OPINION: किसान हित के सवाल पर हो रहे आंदोलन के अब बदलने लगे हैं सुर

Farmer Protest: अव्वल तो आंदोलन तो आंदोलन की तरह होना चाहिए. लोकतांत्रिक समाज में अगर व्यापक जनहित के लिए आंदोलन हो तो होना ही चाहिए. लेकिन अगर आंदोलन वह सिर्फ एक व्यक्ति के खिलाफ हो और उसका मकसद उस व्यक्ति को नीचा दिखाना ही हो तो ऐसे आंदोलन का कोई मतलब नहीं है.

Source: News18Hindi Last updated on: December 30, 2020, 10:23 pm IST
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OPINION: किसान हित के सवाल पर हो रहे आंदोलन के अब बदलने लगे हैं सुर
किसान संगठनों का प्रदर्शन बीते एक महीने से भी ज्यादा समय से जारी है. (फाइल फोटो)
तीन कृषि कानूनों के खिलाफ 34 दिनों से ज्यादा वक्त से जारी किसान आंदोलन के संदर्भ में ठीक तीन दशक पुराना एक आंदोलन और उससे जुड़ा वाकया याद आ रहा है. अगस्त 1990 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने सरकारी दफ्तर में बरसों से पड़ी मंडल आयोग की रिपोर्ट की फाइल से धूल झाड़कर उसमें दी गई सिफारिशों को जमीनी हकीकत बना दिया था. इसके खिलाफ छात्रों का देशव्यापी आंदोलन छिड़ गया था. इस आंदोलन में विश्वनाथ प्रताप सिंह के खिलाफ कुछ ऐसे नारे लगाए जाते थे, जिनका जिक्र यहां करना मुनासिब नहीं है. तब आंदोलनकारियों से कुछ जागरूक और आरक्षण विरोधियों ने अपील की थी कि ऐसे नारे ना लगाए जाएं. वह नारा उस विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए कहीं ज्यादा अपमानजनक था, जिनके लिए आरक्षण आंदोलन के ठीक दो साल पहले ही कहा गया था, ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’. उन्हें तब राजर्षि के विशेषण से भी नवाजा गया था. बहरहाल उनके खिलाफ आंदोलन चलता रहा, लेकिन उनके खिलाफ वह अपमानजनक कम से कम सार्वजनिक तौर पर लगाना बंद हो गया था.



अब जरा मौजूदा किसान आंदोलन को देखें. इसमें खुलेआम एक किसान नेता की पत्नी कहती है कि वह मोदी का पेट फाड़ देगी. वह किसान नेता सनातन संस्कृति और ब्राह्मणों को भी गाली देता है. कुछ महिलाएं खुलकर नारा लगाती हैं, ‘मोदी मर जा तू’. गांवों में जब कम पढ़ी-लिखी महिलाओं के बीच लड़ाई होती है तो वे अपनी विरोधियों के परिवारों के मरने की बद्दुआएं देती हैं. किसान आंदोलन में वैसा नजारा तो नहीं दिखा, लेकिन महिलाओं द्वारा ऐसी इच्छाएं खुले तौर पर जारी की गईं. मोदी विरोधी एक खास वर्ग अक्सर मोदी सरकार पर अघोषित आपातकाल लगाने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करने समेत तमाम कई तरह के आरोप लगाते हैं. वे यह भी कहने से नहीं हिचकते कि मोदी के खिलाफ आवाज उठाने वाले या उनकी आलोचना करने वाले को मोदी सरकार प्रताड़ित करती है. लेकिन जब इन महिलाओं की ओर देखते हैं तो आलोचना का यह सुर गलत साबित होता नजर आता है. अगर मोदी के आलोचकों की बात सही होती तो इस हिसाब से इन महिलाओं को जेल में होना चाहिए था. लेकिन वे दिल्ली के सिंघु सीमा पर आंदोलन में मसरूफ हैं, मोदी को स्तरहीन गालियां दे रही हैं और आंदोलन में निर्भय तरीके से बनी हुई हैं.

