‘बंगाल की बेटी’ जीत गई…और ‘खेला’ हो गया. भाजपा के शीर्ष नेताओं की दिल्ली-कोलकाता डेली पैसेंजरी (रोज आना-जाना) भी काम न आई. पार्टी ने 200 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा किया था, लेकिन तमाम एग्जिट पोल को धता बताते हुए यह संख्या हासिल की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने. मतगणना शुरू होने के बाद सुबह 10:30 बजे के आसपास पहली बार भाजपा की सीटों की संख्या 100 से नीचे आई. उसके बाद पार्टी कभी तीन अंकों में नहीं पहुंच सकी. 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल को 211 सीटें, लेफ्ट-कांग्रेस को 77 तथा भाजपा को सिर्फ तीन सीटें मिली थीं. 2021 में तृणमूल का आंकड़ा तो लगभग उतना ही है, लेकिन भाजपा और लेफ्ट-कांग्रेस के आंकड़े आपस में बदल गए हैं. प्रचार के दौरान लेफ्ट की मौजूदगी दिखी थी, लेकिन वह मतदान में नहीं बदली.
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रदेश की 121 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी. उस मुकाबले पार्टी का प्रदर्शन खराब हुआ है, जबकि उसी प्रदर्शन के आधार पर पार्टी इस बार डबल सेंचुरी लगाने की सोच रही थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को तृणमूल की तुलना में तीन गुना पोस्टल वोट मिले थे. लेकिन इस बार शुरुआत पोस्टल वोटों की गणना से हुई तो तृणमूल ने तभी से बढ़त बना रखी थी. तृणमूल का वोट प्रतिशत तो 2019 के 43% के मुकाबले 50% के करीब पहुंच गया, लेकिन भाजपा 40% से 37% पर आ गई. तृणमूल पहले कभी इतने वोट हासिल नहीं कर पाई थी.
2019 के लोकसभा चुनाव में झाड़ग्राम, कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, उत्तर और दक्षिण दिनाजपुर, पूर्व और पश्चिम वर्धमान, नदिया और हुगली जिलों में भाजपा को बढ़त मिली थी. लेकिन तृणमूल न सिर्फ इन जिलों में भाजपा से सीटें छीनने में कामयाब रही, बल्कि उसने उत्तर और दक्षिण 24 परगना जैसे अपने गढ़ को भी बचा लिया. संयुक्त मोर्चा, और खासकर आईएसएफ के चलते मुस्लिम वोटों के बंटने की बात कही जा रही थी, लेकिन वैसा भी नहीं हुआ. बल्कि ध्रुवीकरण के कारण मुस्लिम मतदाता पूरी तरह ममता के साथ हो गए.
मालदा-मुर्शिदाबाद जैसे इलाके एक समय कांग्रेस का गढ़ माने जाते थे, लेकिन वहां भी ज्यादातर सीटें तृणमूल ने जीत लीं. मतदान की ही तरह मतगणना के दौरान भी तृणमूल ने पूरी चौकसी रखी. ममता ने शनिवार को ही पार्टी नेताओं को निर्देश दिया था कि रविवार को स्ट्रांग रूम खुलने से लेकर मतगणना पूरी होने तक, पार्टी के काउंटिंग एजेंट एक पल के लिए भी टेबल नहीं छोड़ेंगे. उनके इस निर्देश के अनुसार ही पार्टी ने इंतजाम किया कि काउंटिंग एजेंट को मतगणना केंद्र से बाहर निकलने की नौबत ही ना आए. उन्हें खाना-पानी से लेकर सैनिटाइजर-मास्क तक, सबकुछ दिए गए. हर एजेंट को पार्टी की तरफ से इमरजेंसी नंबर दिए गए ताकि किसी तरह की गड़बड़ी दिखने पर वे तत्काल सूचित करें.
