बजट में खर्च बढ़ाने के उपायों पर फोकस रहने की उम्मीद
कोरोना के बार-बार सिर उठाने और इसके चलते लगने वाली बंदिशों से कारोबार प्रभावित हुआ है. जब कारोबार कम होगा तो असर टैक्स कलेक्शन पर भी होगा. अब राज्य मांग कर रहे हैं कि जीएसटी कंपनसेशन की व्यवस्था और पांच साल के लिए बढ़ाई जाए. अभी तक केंद्र सरकार ने ऐसा कोई संकेत तो नहीं दिया है, अब देखना है कि 1 फरवरी को पेश किए जाने वाले 2022-23 के बजट में इसका कोई जिक्र होता है या नहीं.

1 जुलाई 2017 को जब जीएसटी की व्यवस्था शुरू हुई, तो उसके साथ एक और कानून अमल में आया था. कानून यह था कि अगर राज्यों के रेवेन्यू में सालाना 14% की बढ़ोतरी नहीं हुई, तो उसकी भरपाई केंद्र सरकार करेगी. इसका आधार 2015-16 के रेवेन्यू कलेक्शन को माना गया था.
इसी शर्त के साथ राज्य जीएसटी लागू करने पर सहमत हुए थे. लेकिन, केंद्र को यह भरपाई सिर्फ पांच साल के लिए करनी है और यह अवधि इस साल जून में खत्म हो जाएगी. इस दौरान राज्यों का राजस्व उम्मीद के मुताबिक तो बढ़ा नहीं, उल्टे दो साल में कोरोना के कारण उनकी स्थिति और खराब हुई है.
कोरोना के बार-बार सिर उठाने और इसके चलते लगने वाली बंदिशों से कारोबार प्रभावित हुआ है. जब कारोबार कम होगा तो असर टैक्स कलेक्शन पर भी होगा. अब राज्य मांग कर रहे हैं कि जीएसटी कंपनसेशन की व्यवस्था और पांच साल के लिए बढ़ाई जाए. अभी तक, केंद्र सरकार ने ऐसा कोई संकेत तो नहीं दिया है.
अब देखना है कि 1 फरवरी को पेश किए जाने वाले 2022-23 के बजट में इसका कोई जिक्र होता है या नहीं. यह बजट ऐसे समय आ रहा है जब उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य समेत पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं. इस साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. इसलिए बजट में कुछ लोकप्रिय घोषणाएं की जा सकती हैं.
रेवेन्यू कम, तो राज्य नया खर्च कहां से करेंगे
कोरोना के बार-बार लौटकर आने से जो आर्थिक गतिविधियां बाधित हुई हैं, उसे पटरी पर लाने का एकमात्र उपाय सरकारी खर्च बढ़ाना है. केंद्र सरकार ने रोड और रेलवे जैसे क्षेत्र में खर्च बढ़ाए हैं, फूड और फर्टिलाइजर सब्सिडी का खर्च भी बढ़ा है. अब केंद्र सरकार की कोशिश यह है कि राज्य भी इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ाएं. लेकिन जब समस्या रेवेन्यू की हो तो राज्य नया खर्च कहां से करेंगे.
एक विकल्प यह है कि राज्यों को लंबी अवधि के लिए ब्याज मुक्त या बहुत ही कम ब्याज पर कर्ज दिया जाए और राज्य उसे खर्च करें. इससे डिमांड बढ़ाने में मदद मिल सकती है. बजट में राज्यों के लिए कर्ज जुटाने के उपाय आसान करना एक अच्छा उपाय हो सकता है. केंद्र के साथ पिछले महीने प्री बजट मीटिंग में राज्यों ने केंद्र सरकार की स्कीमों में केंद्र का हिस्सा 40% से बढ़ाकर 50% करने की मांग की थी.
केंद्र सरकार टैक्स कलेक्शन का 41% राज्यों को देती है. कोरोना के चलते हाल के महीनों में राज्यों की वित्तीय स्थिति इतनी खराब हो गई कि केंद्र को राज्यों को टैक्स कलेक्शन की कुछ रकम एडवांस में देनी पड़ी. लेकिन इससे राज्य इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ा सकेंगे, ऐसी उम्मीद कम है, क्योंकि अक्टूबर के अंत में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु समेत कई राज्य निगेटिव बैलेंस में चले गए थे. एडवांस रकम से तो वे जरूरी नियमित खर्च ही पूरा कर सकने की स्थिति में होंगे.
निचले वर्ग को कैश इंसेंटिव बेहतर विकल्प
कोरोना का असर दो साल से है. इस दौरान अनेक विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों ने सुझाव दिया कि अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने के लिए सरकार लोगों के हाथों में पैसा दे. हालांकि कुछ अर्थशास्त्री ऐसे कदमों का विरोध करते हैं, क्योंकि अमेरिका में जब कोरोना लॉकडाउन के दौरान लोगों को सरकार ने पैसे दिए तो अनेक लोगों ने वह पैसा शेयर बाजार में लगा दिया.
लेकिन, भारत की तुलना ऐसे मामलों में अमेरिका से करना ठीक नहीं लगता. भारत में शेयर बाजार में पैसे लगाने वालों की संख्या बहुत थोड़ी है. कैश इंसेंटिव की जरूरत आमदनी के लिहाज से समाज के निचले वर्ग को है और शेयर बाजार के निवेशक निश्चित रूप से इस वर्ग में नहीं आते. यहां तो हालत यह है कि 60% लोगों की कमाई घट गई.
अपर मिडल क्लास के 20% लोगों की कमाई तो कुछ बढ़ी है, लेकिन संकट की इस घड़ी में सबसे अधिक फायदे में अमीर रहे जिनकी कमाई करीब 40% बढ़ गई.
अब तक के उपायों से चुनिंदा वर्ग को लाभ
अर्थशास्त्री और इंडस्ट्री के विशेषज्ञ अब भी लोगों को कैश इंसेंटिव देने की बात कह रहे हैं. उनका सुझाव है कि ग्रामीण इलाकों के साथ शहरी गरीबों को भी कैश इंसेंटिव दिया जाना चाहिए. जब ये लोग रोजमर्रा की जरूरतों पर खर्च करेंगे तो अर्थव्यवस्था में भी मांग निकलेगी और धीरे-धीरे वह पटरी पर आएगी.
सरकार ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अभी तक जो तरीका अपनाया है उसमें एक बड़ी खामी यह दिखती है कि इसका फायदा चुनिंदा वर्ग को ही मिल रहा है. समाज के एक बड़े वर्ग की स्थिति तो खराब ही हुई है या हो रही है. चर्चा है कि लोगों के हाथों में खर्च के लिए अधिक रकम हो, इसके लिए बजट में स्टैंडर्ड डिडक्शन की सीमा बढ़ाई जा सकती है जो अभी 50 हजार रुपए सालाना है.
लेकिन, स्टैंडर्ड डिडक्शन का फायदा तो सिर्फ नौकरीशुदा लोगों को मिलेगा. इसलिए सरकार को ऐसे उपाय करने चाहिए जिससे सभी वर्गों को लाभ मिल सके.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सुनील सिंहवरिष्ठ पत्रकार
लेखक का 30 वर्षों का पत्रकारिता का अनुभव है. दैनिक भास्कर, अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे संस्थानों से जुड़े रहे हैं. बिजनेस और राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं.