संविधान के सम्मान के बीच सबकी नाफरमानी का धुन!

संविधान के अनुच्छेद 343 के मुताबिक गणतंत्र बनने के पंद्रह साल बाद 26 जनवरी 1965 को हिंदी को अंग्रेजी की जगह पर राजकाज की भाषा बनना था. तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति ने इसे खुद पर हिंदी थोपने के तौर पर लिया था. हिंदीविरोधी आंदोलन के अगुआ सी ए अन्नादुरै ने इस फैसले के विरोध में तमिलनाडु के हर घर की छत पर 26 जनवरी 1965 को काला झंडा फहराने का फैसला किया था.

Source: News18Hindi Last updated on: January 15, 2021, 3:30 pm IST
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संविधान के सम्मान के बीच सबकी नाफरमानी का धुन!
किसान आंदोलन पर शुरूआती दिनों में कतिपय क्षेत्रों से आरोप लगा कि उनमें खालिस्तान समर्थक देश विरोधी ताकतों ने घुसपैठ कर ली है.
कृषि कानूनों के खिलाफ कानूनों के खिलाफ डेढ़ महीने से भी ज्यादा वक्त से जारी किसानों के आंदोलन के समर्थन में सोशल मीडिया पर एक वर्ग चाहे जितना भी तर्क दे रहा हो, लेकिन यह भी सच है कि किसान नेताओं के अड़ियल रवैये के बाद अब उन पर भी सवाल उठने लगा है. जिस राजधानी दिल्ली की दो सीमाओं पर किसान आंदोलनकारी बैठे हुए हैं, अब वहां के निवासी भी मेट्रो और बसों में आपसी चर्चा में किसान नेताओं और संगठनों के अड़ियल रवैये पर सवाल उठाने लगे हैं.



पिछले पांच सालों में सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता पर एक वर्ग ने खूब सवाल उठाए हैं. सोशल मीडिया पर उस वर्ग के लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय को मोदी सरकार का पिछलग्गू बताने के लिए तमाम तरह के तर्क दिए हैं. चूंकि मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में सोशल मीडिया केंद्रित विमर्श का ज्यादा हस्तक्षेप है, लिहाजा वहां चलने वाले वृतांतों (नैरेटिव) और उसके जरिए बनने वाली अवधारणाओं पर खासकर नई पीढ़ी का भरोसा ज्यादा बढ़ा है. सर्वोच्च न्यायालय की साख पर सोशल मीडिया में उठाए गए सवालों के संदर्भ में भी यही विचार लागू होते हैं. लेकिन जिस तरह से किसान आंदोलनकारियों और उनके नेताओं ने सरकार से लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत तक की अपीलों को जिस तरह सिरे से खारिज करना शुरू किया है, उसकी वजह से सोशल मीडिया द्वारा कम से कम किसानों और सर्वोच्च न्यायालय के बारे में बनाई गई अवधारणाएं धाराशायी होती नजर आने लगी हैं.



किसान आंदोलन पर शुरूआती दिनों में कतिपय क्षेत्रों से आरोप लगा कि उनमें खालिस्तान समर्थक देश विरोधी ताकतों ने घुसपैठ कर ली है. सर्वोच्च न्यायालय में किसान कानूनों के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान देश के सालिसिटर जनरल ने अदालत के समक्ष तर्क रखते हुए कहा था कि उनके पास भारत की खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट है कि आंदोलनकारियों के बीच देशविरोधी ताकतें भी शामिल हो गई हैं. हालांकि किसान संगठनों ने तब किसान संगठनों ने इस आरोप को खारिज करते हुए कहा था कि उनके आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. किसान आंदोलनकारियों ने लगे हाथों खुद को राष्ट्रभक्त और संविधान का सम्मान करने वाला बताया था. खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट एकदम से गलत नहीं हो सकती. लेकिन यह भी सच है कि किसान आंदोलनकारियों की अधिसंख्य संख्या भारत से प्यार करने वाली है, देश की आन-बान और शान पर मर मिटने वाली है और संविधान का सम्मान भी करती है. लेकिन जिस तरह से उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय की बनाई समिति को खारिज किया है, उससे उनकी संविधान का सम्मान करने वाली भावना पर किंचित सवाल जरूर उठा है.



