यह मामूली बात नहीं है कि 1947 में जिस शख्स की कमाई महज आठ आना रोजाना थी, उसकी जिंदगी के आखिरी दिनों में उसका वेतन 21 करोड़ सालाना हो गया. इसी से महाशय धर्मपाल की कामयाबी की कहानी को समझा जा सकता है.
Source: News18Hindi Last updated on: December 3, 2020, 6:54 pm IST
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मसाला किंग धर्मपाल जी का निधन 98 साल की उम्र में हुआ है. (File Pic)
कोरोना के संकट काल में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपदा में भारत के लिए अवसर तलाशने की बात की थी तो उसका मजाक़ उड़ाने की जैसे होड़ ही शुरू हो गई थी. लेकिन मसाला किंग के रूप में विख्यात महाशय धर्मपाल की जिंदगी की कहानी भी आपदा में अवसर तलाशने और किसी भी कीमत पर हिम्मत ना हारने की रही है. बंटवारे में पाकिस्तान के सियालकोट में अपना सबकुछ लुटाकर आजादी के वक्त दिल्ली पहुंचने के बाद पेट की आग बुझाने की खातिर तांगा चलाने का धंधा करने वाले महाशय धर्मपाल ने अपनी मेहनत, सूझबूझ और ईमानदार कोशिश के दम पर ऐसा साम्राज्य खड़ा किया, जिसका उदाहरण कम ही मिलता है.
पिछले कुछ साल से रह-रहकर महाशय धर्मपाल की मौत की कहानियां सोशल मीडिया पर साझा होती रहीं. साल 2018 में तो उनके निधन की खबर सोशल मीडिया पर इतनी तेजी से फैली कि उनके चाहने वालों को उनके वीडियो साझा करने पड़े. लेकिन तीन दिसंबर की सुबह जो खबर आई, सचमुच उनके महाप्रयाण की रही. दो साल पहले उनके जिंदा होने की खबर ट्विटर पर कुछ देर तक ट्रेंड करती रही थी. ट्विटर पर इस बार भी उनसे जुड़ी खबर ट्रेंड कर रही है. बस अंतर यह है कि हैशटैग सर के साथ ट्रेंड कर रही खबर का मकसद उस विस्थापित का सम्मान है, जो फकत डेढ़ हजार रूपए लेकर दिल्ली आया था और उसने जाते-जाते ऐसा साम्राज्य खड़ा कर दिया, जिसका उदाहरण कम ही मिलता है।
महाशय धर्मपाल द्वारा स्थापित मसालों का ब्रांड एमडीएच यानी महाशिया दी हट्टी का साम्राज्य दो हजार करोड़ का हो चुका है. उनके खाते में बीस स्कूल और एक अस्पताल भी है. महाशय धर्मपाल सनातनी परंपरा के ऐसे पूजक रहे, जिनके पास सनातनी उद्देश्य को लेकर गया कोई व्यक्ति कभी खाली हाथ नहीं लौटा.
भारत में अपने उत्पादों के जो खुद ब्रांड अंबेसडर रहे, उनमें एक नाम महाशय धर्मपाल का रहा.कड़क मूंछ और सुरूचिपूर्ण देसी परिधान में अपने मसालों का वे खुद ही प्रचार करते रहे. बाबा रामदेव को उन्हीं से प्रेरणा मिली या नहीं, यह तो पता नहीं. लेकिन अपने उत्पादों के ब्रांड अंबेसडर वे भी खुद ही हैं.
महाशय धर्मपाल ने एक बार कहा था कि दिल्ली के रोहतक रोड वाले अपने घर की गली में जब भी वे जाते हैं, तो अपने पांव से जूते या चप्पल खोल लेते हैं. वे अपने घर ही नहीं, अपनी गली तक को पूजनीय मानते रहे. उनका मानना था कि इसी गली ने उन्हें उस मुकाम पर पहुंचाया, जिसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी.
