कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है कि जलवायु परिवर्तन का मुद्दा कब खत्म होगा. वहीं, सच्चाई तो यह है कि इसके चलते होने वाले दुष्परिणामों की सूची बढ़ती ही जा रही है. वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (WWF-World Wild Fund) की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट प्रतिकूल प्रभावों की सूची को ही विस्तार देती है.
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड की यह रिपोर्ट बताती है कि वन्यजीवों की संख्या में 70 प्रतिशत की कमी आई है. वहीं, मीठे पानी की प्रजातियों की संख्या में 83 प्रतिशत तक घटी है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रकृति-अनुकूल समाज समय की मांग है और हम इसे खोने का जोखिम नहीं उठा सकते. अध्ययन में स्तनधारी, पक्षी, उभयचर, सरीसृप और मछलियों पर शोध किया गया है. इसमें बताया गया है कि 1970 के बाद से वन्यजीवों की संख्या में विनाशकारी गिरावट आई है. हालत यह है कि गए 55 वर्षों में 70 प्रतिशत वन्य जीव घट गए.
रिपोर्ट में प्रकृति की स्थिति के बारे में एक स्पष्ट दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला गया है. इसने सरकार, गैर सरकारी संगठनों, नागरिकों को जैव विविधता का विनाश रोकने के लिए तत्काल परिवर्तनकारी कार्रवाई करने की सलाह दी है. हालांकि, असली सवाल यह है कि इस कार्रवाई को शुरू करने की पहल कौन करेगा? कारण यह है कि पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन के लिए भले ही सब कुछ किया जा रहा हो, लेकिन वास्तव में उस पर अमल नहीं हो रहा है. इसका एक बड़ा उदाहरण पेरिस समझौता है.
बढ़ रहे दोहरे आपातकाल की ओर
भारत सहित कई देशों ने समझौते पर हस्ताक्षर किए और कार्बन उत्सर्जन को कम करने का संकल्प लिया. तथ्य यह है कि पांच साल से अधिक समय के बाद भी किसी भी देश ने इतनी प्रगति नहीं की है. वन्य जीवों के लिहाज से विश्व स्तर पर स्थितियां आपातकाल की ओर बढ़ रही हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता का नुकसान परस्पर संबंधित स्थितियां हैं, जो सीधे और परोक्ष तौर पर मानवीय गतिविधियों का परिणाम हैं. जब तक मनुष्य इन स्थितियों को दो अलग-अलग समस्याओं के रूप में देखना बंद नहीं कर देता, तब तक किसी भी समस्या से प्रभावी ढंग से निपटा नहीं जा सकेगा.
मानवीय सभ्यता और विकास के क्रम में प्राकृतिक तौर पर जो नुकसान हुआ है, जलवायु परिवर्तन उसी का नतीजा है, जिससे जैव विविधता भी बुरी तरह प्रभावित होती जा रही है. जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को होने वाला नुकसान आने वाली पीढ़ियों के जीवन को खतरे में डाल सकता है.
अहम बात यह है कि दुनिया के सबसे जैव विविधता वाले उष्णकटिबंधीय क्षेत्र और सबसे बड़ी संख्या में वन्य जीवों के घर कहे जाने वाले इलाकों में जैव विविधता के नुकसान के बारे में चिंता जाहिर की जा रही है. दुनिया भर में वन्यजीवों की गिरावट के मुख्य कारण आवास का सिमटते जाना, वनों पर मानव अतिक्रमण, प्रदूषण और विभिन्न संक्रामक रोग हैं.