किसान संगठन तीन कानूनों को न मानने का फैसला करके एक तरह से संसद को ही चुनौती पहले ही दे दी है. उन्होंने सरकार की तमाम अपीलों को खारिज करके एक तरह से सरकार की नाफरमानी ही की है.
किसान आंदोलनकारियों के बीच ‘मोदी मर जा’ के नारे लग ही चुके हैं. लेकिन यह बात समझ से परे है कि किसान आंदोलनकारी सर्वोच्च न्यायालय की अपीलों और देश के सबसे बड़े न्यायाधीश की बात को भी क्यों नकार रहे हैं? कृषि कानूनों पर सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश शरद बोबड़े ने स्पष्ट कहा है कि वे खुद इस मामले को देखेंगे. इसके बाद तो देश के संविधान का सम्मान करने वाले आंदोलनकारियों को संयम का परिचय देना चाहिए था, लेकिन वे ऐसा करते नहीं दिख रहे हैं. हो सकता है कि वे यह भी तर्क दें कि सर्वोच्च न्यायालय की बात को खारिज करके वे संविधान का ही सम्मान कर रहे हैं.



आंदोलनकारी बार-बार कह रहे हैं कि अगर सरकार से बातचीत सफल नहीं रही तो वे छब्बीस जनवरी को ट्रैक्टर रैली निकालेंगे. गणतंत्र भारत की 71वीं सालगिरह दरअसल भारतीय आजादी और स्वाधीन भारत के गौरवमयी संविधान के लागू होने का दिन है. इस दिन तो अव्वल होना यह चाहिए कि हम अपने गौरवमयी इतिहास और अपने शहीदों के सम्मान में आयोजन करें. सवाल उठता है कि क्या ट्रैक्टर रैली निकालने की मंशा वैसी ही होगी. तो क्या यह मान लें कि किसान आंदोलनकारी हिंदी विरोधी आंदोलनकारियों जितनी सदाशयता नहीं रखते.



संविधान के अनुच्छेद 343 के मुताबिक गणतंत्र बनने के पंद्रह साल बाद 26 जनवरी 1965 को हिंदी को अंग्रेजी की जगह पर राजकाज की भाषा बनना था. तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति ने इसे खुद पर हिंदी थोपने के तौर पर लिया था. हिंदीविरोधी आंदोलन के अगुआ सी ए अन्नादुरै ने इस फैसले के विरोध में तमिलनाडु के हर घर की छत पर 26 जनवरी 1965 को काला झंडा फहराने का फैसला किया था. हालांकि बाद में उन्हें आभास हुआ कि ऐसा करना एक तरह से भारतीय गणतंत्र के गौरवमयी दिन का अपमान करना होगा तो उन्होंने यह विरोध प्रदर्शन एक दिन पहले यानी 25 जनवरी 1965 को किया था. अव्वल तो होना यह चाहिए कि किसान आंदोलनकारियों को सी ए अन्नादुरै से सीख लेनी चाहिए. वैसे तो पंजाब में उनका हिंदी विरोधी रूप भी सामने आ ही गया है. उनके कार्यकर्ता हिंदी में लिखे बोर्ड पर कालिख पोत ही रहे हैं.



(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
उमेश चतुर्वेदी

उमेश चतुर्वेदीपत्रकार और लेखक

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय. देश के तकरीबन सभी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले उमेश चतुर्वेदी इस समय आकाशवाणी से जुड़े है. भोजपुरी में उमेश जी के काम को देखते हुए उन्हें भोजपुरी साहित्य सम्मेलन ने भी सम्मानित किया है.

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First published: January 15, 2021, 3:30 pm IST

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