महाशिया दी हट्टी यानी महाशय की दुकान नामक एमडीएच ब्रांड की स्थापना करने वाले महाशय धर्मपाल के बारे में हास्यपूर्वक कहा जाता था कि वे पौने पांच पास हैं. दरअसल जब वे पांचवीं कक्षा में थे, तभी उनकी पढ़ाई छूट गई. 27 मार्च 1923 को सियालकोट में जन्मे महाशय धर्मपाल को अपने घर के कामकाज में हाथ बंटाना शुरू करना पड़ा. सियालकोट में उनकी मसालों की दुकान थी, जिसकी शोहरत देगी मिर्च वालों के तौर पर थी. भारत विभाजन के दर्द के बीच महाशय धर्मपाल के परिवार को सियालकोट छोड़कर दिल्ली में शरण लेना पड़ा.उनके पिता चुन्नीलाल गुलाटी परिवार समेत दिल्ली आ गए. दिल्ली आने के बाद जिंदगी गुजारने के लिए जद्दोजहद का दौर शुरू हुआ. तब धर्मपाल के पास पंद्रह सौ रूपए थे. वैसे देखा जाए तो उन दिनों यह रकम अच्छी-खासी होती थी.बहरहाल परिवार चलाने की जद्दोजहद में विस्थापित परिवार के इस युवा ने उनमें से 90 रूपए में एक तांगा खरीदा. जिसे वे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से कुतुब रोड के बीच चलाने लगे. इससे परिवार का गुजर-बसर होने लगा. इसी बीच उन्होंने यह तांगा अपने छोटे भाई को दे दिया और खुद अपने पारिवारिक मसाले के कारोबार में जुड़ गए. उन्होंने दिल्ली के करोल बाग के अजममल खां रोड के एक छोटे से ठीये से दुकान शुरू की. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि वे खुद मसाले तैयार करते थे. देसी स्वाद और शुद्धता की वजह से उनके मसालों की पहचान बनने लगी. पहचान बनी तो उनकी लोकप्रियता भी बढ़ती चली गई और देखते ही देखते उनका कारोबार चल निकला.आज स्थिति यह है कि मसालों की उनके पास 18 फैक्ट्रियां हैं, जिनमें से कुछ दुबई में भी हैं. एमडीएच ब्रांड का भारत के मसाला बाजार के अस्सी फीसद हिस्से पर कब्जा है. उनके मसालों की मांग दुनियाभर में है.
अपने मसालों के विज्ञापनों में उनके खुद आने की कहानी भी दिलचस्प है. लोग सोचते हैं कि वे खुद प्रचार के भूखे थे, जबकि ऐसा नहीं है.दरअसल कुछ साल पहले उनके मसाले के लिए जब विज्ञापन शूट हो रहा था तो उस विज्ञापन के गृहिणी की भूमिका निभाने वाली प्रमुख मॉडल के पिता की भूमिका निभाने वाले सज्जन शूटिंग पर नहीं पहुंच पाए.इसके बाद विज्ञापन के निर्देशक ने महाशय धर्मपाल को ही वह भूमिका निभाने का सुझाव दे डाला.
धर्मपाल को लगा कि इससे उनके कुछ पैसे बच जाएंगे और काम भी हो जाएगा. उनकी यह सोच कामयाब रही. उनके ये विज्ञापन ना लोकप्रिय हुए, बल्कि एमडीएच का ब्रांड बाजार में स्थापित भी हो गया.
यह मामूली बात नहीं है कि 1947 में जिस शख्स की कमाई महज आठ आना रोजाना थी, उसकी जिंदगी के आखिरी दिनों में उसका वेतन 21 करोड़ सालाना हो गया. इसी से महाशय धर्मपाल की कामयाबी की कहानी को समझा जा सकता है.
महाशय धर्मपाल की कहानी ऐसे शख्स की कहानी है, जिसे अपनी मेहनत और ईमानदारी के साथ ही भारतीय मूल्यों पर भरोसा था. धर्मपाल ने यह भी साबित किया कि काम करने की कोई उम्र नहीं होती. वे आखिरी वक्त तक सक्रिय रहे. अपने ही ब्रांड के मसाला विज्ञापनों की वे जैसे जान ही थे. उन्होंने अपने दम पर दो हजार करोड़ का साम्राज्य खड़ा किया. महाशय धर्मपाल उदार भी बहुत थे. जब भी किसी नेक काम के लिए किसी ने उनसे संपर्क किया, उन्होंने मुक्त हाथ से सहयोग करने में हिचक भी नहीं दिखाई. उनके सामाजिक और कारोबारी योगदान को देश ने भी स्वीकारा. पिछले ही साल राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें देश के तीसरे बड़े नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया था. महाशय धर्मपाल को कारोबारी दुनिया की सदाबहार शख्सियत कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. महाशय धर्मपाल हमारे बीच नहीं रहे. उन्होंने भरा-पूरा करीब 98 साल का जीवन गुजारा. आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके द्वारा स्थापित किए गए मूल्य, कारोबार की साख और सदाबहार शख्सियत हर उस व्यक्ति को प्रेरणा देते रहेंगे, जो आपदाओं के बीच साहस खो देते हैं.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय. देश के तकरीबन सभी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले उमेश चतुर्वेदी इस समय आकाशवाणी से जुड़े है. भोजपुरी में उमेश जी के काम को देखते हुए उन्हें भोजपुरी साहित्य सम्मेलन ने भी सम्मानित किया है.