ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग से संबधित एक विधेयक किसी विवाद के बगैर पास हो गया. आश्चर्य जताया जाना चाहिए कि जब मत विभाजन हुआ तो पक्ष और विपक्ष के सभी वोट संविधान संशोधन के पक्ष में पड़े. यानी किसी ने भी कोई आपत्ति या अंदेशा नहीं जताया. गौर से देखा जाना चाहिए कि आखिर ये क्या मामला है कि इतनी जबर्दस्त सहमति बन गई. दरअसल संविधान संशोधन में इतना भर हुआ है कि अन्य पिछड़ा वर्गों की सूची बनाने का अधिकार राज्यों को दे दिया जाएगा. इसका मतलब है कि अभी यह अधिकार केंद्र के पास था और वह इस तरह की सूची बनाने के काम से मुक्त हो गया. अलबत्ता कहा यह गया है कि राज्यों को सशक्त बनाया गया है.
बेशक असंख्य जातियों वाले अपने समाज में पिछड़ी जातियों की पहचान का काम बहुत ही जटिल और संवेदनशील काम है. अब तक का अनुभव है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में शामिल होने के लिए कई जातियां पूरा ज़ोर लगाकर अपनी उम्मीदवारी जताती हैं और तय करना मुश्किल हो जाता है कि किसे शामिल करें और किसे छोड़ दें. कम से कम केंद्र के लिए तो यह काम हद से ज्यादा मुश्किल था. सो ठीक हुआ कि अब राज्य अपने यहां अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों की पहचान का काम किया करेंगे. हालांकि अभी यह अंदाजा बिल्कुल भी नहीं लगाया जा सकता कि नई व्यवस्था में जातियों की पहचान का आधार क्या होगा? वैसे इसके पहले कई राज्य कुछ जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कराने की कवायद कर चुके हैं. लेकिन उस पर हमेशा विवाद ही खड़े होते रहे हैं. जाहिर है कि आगे जो भी आधार सोचा जाएगा उसमें विवाद से पीछा छूटेगा नहीं.
तर्क खोजना बड़ा काम
जातियों का विवाद समझना कठिन नहीं है. सब जानते हैं कि मामला सीधे-सीधे नौकरियों और दाखिलों में आरक्षण से जुड़ा है. नौकरियों और दाखिलों के लिए इतनी जबर्दस्त मारामारी है कि ज्यादा से ज्यादा सामान्य वर्ग वाली जातियां भी चाहती हैं कि उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिल जाए. जाहिर है कि कई जातियां खुद को पिछड़ा घोषित किए जाने की भरसक कोशिश करती हैं. अब अगर ऐसी जातियों की पहचान करने की जिम्मेदारी राज्यों के पास ही आ गई है तो उन्हें सोच विचार की नई व्यवस्था बनानी ही पड़ेगी.
लेकिन पहचान होने के बाद भी क्या होगा?
यही होगा कि अभी अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए जो 27 फीसदी आरक्षण तय है उसमें कुछ और ज्यादा जातियों की हिस्सेदारी होने लगेगी. या फिर यह होगा कि अन्य पिछड़ा वर्ग की कुल आबादी बढ़ जाएगी और हमें देखने को मिलेगा कि समानुपातिक आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए तय कोटा बढ़ाने की मांग उठेगी. अलबत्ता यह बात अभी भी हो रहा है. अन्य पिछड़ा वर्ग अभी भी दावा करता है कि आबादी में उनका अनुपात ज्यादा है और उनके लिए नौकरियों और दाखिलों में आरक्षण कम है. इधर एक बड़ी मुश्किल यह है कि अब तक के नियम कानून के मुताबिक देश में कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता. यानी मानकर चलना चाहिए कि लंबी कवायद के बाद अगर राज्य अपने अपने यहां अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए अन्य जातियों की पहचान कर भी लेंगे और उन्हें पिछड़ा वर्ग में शामिल करवा भी देंगे तो क्या उन्हें निश्चित रूप से आरक्षण का लाभ दिलाना उतना आसान होगा.
