कृषि सुधारों की दिशा में संसद द्वारा मंजूर तीन कृषि कानूनों को लेकर 18 दिनों से किसान संगठनों द्वारा राजधानी दिल्ली का घेराव जारी है. किसान संगठनों की मांग के आगे केंद्र सरकार ने झुकने के संदेश भी दिए. वह कानूनों में किंचित संशोधन के लिए तैयार भी हुई, लेकिन किसान संगठनों को संशोधन मंजूर नहीं हैं, बल्कि वे हर हालत में तीनों कानूनों की वापसी पर अड़े हुए हैं. लेकिन सरकार की मंशा अब झुकने की नहीं लगती. कारोबारियों के संगठन फिक्की के कार्यक्रम का उद्घाटन का मौका हो या फिर संसद के नए भवन के शिलान्यास का मौका, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से कृषि कानूनों को समझने और उसके जरिए भविष्य में किसानों के लिए होने वाले फायदों की ही बात की है. प्रधानमंत्री के स्वर में तुर्शी तो नहीं है. लेकिन कैबिनेट के मंत्रियों ने जिस तरह किसानों को बहकाने वाले राजनीतिक दलों को निशाने पर लेना शुरू किया है, उससे स्पष्ट है कि सरकार कुछ संशोधन भले ही कर दे, कानून तो वापस नहीं लेने जा रही.
देश में खासकर 2014 के बाद जिस तरह का राजनीतिक माहौल बना है, उसमें कई तथ्यात्मक बातें भी या तो गुम कर दी जाती हैं, या फिर भ्रम का ऐसा कुहासा पैदा किया जाता है, जहां सत्य ओझल हो जाता है. कहना न होगा कि तीनों कृषि कानूनों को लेकर कुहासा कुछ ज्यादा ही है, उनकी हकीकत की जानकारी कम ही लोगों को है. यह बात छुपी हुई नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने अपने पहले चुनाव अभियान में साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था. इसके तहत मोदी सरकार ने कई कदम उठाए, जिसमें फसल बीमा योजना, किसान क्रेडिट कार्ड, किसान सम्मान निधि आदि योजनाएं लागू कीं. यह सवाल उठ सकता है कि ये योजनाएं किस हद तक जमीनी हकीकत बन सकीं?
हालांकि हर विश्लेषक को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हर योजना को जमीनी हकीकत बनाने वाली मशीनरी वही है, जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई थी, जिसकी सोच अतीत की सरकारों के दौरान एक खास तरह के ढांचे में विकसित होती रही है. जिसमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश बनाई गई, जिसकी हिस्सेदारी नीचे से लेकर उपर तक पहुंचती रही है. इस चक्र की जड़ें इतनी गहरीं हैं कि उन्हें आसानी से तोड़ पाना भी कठिन है. कभी संवैधानिक तो कभी कानूनी व्यवस्था आड़े आ जाती है तो कभी सरकारी कर्मचारी और अधिकारी के कानूनी अधिकार. जब भी कोई नई योजना लागू होती है, उसका विरोध होता है और इस दौरान कुहासा फैलाने की पुरजोर कोशिश होती है और उसके पीछे अतीत से चली आ रही व्यवस्था की खामियां नेपथ्य में चली जाती हैं. हकीकत तो वैसे ही पीछे रह जाती है.
आइए जानते हैं कि क्या संसद द्वारा पारित तीनों ही कृषि कानून कितने किसान विरोधी हैं और कितने किसान समर्थक. संसद द्वारा पारित कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन व सरलीकरण) कानून-2020 के खिलाफ जमकर तर्क दिए जा रहे हैं. जरा इस कानून के प्रावधानों को जानते हैं. इस कानून के तहत किसानों और कृषि उपज के कारोबारियों को उन कृषि उत्पाद बाजार समितियों से बाहर भी खेती की पैदावार के कारोबार की छूट दी गई है. सरकार का कहना है कि इस व्यवस्था का मकसद उपज के व्यापार व परिवहन लागत को कम करना और इसके जरिए अन्नदाताओं को उनकी उपज और पैदावार की बेहतर कीमत हासिल करने का माहौल देने के साथ ही इंटरनेट के जरिए कारोबार का तंत्र भी बनाना है.
दिल्ली को घेरे बैठे पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों और उनके नेताओं का दावा है कि अगर इस कानून को पूरी तरह लागू किया गया तो किसान सरकारी मंडियों से बाहर अपनी उपज बेचने को मजबूर होंगे. जिससे राज्यों को राजस्व का नुकसान होगा. क्योंकि राज्यों को मंडियों के जरिए होने वाली खरीद-बिक्री में निर्धारित राजस्व मिलता है. मंडियों की सच्चाई यह है कि इनमें खरीद बिक्री बिचौलियों के जरिए की जाती है. जिन्हें कमीशन एजेंट कहा जाता है.
