकिन, आज मुख्य रूप से उन्हें ही दोषी ठहराने और उन्हें जंगल से बाहर निकालने की नीति सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत और लोकप्रिय हो गई है. वहीं, बाघों के बारे में इन जनजातियों की भावनाओं, परंपराओं, विश्वासों और रीति-रिवाजों के बारे में नहीं सोचा गया.


चंद्रपुर जिले में तडोबा स्थित तारू नाम का एक देवता है, जो आज पूरी दुनिया में लोकप्रिय है. तारू एक आदिवासी था और एक बाघ द्वारा मारा गया था. उसकी स्मृति को जीवित रखने के लिए आदिवासियों ने मंदिर बनवाया. उसके मरने के बाद आदिवासियों ने नहीं सोचा था कि वे बाघों को भी मारेंगे. लेकिन, आज आदिवासियों को मंदिर में जाने की अनुमति नहीं है. वजह यह है कि यह एरिया टाइगर रिजर्व का कोर एरिया घोषित किया गया है.


बाघ को भगवान मानते हैं आदिवासी


ताडोबा ही नहीं देश में किसी भी बाघ परियोजना को देखिए. हर जगह कहीं न कहीं बाघ की मांद नजर आती है. आदिवासी शिकार के लिए जाने जाते हैं. यह सच है कि वे इस पर रहते हैं, लेकिन यह झूठ है कि वे लगातार बाघों का शिकार करते थे. इसके विपरीत, देश में कई आदिवासी जनजातियां हैं जो बाघ को भगवान के रूप में पूजती हैं. आज भी जहां कहीं भी बाघ परियोजना होती है, वहां सभी क्षेत्रों में आदिवासियों का दबदबा रहता है. अगर इनका शौक बाघों का शिकार करना होता तो इस इलाके में इतने बाघ न होते. दुर्भाग्य से, सरकारों ने इस तथ्य पर कभी विचार नहीं किया.


यदि हम भारत में वन्य जीवन और वनों के इतिहास पर नजर डालें तो जो अंग्रेज पहले शिकार के शौक में लिप्त थे, वे बाद में प्रकृति प्रेमी और वन्यजीव रक्षक के रूप में उभरे. बाद में देशी वनवासियों को यह सब भूलकर वन्य जीवन के प्रति अपने प्रेम का पोषण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. बाघ परियोजना का नाम जिम कॉर्बेट के नाम पर रखा गया था, जो एक बाघ शिकारी के रूप में प्रसिद्धि के लिए उभरा और बाद में केवल आदमखोर बाघों को मारने के रुख के साथ रहा, लेकिन सरकार ने कभी नहीं सोचा था कि बाघ परियोजना का नाम उन आदिवासी समूहों के नाम पर रखा जाना चाहिए जिन्होंने सहजीवन की एक समृद्ध परंपरा संरक्षित की है. कई जो पहले शिकारी बने और बाद में उन्हीं ने वन्य जीवन के प्रति बड़े उत्साह से अपने अनुभव लिखे. अशिक्षित आदिवासी सहजीवन का ऐसा इतिहास नहीं लिख सके. इसलिए जंगल और वन्य जीवों को बचाने में उनकी उपलब्धियां सामने नहीं आ सकीं. यह विचार कि आदिवासी वन्यजीवों और बाघों के दुश्मन हैं, देश में एक ही विचार के कारण पैदा हुए थे. इस ‘मूक’ जनजाति को इससे गहरा धक्का लगा.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
शिरीष खरे

शिरीष खरेलेखक व पत्रकार

2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.

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First published: September 19, 2022, 7:07 pm IST

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