अब ये अलग बात है कि राज्यों को सूची बनाने का अधिकार मिलने के बाद समय समय पर राज्य में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल कुछ जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का ऐलान किया करेंगी और उन जातियों को तात्कालिक रूप से तुष्ट करके तात्कालिक राजनीतिक लाभ उठाया करेंगी. और उसके बाद बहुत संभव है कि सड़क, संसद और अदालतों में वाद विवाद पहले की तरह होते रहेंगे. याद रखा जाना चाहिए कि किसी व्यक्ति या तबके को कुछ भी दिया जाए उसका प्रबंध होता उपलब्ध संसाधनों से ही है. यानी जब किसी को कुछ मिलता है तो दूसरे किसी के पास से वह घटता ही है.
आरक्षण का कुल लाभ अभी है कितना?
यह शोध का विषय है कि जिन जातियों को आरक्षण का जितना लाभ इस समय मिल रहा है वह है कितना सा? वो तो बेरोजगारी के आंकड़े उपलब्ध नहीं है इसलिए ठोक कर कुछ भी नहीं कहा जा सकता. लेकिन यह सबके सामने है कि आरक्षित जातियों की आबादी में उतनी ही बेरोज़गारी है जितनी बेरोजगारी दूसरे तबकों में है. फर्क इतना जरूर हो सकता है कि सामान्य वर्ग के हजार में दो लोगों को लाभ से वंचित होना पड़ता हो और आरक्षण की व्यवस्था के कारण आरक्षित जातियों के हजार लोगों में दो को लाभ मिल जाता हो. लेकिन सिर्फ दो नहीं बल्कि पूरे हजार लोगों को लगता है कि वे व्यवस्था के कारण वंचित रह गए. ऐसी ही स्थिति सरकारी संस्थानों में दाखिलों को लेकर है. उलझाव यहीं तक सीमित नहीं है. तय आरक्षण के हिसाब से पदों पर पूरी नियुक्तियां अभी भी नहीं हो पा रही हैं. वैसे अगर दूर खड़े होकर देखा जाए तो समस्या अगड़े पिछड़ों के आधार पर दाखिले की समस्या की उतनी नहीं है बल्कि शिक्षा के आधारभूत ढांचे के अभाव की ज्यादा है.
बेशक पिछड़ों को आगे लाना जरूरी
हम भारतवासी अच्छी तरह से सोचविचार के बाद तय कर चुके हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था सबसे बेहतर राजव्यवस्था है. और लोकतंत्र मानता है कि सबको समान अवसर मिले. इसीलिए जो तबके सदियों से वंचित रहे और पिछड़ गए उन्हें अब मुआवजा देकर आगे लाने की व्यवस्था बनी. नैतिकता के किसी भी पैमाने पर यह बात ठीक ही साबित होती है. लेकिन समस्या यह है कि कुछ पिछड़ों को आगे लाने के लिए संसाधनों का प्रबंध कहां से किया जाए? और इसीलिए घूमफिर कर बात आर्थिक संसाधनों को बढ़ाने की ही करनी पड़ेगी. यानी अगर आर्थिक संसाधन बढ़ाए जा सकें तो सब जानते हैं कि उनका न्यायपूर्ण बंटवारा करना मुश्किल काम नहीं होता. वैसी स्थिति में आरक्षण या अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल होने के लिए इतनी मारामारी होगी ही नहीं.
अपराधशास्त्र और न्यायालिक विज्ञान में उच्च शिक्षा हासिल की. सागर विश्वविद्यालय में पढाया भी. उत्तर भारत के 9 प्रदेश की जेलों में सजायाफ्ता कैदियों पर विशेष शोध किया. मन पत्रकारिता में रम गया तो 27 साल 'जनसत्ता' के संपादकीय विभाग में काम किया. समाज की मूल जरूरतों को समझने के लिए सीएसई की नेशनल फैलोशिप पर चंदेलकालीन तालाबों के जलविज्ञान का शोध अध्ययन भी किया.देश की पहली हिन्दी वीडियो 'कालचक्र' मैगज़ीन के संस्थापक निदेशक, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनोलॉजी एंड फॉरेंसिक साइंस और सीबीआई एकेडमी के अतिथि व्याख्याता, विभिन्न विषयों पर टीवी पैनल डिबेट. विज्ञान का इतिहास, वैज्ञानिक शोधपद्धति, अकादमिक पत्रकारिता और चुनाव यांत्रिकी में विशेष रुचि.
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