यूपीए सरकार ने खाद्य निगम को साल 2005 में कृषि उपज की खरीद-बिक्री के लिए कमीशन एजेंट बनाने का आदेश दिया था. इसके तहत साल 2007 से मंडियों में कमीशन एजेंट काम कर रहे हैं, जिनका कांट्रैक्ट पंद्रह साल यानी साल 2022 तक के लिए है. हकीकत तो यह है कि मंडियों के जरिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर भारत में होने वाली कृषि उपज का सिर्फ छह फीसद ही खरीदा-बेचा जाता है. इसमें भी पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य पहले नंबर पर हैं. जाहिर है कि यहीं राजस्व की कमाई ज्यादा है और यहीं कमीशन एजेंट भी है. एक आंकड़े के मुताबिक अकेले पंजाब में ही केंद्रीय एजेंसियां अनाज खरीद के लिए 52 हजार करोड़ खर्च कर चुकी हैं. यही वजह है कि माना जा रहा है कि जो किसान आंदोलन हो रहा है, उसमें ये कमीशन एजेंट ही ज्यादा हैं. पंजाब-हरियाणा में इन्हें आढ़ती कहा जाता है. मंडियों में किसानों की उपज की बिक्री से मिली कुल रकम से डेढ़ से तीन फीसद कमीशन की कटौती करते हैं. दिलचस्प यह है कि इसकी वजह बताई जाती है, उपज की सफाई, छंटाई व ठेका आदि. मंडियों की आमदनी इन आढ़तियों से वसूली गई फीस होती है. वैसे बिहार, केरल, मणिपुर, लक्षद्वीप, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह तथा दमन एवं दीव में यह मंडी व्यवस्था नहीं हैं.
इस कानून को लेकर आंदोलनरत किसान संगठनों का आरोप है कि अगर यह व्यवस्था लागू होगी तो एमएसपी पर खरीद-बिक्री व्यवस्था खत्म हो जाएगी, जिससे अंतत: कारोबारियों का उपज के कारोबार पर कब्जा हो जाएगा. किसान संगठनों का दावा है कि इससे ई-ट्रेडिंग भी खत्म हो जाएगी.
तीनों कानूनों को प्रस्तुत करते वक्त ही केंद्र सरकार साफ कर दिया था कि न तो सरकारी मंडियां बंद होंगी, न ही एमएसपी प्रणाली खत्म होने जा रही है. किसान संगठनों की मांग पर सरकार इसका लिखित आश्वासन भी देने को तैयार है. सरकार का तर्क है कि चूंकि पुरानी व्यवस्था के साथ नई व्यवस्था भी बनायी जा रही है, लिहाजा प्रतियोगिता बढ़ेगी और किसानों को ही फायदा होगा. वे अपनी उपज को बेहतर दाम पर बेच सकेंगे.
संसद ने जो दूसरा कानून पारित किया है, वह है आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून -2020. यह एक तरह आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन है. इसके तहत कुछ प्रमुख अनाजों मसलन गेहूं, चावल, दाल, तिलहन, प्याज व आलू को आवश्यक वस्तु की सूची से हटा दिया गया है. पहले कारोबारियों के लिए इनके भंडारण की सीमा तय थी, लेकिन अब युद्ध जैसे अपवादों को छोड़कर इन उपजों के संग्रहण की सीमा तय नहीं रहेगी. किसान संगठनों ने अपने आंदोलन के लिए मध्य वर्ग को आधार बनाने के लिए तर्क दिया है कि इससे कारोबारी इन आवश्यक वस्तुओं की भंडारण की तय की गई कीमत की सीमा इतनी अधिक होगी, जिसका इस्तेमाल कारोबारी कालाबाजारी के लिए करेंगे. तब इन जरूरी और दैनिक आवश्यकता वाली उपजों की महंगाई बढ़ेगी. किसान संगठनों का आरोप है कि इससे बड़ी कंपनियां और कारोबारी आवश्यक वस्तुओं का भंडारण बढ़ाकर किसानों को अगली बार अपनी उपज औने-पौने दाम पर खरीदने के लिए दबाव बनाएंगी.
यह भी सच है कि भंडारण की उचित व्यवस्था न होने और कोल्ड स्टोर के साथ ही खाद्य प्रसंस्करण की कमी के चलते देश में अनाज और सब्जियों का एक बडा हिस्सा हर साल बर्बाद हो जाता है. सरकार का तर्क है कि इस कानून से जहां निजी निवेशक भंडारण क्षमता बढ़ाने के साथ ही कोल्ड स्टोरेज बनाने के लिए आगे आएंगे, वहीं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में भी निवेश बढ़ेगा. इससे उपज बर्बाद नहीं होंगे, आलू व प्याज जैसी जल्द खराब होने वाली उपजों की भी ज्यादा खरीद हो सकेगी.