ममता की जीत के कारण
जब पार्टियां प्रत्याशियों की घोषणा कर रही थीं, उस दौरान और उससे पहले, तृणमूल के अनेक नेता और विधायक भाजपा में चले गए थे. तब एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 18 सीटें मिलने के बाद से ही तृणमूल 2021 की रणनीति बनाने में लग गई थी. इस रणनीति के पीछे थे ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी और पार्टी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर. वे यह देख रहे थे कि कौन से विधायक जीत सकते हैं और कौन नहीं, किनके खिलाफ स्थानीय लोगों में रोष है. जिनके टिकट कटने की संभावना थी वही नेता भाजपा में जा रहे थे. उस समय जिस तरह अभिषेक बनर्जी के खिलाफ बयानबाजी हो रही थी, मुझे भी नहीं लग रहा था कि तृणमूल की यह रणनीति काम करेगी. इसलिए मैंने अपने लेखों में कभी इस बात का जिक्र नहीं किया. लेकिन नतीजों से पता चलता है कि तृणमूल की यह रणनीति काम आई. तृणमूल से गए जिन नेताओं को भाजपा ने टिकट दिया उनमें बमुश्किल एक चौथाई को जीत मिली.
तृणमूल की जीत के कई कारण हैं. शुभेंदु अधिकारी जैसे करीबी नेताओं के साथ छोड़ने से ममता को नुकसान तो हुआ, लेकिन सहानुभूति भी मिली. एक तरफ ममता बनर्जी थीं तो दूसरी तरफ भाजपा, आरएसएस और केंद्र की पूरी सरकार. लेकिन ममता से सीधी टक्कर के लिए भाजपा के पास प्रदेश स्तर पर कोई चेहरा नहीं था. ‘दीदी ममता’ के जवाब में ‘दादा शुभेंदु’ का नाम आया, लेकिन ममता ने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का ऐलान कर शुभेंदु को अपने इलाके तक ही सीमित कर दिया. नतीजा यह हुआ कि शुभेंदु प्रदेश स्तरीय नेता के रूप में नहीं उभर सके. वैसे भी, तीन-चार महीने में प्रदेश स्तर पर स्वीकार्यता बनाना भी मुमकिन नहीं.
ममता को संभवत: महिला मतदाताओं का भी साथ मिला. चुनाव से दो-तीन महीने पहले ही तृणमूल सरकार ने स्वास्थ्य साथी कार्ड योजना शुरू की थी. इसमें घर की महिला सदस्य के नाम पर कार्ड बनाया जाता है. पिछले साल लॉकडाउन के समय से ही ममता मुख्त राशन वितरित कर रही हैं. वोटरों के एक वर्ग को निश्चित रूप से इसका फायदा मिला है. संभव है व्हीलचेयर पर ममता के प्रचार करने के कारण भी उन्हें सहानुभूति मिली हो. भाजपा के प्रदेश प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने कहा भी कि हो सकता है चोट के कारण ममता दीदी को सहानुभूति मिली. सहानुभूति कितनी मिली यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि व्हीलचेयर पर ममता को देखकर तृणमूल कार्यकर्ताओं में नया जोश उत्पन्न हो गया.
भाजपा की हार की वजहें
एक समय भाजपा के पास सभी 294 सीटों पर जीतने लायक प्रत्याशी नहीं थे. बाबुल सुप्रियो, लॉकेट चटर्जी और स्वपन दासगुप्ता जैसे केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को विधानसभा चुनाव के मैदान में उतारना पड़ा. उसने तृणमूल और दूसरे दलों के नेताओं को तोड़ा. तृणमूल से 34 विधायक भाजपा में शामिल हुए तो पार्टी ने अपने ही पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर दिया. एक विश्लेषक ने कहा था कि भाजपा ही भाजपा को हराएगी. यानी पार्टी ने जिन नेताओं को हाशिए पर रखा वही अपने प्रत्याशियों को हराने में जुट गए. पार्टी ने सिनेमा और टीवी स्टार पर भी काफी हद तक भरोसा किया जो नाकाम साबित हुआ. आश्चर्यजनक बात है कि तृणमूल के अनेक ‘स्टार’ प्रत्याशी जीत गए.
