तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली को घेरे बैठे किसानों के डेढ़ महीने बीत गए हैं. इसे आंदोलनकारी जहां अपनी कामयाबी मान रहे हैं, वहीं कानून समर्थकों का दावा है कि किसानों के बड़े हिस्से का समर्थन आंदोलनकारियों को नहीं है. कौन सही है और कौन गलत, इसे समझने के लिए हाल ही में घटी दो घटनाओं पर निगाह डालनी चाहिए. दस जनवरी को हरियाणा के करनाल में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी द्वारा बुलाई गई किसान महापंचायत किसान आंदोलनकारियों ने नहीं होने दिया. इसके ठीक दो दिन पहले किसान आंदोलन के अगुआ लोगों में शामिल स्वराज अभियान के प्रमुख योगेंद्र यादव ने एक वीडियो जारी करके एक तरह से अपना दर्द ही जाहिर किया. जिस करनाल जिले से हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर चुनकर आते हैं, वहीं बुलाई किसान महापंचायत में अपना हेलीकॉप्टर तक वे नहीं उतार पाए.
हुड़दंगी किसान आंदोलनकारियों ने उनके मंच तक को तहस-नहस कर दिया. पुलिस द्वारा दागे गए आंसू गैस के गोले बेदम साबित हुए. सिर्फ सवा साल पहले चुना गया कोई मुख्यमंत्री अगर अपने ही इलाके में हेलीकॉप्टर तक ना उतार पाए, जिस मंच पर उसे भाषण देना हो, वह मंच ही अगर तहस-नहस कर दिया जाए तो निश्चित तौर पर इसे उस मुख्यमंत्री की गिरती लोकप्रियता के तौर पर ही देखा जाएगा. कांग्रेस के प्रवक्ता हरियाणा निवासी रणदीप सिंह सुरजेवाला ने इस बहाने खट्टर पर निशाना साधकर इस मौके का फायदा ही उठाया है. सतह से देखें तो यह सही ही लगेगा कि खट्टर अपने ही घर में कमजोर हो रहे हैं. लेकिन हुड़दंग की इस खबर में एक तथ्य कहीं छुप गया है. दरअसल जब किसान महापंचायत को रोकने पहुंचे आंदोलनकारी किसानों को रोकने की कोशिश उस गांव के लोगों ने की, जहां यह महापंचायत होनी थी. गांवों की सामाजिक व्यवस्था को जो जानते हैं, उन्हें पता है कि गांव वाले तभी किसी के खिलाफ उतरते हैं, जब उसके गांव में कोई बाहरी आकर हस्तक्षेप करने की कोशिश करता है. तो क्या करनाल में हंगामा करने वाले आंदोलनकारी बाहरी थे? हंगामे की खबरों के बीच स्थानीय गांव वालों की नाकाम कोशिश वाला तथ्य भले ही दब गया हो, लेकिन वह इशारा तो इसी ओर कर रहा है.
अगर आज के दौर में कोई इस तरह की बात करेगा तो प्रचलित वृत्तांतों की कसौटी पर उसकी आलोचना ही होगी, उसे अन्नदाता विरोधी ही बताया जाएगा. लेकिन आंदोलन में स्थानीय आधार और भागीदारी की कमी को खुद किसान आंदोलनकारी योगेंद्र यादव ने भी जाहिर किया है. आठ जनवरी को जारी एक वीडियो संदेश में उन्होंने जो कहा, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, “अगर आप रेवाड़ी, महेंद्रगढ़, मेवात, गुड़गांव से हैं, या फिर अलवर, दौसा, जयपुर या नजदीक के कहीं से भी हैं, तो आपके लिए एक सूचना, एक चेतावनी, एक शिकायत, और एक अपील ...मैं खुद इस इलाके का बेटा हूं...इस अधिकार के साथ आपसे कुछ कहना चाहता हूं...अगर ये लड़ाई किसान नहीं जीत सके तो अगले बीस साल तक किसान आंदोलन नहीं खड़ा होगा. कोई किसानों की इज्जत नहीं करेगा. लोग कहेंगे कि जब दो लाख लोग इकट्ठा होकर कुछ नहीं कर सके तो तुम दो लोग, दो सौ लोग या दो हजार लोग क्या कर लोगे.” अपने इस वीडियो बयान में योगेंद्र यादव यह अपील करने से नहीं चूकते कि अगर स्थानीय लोग इस आंदोलन में शामिल नहीं हुए तो भावी इतिहास उनका उपहास उड़ाएगा.