भंडारण व्यवस्था, कोल्ड स्टोरेज बढ़ने से खरीद में कम्पीटिशन होगा, जिससे अंतत: किसानों को फायदा होगा. चूंकि कृषि उद्योग में निवेश बढ़ेगा, लिहाजा रोजगार भी बढ़ेंगे. फिर सरकार का कहना है कि अगर अनाज की कीमतें ज्यादा बढ़ीं तो वह भंडारण की सीमा भी तय करेगी. किसान राज्य सरकार की कृषि उत्पाद बाजार समितियों (एपीएमसी) यानी मंडियों में अपने उत्पाद बेचते थे. जिस तीसरे कानून से किसान संगठनों को आपत्ति है, वह है कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून-2020. इस कानून के जरिए किसानों को कृषि कारोबार करने वाली कंपनियों, खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों, थोक कारोबारियों , निर्यातकों व संगठित खुदरा कारोबारियों विक्रेताओं से सीधे जोड़ने की व्यवस्था की गई है. इस कानून के जरिए सरकार का प्रयास उपज का बुवाई के पहले ही कारोबारियों से तय कीमत पर करार कराने का है. इस कानून के जरिए सरकार की कोशिश छोटी जोत वाले किसानों को सामूहिक और ठेका आधारिक खेती करने का फायदा पहुंचाना है. वैसे भी देश के करीब 86 फीसद किसानों के पास दो एकड़ यानी पांच हेक्टेयर से कम जोत है. इस कानून के तहत पांच हेक्टेयर से कम खेत वाले किसानों को समूह व अनुबंधित कृषि का फायदा दिलाना है.
किसान संगठनों का आरोप है कि इस कानून के लागू होने से ठेका खेती के करार में किसानों की हालत खराब होगी और वे मोलभाव नहीं कर पाएंगे. किसान संगठनों का आरोप है कि इससे बड़ी कंपनियां, निर्यातक, थोक कारोबारी के साथ ही खाद्य प्रसंस्करण वाली इकाइयों को ही फायदा होगा. वे किसानों को दबाएंगी और अंतत: किसानों की जमीनें पूंजीपति और कारपोरेट घराने हड़प लेंगे. नए कृषि कानूनों को ज्यादातर किसान तफसील से नहीं जानते. लेकिन किसानों को सबसे ज्यादा उनकी जमीनें हड़पने और कृषि संस्कृति को खत्म करने का ही डर दिखाया जा रहा है. हालांकि इस कानून में साफ प्रावधान है कि किसान जब चाहें कंपनी या कारोबारी से करार तोड़ सकते हैं, लेकिन अधबीच में ही अगर कंपनियां करार तोड़ेंगी तो उन्हें इसका खामियाजा जुर्माने के तौर पर भुगतना होगा. अगर विवाद नहीं थमा तो इनका निबटारा भी तय मियाद में ही पूरा होगा.
इस कानून में स्पष्ट किया गया है कि हर हाल में खेत और फसल दोनों का मालिक हर स्थिति में किसान ही रहेगा. सरकार का दावा है कि इससे किसानों को पहले की तरह हो रही कांट्रैक्ट खेती से छुटकारा मिलेगा, जिसमें किसानों के लिए स्थितियां ठीक नहीं थीं. पहले ठेका खेती का तरीका अलिखित था. जिसके तहत देश के कई इलाकों में आलू, कुछ अन्य सब्जियां, गन्ना, कपास, चाय, कॉफी और फूलों की खेती का ही अनुबंध होता था. वैसे कुछ राज्यों ने इसके लिए नियम बनाए हैं. बहरहाल सरकार का दावा है कि इस कानून से कृषि क्षेत्र में शोध के निजी क्षेत्र के भी लोग आएंगे. चूंकि छोटी जोत वाले किसानों की आय कम है, लिहाजा वे आधुनिक खेती के लिए उपकरण आदि की खरीद नहीं कर पाते थे. अनुबंध के तहत उन्हें बेहतर उपज हासिल करने के लिए संबंधित कारोबारी या कंपनी इसकी सहूलियत भी उपलब्ध करा पाएगी. इसके अलावा वैश्विक मंडियों में अपनी उपज को बेचने के लिए किसान को अपनी उपज की गुणवत्ता की जांच कराने, उसकी ग्रेडिंग कराने के साथ ही परिवहन आदि की समस्या से छुटकारा मिलेगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)