ममता बनर्जी ने 10 साल पहले लेफ्ट शासन को हटाने के लिए ‘परिवर्तन’ का नारा दिया था और इस बार भाजपा ने उन्हें हटाने के लिए ‘असली परिवर्तन’ का नारा दिया है. पश्चिम बंगाल में अब सिर्फ एक चरण का मतदान बाकी रह गया है. दो मई को नतीजे चाहे जो भी हों, उसका असर आने वाले दिनों में राष्ट्रीय राजनीति पर दिखेगा. इसलिए पुदुचेरी समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने के बावजूद विश्लेषकों की नजर पश्चिम बंगाल पर अधिक है.
इसका एक कारण यह भी है कि असम में जहां भाजपा सत्तारूढ़ है, वहां इस बार विपक्ष काफी मजबूत दिख रहा है. तमिलनाडु में भाजपा-अन्नाद्रमुक गठबंधन के दोबारा लौटने की संभावना कम नजर आ रही है. जहां तक केरल की बात है, तो भाजपा वहां सिर्फ मौजूदगी बढ़ाने का एहसास कराना चाहती है. इसलिए कुल मिलाकर पांच राज्यों में पश्चिम बंगाल ही रह जाता है जहां भाजपा को संभावनाएं दिख रही हैं. वह 10 साल शासन में रहने के बाद ममता सरकार के प्रति एंटी-इनकमबेंसी भी है। इस कारण चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से पहले से ही पार्टी ने यहां पूरा जोर लगा रखा है. चुनावों की घोषणा से कई महीने पहले ही इसने दूसरे दलों के नेताओं को तोड़ना शुरू कर दिया था.
पश्चिम बंगाल में तो कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं, लेकिन केरल में उसके नेतृत्व वाले गठबंधन यूडीएफ के लिए संभावनाएं हैं. असम में भी कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन ने भाजपा को कड़ी चुनौती दे रखी है. अगर इन दोनों राज्यों में कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनती है तो कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ जाएगी. खासकर यह देखते हुए कि पार्टी के जी-23 नेता इन विधानसभा चुनावों के दौरान प्रचार अभियान से लगभग दूर रहे. तमिलनाडु में भी कांग्रेस और द्रमुक गठबंधन को संभावनाएं दिख रही हैं. लेकिन समस्या यह है कि असम को छोड़कर पार्टी कहीं भी मजबूत स्थिति में नहीं है. तमिलनाडु में कांग्रेस, द्रमुक की पिछलग्गू पार्टी ही बनी रहेगी.
इन सब कारणों से पश्चिम बंगाल का महत्व बढ़ जाता है. इसलिए भाजपा ने यहां अपना पूरा जोर लगा दिया है. केंद्रीय मंत्रियों और दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने यहां खूब रैलियां कीं. पार्टी के अन्य नेता भी यहीं जमे रहे. भाजपा के इतना जोर लगाने के बावजूद अगर ममता बनर्जी जीतने में कामयाब होती हैं तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर उभरने में भी मदद मिलेगी.
विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने भले ही असम या पश्चिम बंगाल में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी से बचने की कोशिश की हो, लेकिन अगर वह इन दोनों राज्यों में जीत जाती है तो दावा कर सकती है कि लोगों ने सीएए और एनआरसी के पक्ष में मतदान किया है. यही बात नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन पर भी लागू होती है. भाजपा इस जीत को कृषि कानूनों की जीत भी बता सकती है. इसके उलट अगर वह हारती है तो विपक्ष सीएए, एएनआरसी और कृषि कानूनों पर भाजपा की हार का दावा कर सकता है.
पश्चिम बंगाल के नतीजे भाजपा और ममता, दोनों के लिए अलग-अलग मायने में परीक्षा की घड़ी हैं. भाजपा के पास एक समय जीतने योग्य 294 उम्मीदवारों की भी कमी थी. तब उसने तृणमूल, लेफ्ट और कांग्रेस से आए नेताओं को टिकट दिए. ये नतीजे बताएंगे कि दूसरे दलों से लाए गए नेताओं के दम पर चुनाव लड़ने की रणनीति कितनी कारगर होती है.
रही बात पश्चिम बंगाल प्रदेश की, तो वहां लंबे अरसे के बाद चुनावों में ध्रुवीकरण देखने को मिला. लेफ्ट के शासनकाल में वर्ग संघर्ष की बात होती थी, जाति या धर्म की चर्चा नहीं होती थी, ममता बनर्जी ने भी इससे पहले दो विधानसभा चुनावों में जाति या धर्म को आधार नहीं बनाया था. लेकिन इस बार जाति और धर्म का बोलबाला है. यह पश्चिम बंगाल के नागरिकों के लिए बड़ा ‘परिवर्तन’ है. (डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं.)
लेखक का 30 वर्षों का पत्रकारिता का अनुभव है. दैनिक भास्कर, अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे संस्थानों से जुड़े रहे हैं. बिजनेस और राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं.
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