भाजपा नेता स्वयं भी कम जिम्मेदार नहीं. जब ममता बनर्जी पैर में प्लास्टर लगाए चुनाव प्रचार कर रही थीं, तब भाजपा प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा था कि उन्हें साड़ी के बजाय बरमूडा पहनना चाहिए. आम लोगों ने इसे एक महिला का अपमान माना. दिलीप घोष और कई अन्य पार्टी नेताओं ने शीतलकुची में केंद्रीय सुरक्षाकर्मियों की फायरिंग के बाद ऐसे बयान दिए जिससे लोगों को लगा कि यह फायरिंग पार्टी के इशारे पर हुई है.
भाजपा का चुनाव प्रचार दिल्ली से नियंत्रित था. दूसरे प्रदेशों से आने वाले नेता प्रदेश के लिए सचमुच ‘बाहरी’ साबित हुए. उन्होंने प्रदेश की संस्कृति को समझे बिना बयानबाजी की. एक चुनावी सभा में योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि उनकी पार्टी की सरकार बनी तो एंटी रोमियो स्क्वॉड बनाया जाएगा. लेकिन ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों के बावजूद लगता है बंगालवासियों की मानसिकता अभी इस तरह पर नहीं पहुंची है. वहां एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के त्योहार भी पूरे जश्न के साथ मनाते हैं. दुर्गा पंडाल में शीश नवाते मुसलमान मिल जाएंगे तो इफ्तार की दावत में अपने मुसलमान दोस्त के घर जाकर बिरयानी खाते हिंदुओं की तादाद भी कम नहीं.
एक वजह भाजपा की आपसी कलह भी है. कई रोज पहले भाजपा के केंद्रीय और प्रदेश स्तरीय नेताओं के बीच मनमुटाव खुल कर बाहर आ गया. प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष प्रताप बनर्जी की तरफ से 25 अप्रैल को एक पत्र जारी किया गया था, जिसमें कहा गया कि प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष के निर्देश के मुताबिक कोई भी नेता 29 अप्रैल तक मीडिया के सामने बयान नहीं देगा. यह पत्र पार्टी पदाधिकारियों के व्हाट्सएप ग्रुप में चल रहा था, फिर भी दिलीप घोष ने इसे फर्जी बताया. कहा जा रहा है कि जब उन्हें पता चला कि इसके पीछे पार्टी आईटी सेल के प्रमुख मालवीय हैं, तो वे पीछे हट गए. यह भी कहा जा रहा है कि चुनाव के आखिरी चरणों से पहले केंद्रीय नेताओं के अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण स्थानीय कार्यकर्ता हतोत्साहित हो गए.
भाजपा ने शुभेंदु अधिकारी पर काफी भरोसा किया था. 19 दिसंबर को मिदनापुर में अमित शाह के हाथों से उन्होंने भाजपा का झंडा अपने हाथों में लिया था. उसी दिन हेलीकॉप्टर में वे कोलकाता गए और बैठक में भाग लिया. उसके बाद हर जगह उनकी राय को तवज्जो मिली. जब ममता ने शुभेंदु के गढ़ नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो जवाब में शुभेंदु ने कहा था कि अगर ममता को 50 हजार वोटों से नहीं हराया तो राजनीति छोड़ दूंगा. हकीकत तो यह है कि पूर्व और पश्चिम मिदनापुर की 31 सीटों में से 25 पर तणमूल आगे है. नंदीग्राम पूर्व मिदनापुर जिले में ही पड़ता है. अब देखना यह है कि तृणमूल से भाजपा में गए नेता वापसी के लिए कौन सा बहाना बनाते हैं. (डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं.)
लेखक का 30 वर्षों का पत्रकारिता का अनुभव है. दैनिक भास्कर, अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे संस्थानों से जुड़े रहे हैं. बिजनेस और राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं.
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