अफ्रीका में वन्य जीवों को सबसे ज्यादा सफाया
ये कारक अफ्रीका में 66 प्रतिशत वन्यजीवों और एशिया प्रशांत क्षेत्र की कुल जैव विविधता के 55 प्रतिशत के नुकसान के लिए जिम्मेदार हैं. जीवन की शुरुआत के बाद से मीठे पानी की प्रजातियों में औसतन 83 प्रतिशत की गिरावट आई है, जो किसी भी प्रजाति समूह की सबसे बड़ी गिरावट है. जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता का नुकसान न केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा है बल्कि एक आर्थिक, विकास, सुरक्षा और सामाजिक मुद्दा भी है और इसलिए ठोस कार्रवाई की आवश्यकता है. भारतीय उपमहाद्वीप में जलवायु परिवर्तन जल संसाधन, कृषि और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र, स्वास्थ्य और खाद्य श्रृंखला जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों को प्रभावित करता है. इसलिए एक व्यापक सामूहिक दृष्टिकोण आवश्यक है.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पिछले चार दशकों में सुंदरबन में 135 वर्ग किलोमीटर के मैंग्रोव वन नष्ट हो गए हैं. रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे हमने जीवन की नींव को नष्ट कर दिया है और कैसे स्थिति बदतर होती जा रही है.
दुनिया की आधी अर्थव्यवस्था और अरबों लोग जीवित रहने के लिए सीधे प्रकृति पर निर्भर हैं. अध्ययन के लेखकों ने कहा कि बढ़ती जलवायु, पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य संकटों को दूर करने के लिए जैव विविधता के नुकसान को रोकना और महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करना वैश्विक एजेंडे में सबसे ऊपर होना चाहिए. यदि प्राकृतिक संसाधनों का उचित मूल्यांकन करना है, तो नीति निर्माताओं को अर्थव्यवस्था को बदलना होगा.
हालांकि, इस बात को लेकर संशय बना हुआ है कि विकास की ओर लौटने पर ये सब चीजें पूरी होंगी या नहीं. प्रकृति का एक भी तत्व कम हो जाए तो भी प्रकृति का सारा चक्र अस्त-व्यस्त हो जाता है और अब यही हुआ है. पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है. इसका असर जीवों पर पड़ रहा है. मानव स्वास्थ्य पहले ही प्रभावित हो चुका है, लेकिन अब यह वन्यजीवों को भी प्रभावित कर रहा है. यह रिपोर्ट मनुष्य को भविष्य के खतरे से आगाह करती है.
पांच देशों के भविष्य पर खतरा
तापमान वृद्धि के कारण समुद्र का स्तर बढ़ रहा है और लोगों को अपनी जमीन और पहचान खोने का डर सता रहा है. पांच देशों के लिए सबसे ज्यादा डर है: मालदीव, तुवालु, मार्शल आइलैंड्स, नाउरू और किरिबाती. मालदीव हिंद महासागर में है और शेष चार देश प्रशांत महासागर में हैं. मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने हाल ही में यह आशंका जताई है.
जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार 1900 के बाद से समुद्र का स्तर 15 से 25 सेंटीमीटर या छह से दस इंच बढ़ा है. समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तूफान की लहरें बढ़ेंगी. ज्वार और उतार-चढ़ाव में भी वृद्धि होगी. इसलिए, पानी और जमीन का नमक संदूषण छोटे जानवरों की कॉलोनियों को नष्ट कर देगा. द्वीप गायब हो जाएंगे और मूल निवासियों को अन्य क्षेत्रों में विस्थापित होना पड़ेगा.
समुद्र तट पर धूप सेंकने आने वाले पर्यटकों के पास अब इसके लिए जगह नहीं होगी. समुद्री कछुए आमतौर पर किनारे पर रेत में अपने अंडे देते हैं. हालांकि, जैसे-जैसे समुद्र का स्तर बढ़ेगा, उनके लिए अंडे देने के लिए कोई जगह नहीं होगी. इससे न केवल तटीय क्षति होगी, बल्कि कृषि गतिविधियों, सार्वजनिक सेवाओं आदि पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा. इसके अलावा पेयजल आपूर्ति, सड़कें और मानव बस्तियां भी प्रभावित होंगी.
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
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