विरोध के ये सुर जब धीमे होने लगते हैं तो मोदी विरोधी राजनीति का कोई चेहरा सामने आ जाता है और विरोधी किसानों की मध्दम पड़ती आवाज तेज हो जाती है. अव्वल तो यह आंदोलन सिर्फ किसान हित के सवालों को लेकर होना चाहिए था. लेकिन अब इसके सुर से स्पष्ट है कि इसका मकसद तीन कृषि कानूनों में बदलाव लाने से कहीं ज्यादा मोदी का विरोध है. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का यह आरोप सही ही नजर आने लगा है कि किसानों को कुछ नेताओं ने बरगलाया है. भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की छवि स्तरहीन बात करने वाले की नहीं है. उन्होंने किसान आंदोलन को लेकर जो कहा है, वह सही ही नजर आता है. राजनाथ सिंह को भी इस बात को लेकर दुख हुआ है कि किसान आंदोलन में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए. राजनाथ सिंह ने यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री सिर्फ व्यक्ति नहीं बल्कि एक संस्था हैं. राजनाथ सिंह ने यह भी कहा कि उन्होंने कभी किसी पूर्व प्रधानमंत्री के खिलाफ अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया. ‘मर जा, मर जा’ के नारे प्रधानमंत्री के खिलाफ लगाए गए, मुझे वाकई बहुत दुख हुआ.



आंदोलनकारियों के समर्थन में नहीं दिख रहा जन उभार

अव्वल तो आंदोलन तो आंदोलन की तरह होना चाहिए. लोकतांत्रिक समाज में अगर व्यापक जनहित के लिए आंदोलन हो तो होना ही चाहिए. लेकिन अगर आंदोलन वह सिर्फ एक व्यक्ति के खिलाफ हो और उसका मकसद उस व्यक्ति को नीचा दिखाना ही हो तो ऐसे आंदोलन का कोई मतलब नहीं है. इस आंदोलन को लेकर कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने छवि किसान आंदोलन की बजाय सिखों का आंदोलन के तौर पर बनाने की कोशिश की. ऐसे तत्व किंचित इसमें सफल भी हुए. उनकी सफलता ही है कि आंदोलनकारी किसानों ने इंदिरा गांधी की शहादत पर भी टिप्पणियां की. आंदोलनकारियों के नाम पर कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि उन्होंने इंदिरा को सिखा दिया और अब मोदी को सिखा देंगे. शायद यही वजह है कि किसान संगठनों के समर्थन में खुलकर आम लोग सामने नहीं आ रहे हैं. बेशक दिल्ली के सिंघु सीमा से गुजरने वाले या वहां रहने वालों को दिक्कत हो रही है. लेकिन आंदोलनकारियों के समर्थन में वैसा जन उभार नहीं दिखा, जैसा आमतौर पर ऐसे मौकों पर दिखता है.



अब तो कुछ लोगों की तरफ से इस आंदोलन को दबाने की भी मांग होने लगी है. बेशक यह मांग धीमी है, लेकिन अगर किसान संगठनों ने आंदोलन का मुख्य फोकस मोदी विरोध से अलग नहीं किया तो तय मानिए कि उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की मांग तेज होगी. ऐसी स्थिति में सरकारी तंत्र को उनके खिलाफ कार्रवाई करने का ठोस आधार मुहैया होता जाएगा. इसलिए जरूरी है कि आंदोलन कर रहे किसान संगठन अपने आंदोलन की तासीर, उसकी गति और उसकी भूमिका को परखें. अगर वे इसकी सम्यक परीक्षा करेंगे तो उनके आंदोलन का रूख और स्तर कम से कम वैसा नहीं होगा, जो आज नजर आ रहा है. तब हो सकता है कि सरकार और उनके बीच किसी निर्णायक बिंदु पर सहमति बन सके. राजनाथ सिंह ने भी साफ कहा है कि उनकी सरकार किसानों के भ्रम को तोड़ने की पूरी कोशिश करेगी. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
उमेश चतुर्वेदी

उमेश चतुर्वेदीपत्रकार और लेखक

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय. देश के तकरीबन सभी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले उमेश चतुर्वेदी इस समय आकाशवाणी से जुड़े है. भोजपुरी में उमेश जी के काम को देखते हुए उन्हें भोजपुरी साहित्य सम्मेलन ने भी सम्मानित किया है.

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First published: December 30, 2020, 10:23 pm IST

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