लंबी बीमारी के बाद कल्याण सिंह उस दुनिया की ओर कूच कर चुके हैं, जहां से लौटना मुमकिन नहीं होता. कल्याण सिंह सिर्फ हिंदुत्व की राजनीति के ही योद्धा नहीं रहे, बल्कि लगातार आदर्श से फिसलती राजनीति के दौर में प्रेरक आदर्शवादी राजनेता भी रहे. सेक्युलर राजनीति और विचार की नजर में वे बाबरी ढांचे के विध्वंस के जिम्मेदार रहे. लेकिन कल्याण को इसका कभी मलाल नहीं रहा. उलटे वे इसके लिए गर्व से भरे रहे. इसके लिए उन्होंने सजा भी सहर्ष स्वीकार की.
बाबरी को बचाने के लिए बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया था. लेकिन छह दिसंबर 1992 को जब बाबरी के गुंबद पर कारसेवक चढ़ गए. तब उन्होंने तत्कालीन पुलिस महानिदेशक एसएम त्रिपाठी की गोली चलाने के अनुरोध का मांग नामंजूर कर दी थी. जब एसएम त्रिपाठी हिचके तो उन्होंने बाकायदा उन्हें लिखकर देने का वचन भी दे दिया कि अगर बाद में उनसे पूछा जाएगा कि आपने गोली नहीं चलाई तो वे दिखा सकते हैं कि मुख्यमंत्री ने आदेश देने से इनकार कर दिया था. जब बाबरी ढांचा गिर गया तो मुख्यमंत्री का लेटर हेड निकालकर उस पर इस्तीफा लिख दिया था. तब कल्याण ने कहा था, जिस उद्देश्य के लिए उत्तर प्रदेश में सरकार बनी थी. वह मकसद पूरा हो चुका है. अब सरकार जाए भी तो कोई गम नहीं.
अयोध्या में भव्य राममंदिर बन रहा है. भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के तीन बड़े मुद्दे रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी आज जिस मुकाम पर है, उसमें राममंदिर आंदोलन, जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 का खात्मा और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों का बड़ा योगदान रहा है. कह सकते हैं कि अयोध्या के भव्य राममंदिर की नींव के मजबूत ईंट कल्याण सिंह रहे.
छह दिसंबर को जब बाबरी का ध्वंस हो रहा था, तब तत्कालीन गृहमंत्री शंकर राव चव्हाण से भी उन्होंने गोली न चलाने की बात कहने का साहस दिखाया था. बाबरी ध्वंस को लेकर उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना का मुकदमा भी चलाया था. आजकल आए दिन सर्वोच्च न्यायालय के मशहूर फैसलों को लेकर न्यायमूर्ति यू यू ललित का नाम सामने आता रहता है. बहुत कम लोगों को पता है कि सुप्रीम कोर्ट ने जब कल्याण के खिलाफ अवमानना का मामला चलाया था तो उनकी ओर से कल्याण सिंह ही प्रस्तुत हुए थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 24 अक्टूबर, 1994 को कल्याण सिंह के खिलाफ फैसला दिया था. तब अदालत ने कहा था, ‘अदालत की अवमानना ने देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को प्रभावित किया है, इसलिए मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सांकेतिक तौर पर एक दिन के लिए जेल भेजा जा रहा है. साथ ही 20,000 रुपये का जुर्माना लगाया जा रहा है.’
इन पंक्तियों के लेखक को याद है अक्टूबर 1994 का आखिरी दिन. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक सजा भुगतने के लिए कल्याण सिंह लखनऊ मेल से दिल्ली आए थे. तब जगह-जगह उनका जोरदार स्वागत हुआ था. नई दिल्ली स्टेशन से वे सीधे भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय 11 अशोक रोड गए थे. उसके बाद उन्हें वहां से दिल्ली पुलिस तिहाड़ जेल लेकर चली थी. उनकी लोकप्रियता का आलम ये था कि तब नई दिल्ली से लेकर पश्चिमी दिल्ली तक जाम लग गया था. तिहाड़ जाने वाली सड़कों पर भीड़ ही भीड़ थी. तभी उन्हें हिंदू हृदय सम्राट की उपाधि दी गई थी.
जब भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी राजनीति की वजह से नवंबर 1999 में मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था, उसके पहले वे दिल्ली के पंडारा पार्क स्थित तत्कालीन गृहमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी से मिलने पहुंचे थे. पंडारा पार्क में आडवाणी के घर के बाहर उमड़े पत्रकारों के हुजूम ने देखा था, बाबरी के लिए खुद के पद की शहादत देते और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सांकेतिक सजा के लिए तिहाड़ जाते वक्त तक जिस शख्स के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी, उसकी आंखों में आंसू थे. जिन्हें वह बमुश्किल छुपा पा रहा था.