यह सच है कि किसान कानूनों के समर्थन में अगर सचमुच भारत से किसान समुदाय के ज्यादातर हिस्सों की भागीदारी होती तो इसका स्वरूप दूसरा होता. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक देश में करीब 63 करोड़ किसान हैं. जिस दिल्ली को किसानों ने डेढ़ महीने से घेर रखा है, उस दिल्ली के आसपास पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी राजस्थान और दक्षिणी हरियाणा के इलाकों में ही किसानों की भारी संख्या है. अगर सचमुच इन इलाकों में मौजूदा कृषि कानूनों को लेकर विरोधी माहौल होता तो हकीकत तो यह है कि दिल्ली को ना तो सब्जी मिल पाती, ना ही दूध और ना ही दूसरी जरूरी चीजें. जाहिर है कि किसानों की बड़ी संख्या ना तो इस आंदोलन के साथ है और ना ही वह तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रही है.
नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक देश में ट्रैक्टरों की संख्या 43 लाख है. जाहिर है कि 63 लाख किसानों में से सिर्फ 43 लाख की ही ऐसी हैसियत है कि वे ट्रैक्टर रख पाएं. जाहिर है कि जिनके पास ट्रैक्टर नहीं हैं, जो साधनहीन हैं, उनके पास आंदोलन का वक्त नहीं है और उन्हें उम्मीद है कि नए कानूनों के बाद उनकी हालत सुधर सके. फिर यह मौसम खेती का है. उत्तर भारत में यह मौसम अपनी पूरे साल की रोटी का जरिया रबी की फसल की देखभाल का है. ऐसे में किसान नातेदारी-रिश्तेदारी में भी तभी जाता है, जब अपरिहार्य हो. उसके लिए मौजूदा मौसम अपनी फसल के लिए बेहद संजीदा समय होता है. इसलिए किसान अपनी प्यारी फसल को कम से कम इस संजीदा मौके पर छोड़ना नहीं चाहता. जाहिर है कि जब किसानों का बड़ा हिस्सा आंदोलनकारियों के साथ नहीं है, ऐसे में वे चाहे जितने दिन तक दिल्ली को घेर लें, उनकी सफलता संदिग्ध ही होगी.
कहा जाता है कि प्यार और युद्ध में सबकुछ जायज है. अब इसमें एक और चीज को जोड़ लेना चाहिए, वह है राजनीति. पहले राजनीति में मर्यादाएं होती थीं. लेकिन पिछले कुछ सालों में राजनीति ने मर्यादा नाम की चिड़िया को अपने व्यवहार की डार से उड़ा रखा है.
अपने राजनीतिक विरोधी को पस्त करने के लिए कुछ भी किया जा सकता है. उसे किसी भी तरह से पटखनी दी जानी चाहिए, उसे गाली भी दी जा सकती है, उसके खिलाफ अनर्गल आरोप लगाकर लोगों को गुमराह भी किया जा सकता है. कहना न होगा कि किसान आंदोलन के नाम पर कई संगठनों के अगुआ राजनीति की इस नवेली परिपाटी को ही आगे बढ़ा रहे हैं.
याद कीजिए तमिलनाडु के किसानों के आंदोलन को. जंतर-मंतर पर उन्होंने लंबा आंदोलन चलाया. नंगे बदन रहे. गले में कथित मरहूम किसानों की खोपड़ी की माला पहन प्रदर्शन करते रहे. विजुअल मीडिया के लिए नंग-धड़ंग बदन पर लटकी खोपड़ी वाली मालाएं बेहतरीन विजुअल बनती रहीं. लेकिन क्या हुआ, सामाजिक और व्यापक आधार के बिना वह लंबा आंदोलन भी नहीं सफल हुआ.
वैसे यह नहीं भूलना चाहिए कि नई आर्थिकी के चलते आज का दौर आंदोलन समर्थक रहा भी नहीं. आज देश की बड़ी जनसंख्या की दैनंदिन मेहनत का बड़ा हिस्सा सिर्फ अपना अस्तित्व बचाए रखने वाले उपादानों को जुटाने में खर्च हो रहा है. आज ज्यादातर लोग जानते हैं कि अगर उन्होंने एक दिन भी अपनी मेहनत स्थगित की, उनका जीवन संघर्ष बढ़ जाएगा. ऐसे में वह आंदोलन करे या अपनी जिंदगी के उपादान जुटाए. इस तथ्य को भी किसान आंदोलनकारियों को समझना होगा. करनाल जैसी एक-दो घटनाएं तभी तक सफल हो सकती हैं, जब तक राज्य व्यवस्था उसे अनदेखी करें. इसलिए बेहतर है कि बीच की राह निकले और बात आगे बढ़े. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या आंदोलनकारियों का कथित नेतृत्व इस दिशा में आगे बढ़ने की मंशा रखता भी है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं)ब्लॉगर के बारे मेंदो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय. देश के तकरीबन सभी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले उमेश चतुर्वेदी इस समय आकाशवाणी से जुड़े है. भोजपुरी में उमेश जी के काम को देखते हुए उन्हें भोजपुरी साहित्य सम्मेलन ने भी सम्मानित किया है.
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