कल्याण ने इसके बाद भाजपा छोड़ दी थी. राजनीति के जानकार मानते हैं कि अगर कल्याण ने भाजपा का दामन तब नहीं छोड़ा होता तो वे स्वाभाविक तौर पर भाजपा के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व में समाहित होते. 1991 में अकेले उनके दम पर भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत हासिल करके सरकार बनाई थी. जाहिर है कि उनके पार्टी से बाहर जाने के बाद इसकी कीमत भाजपा को चुकानी पड़ी. यह बात और है कि केंद्र की राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उभार के बाद वे फिर भाजपा में लौटे और निष्ठावान कार्यकर्ता की तरह आखिरी सांस तक जुड़े रहे. भाजपा उनके रग-रग में इस कदर समाहित थी कि राज्यपाल पद की बाध्यता के चलते भले ही उन्होंने भाजपा से इस्तीफा दे दिया, लेकिन जैसे ही राजस्थान के राज्यपाल पद से मुक्त होकर लखनऊ लौटे, फिर से भाजपा की सदस्यता ले ली थी.
कल्याण सिंह पहली बार 24 जून 1991 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. मुख्यमंत्री की शपथ लेने के पहले मंत्रिमंडल के गठन आदि मसलों पर केंद्रीय नेतृत्व से चर्चा के लिए वे दिल्ली आए थे. उस वक्त उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यसचिव भी प्रशासनिक कार्य की वजह से दिल्ली के दौरे पर थे. वे राज्य सरकार के विमान से दिल्ली आए थे. शाम को उत्तर प्रदेश भवन में वे कल्याण सिंह के पास पहुंचे थे और उनके लखनऊ लौटने के बारे में पूछा. लगे हाथों उन्होंने कल्याण सिंह को राज्य सरकार के विमान से लौटने का प्रस्ताव दे डाला. लेकिन कल्याण सिंह ने इससे इनकार कर दिया था. उन्होंने तब मुख्य सचिव से कहा था कि अभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव हैं. आप अभी उनके अधिकारी हैं. ऐसा कल्याण ही कह सकते थे.
एक दौर में भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कहा जाता था. भाजपा विरोधी पार्टियां इन्हीं जातीय समूहों के आधार पर भाजपा पर हमला करती थीं. लेकिन आज स्थितियां बदली हुई हैं. आज पिछड़े वर्ग की जातियों के साथ ही दलित वर्गों में भारतीय जनता पार्टी की मजबूत पहुंच और पहचान है. इसके लिए भाजपा की ओर से जो सोशल इंजीनियरिंग शुरू हुई थी, कल्याण सिंह उसका प्रमुख चेहरा रहे. उनकी ही अगुआई में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का आधार पिछड़ी और दलित जातियों में बढ़ा.
कल्याण की छवि दमदार और कड़े प्रशासक की भी थी. लेकिन वे उतने ही सहज और विनम्र भी थे. इन पंक्तियों के लेखक प्रत्यक्ष देखा है, दिल्ली के एक बड़े संपादक से मिलने कल्याण सिंह उस अखबार की विशाल बिल्डिंग के रिसेप्शन से पर्ची कटाकर सीधे पहुंच गए थे और उनके पीए के पास जाकर बैठ गए थे. पीए ने जब कुछ देर बाद कल्याण सिंह को पहचाना तो वह भागता हुआ अपने संपादक के कमरे में पहुंचा था और इसकी जानकारी दी थी.
जिसके नाम पर दिल्ली जाम हो जाती रही, जिसके प्रभाव से उत्तर प्रदेश में भाजपा का पहली बार डंका बजा, जिसने बाबरी ध्वंस के लिए अधिकारियों को नहीं, खुद को जिम्मेदार बताया. जिसने अयोध्या कांड की जांच कर रहे लिब्राहन आयोग से भी स्पष्ट कहा कि सजा देना हो तो उन्हें दे, अधिकारियों को नहीं. राजनीति के इतिहास में ऐसे व्यक्तित्व कम ही मिलते हैं. राममंदिर जल्द ही मूर्त होने वाला है. अभी से ही अयोध्या में श्रद्धालुओं की भीड़ जुटने लगी है. लेकिन अयोध्या आने वाला हर व्यक्ति कल्याण को जरूर याद करता है. राम मंदिर के साथ उनकी स्मृति भी अक्षुण्ण बनी रहेगी.
दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय. देश के तकरीबन सभी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले उमेश चतुर्वेदी इस समय आकाशवाणी से जुड़े है. भोजपुरी में उमेश जी के काम को देखते हुए उन्हें भोजपुरी साहित्य सम्मेलन ने भी सम्मानित किया है.
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