Opinion: हिंसा की वजह से साख हीन हुआ आंदोलन...

लोकतंत्र (Democracy) में आंदोलन (Protest) करने का हक देश के हर नागरिक को है. लेकिन, आजादी (Independence) के 74 साल बाद पहला मौका है, जिसमें उकसावे में आकर आंदोलनकारियों ने राष्ट्रीय प्रतीक लाल किले (Red Fort) को नुकसान पहुंचाया और राष्ट्रीय बोध को घायल किया है.

Source: News18Hindi Last updated on: January 27, 2021, 4:29 pm IST
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Opinion: हिंसा की वजह से साख हीन हुआ आंदोलन
नए कृषि कानूनों का विरोध करते हुए प्रदर्शनकारी किसानों ने ट्रैक्‍टर परेड निकालकर लाल किले पर धावा बोल दिया था (फाइल फोटो)
स्वाधीनता आंदोलन की उपलब्धि सिर्फ आजाद हिंदुस्तान ही नहीं है, बल्कि भारतीय राष्ट्रीयता की वह धारा भी है, जो हर भारतीय के मनोमस्तिष्क में, राष्ट्रीय सोच में गहरे तक स्थापित हो चुकी है. जाति और संप्रदाय के साथ ही क्षेत्रीयता समेत कई सारे आधारों पर बंटे भारतीय समाज को जोड़ने और इस देश की माटी पर मर मिटने का जो बोध है, वह इसी राष्ट्रीय सोच की वजह से है. यही वजह है कि जब भी राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान होता है या फिर उनकी अनदेखी होती है, तब भारतीय समाज का अधिसंख्य हिस्सा आंदोलित हो जाता है.



एक बारगी वह अपना निजी मान और अपमान भुला भी सकता है, लेकिन राष्ट्र का आंशिक अपमान राष्ट्र के अधिसंख्य हिस्से की तिलमिलाहट की वजह बन जाता है. भारतीय गणतंत्र की 71 वीं वर्षगांठ के दिन दिल्ली के लाल किले के पर जो कुछ हुआ, उसे लेकर आज भारतीय समाज में गुस्सा दिख रहा है तो उसकी वजह हमारी अंतश्चेतना में गहरे तक बैठ चुका राष्ट्रीय बोध ही है.



1950 के बाद से 26 जनवरी हमारे गणतंत्र को अपनाए जाने के इतिहास का प्रतीक बन चुकी है. लेकिन, 26 जनवरी की तारीख हमारी पूर्ण स्वाधीनता की सोच से भी जुड़ी हुई है. दिसंबर 1929 में लाहौर में रावी नदी के किनारे तब स्वाधीनता आंदोलन की प्रमुख प्रतिनिधि संस्था कांग्रेस ने यह पूर्ण स्वाधीनता की मांग रखी और 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस मनाने की घोषणा की थी. तब से 1947 तक हर साल 26 जनवरी हमारी पूर्ण स्वाधीनता के प्रतीक के रूप में आती रही और स्वाधीनता दिवस मनाया जाता रहा.



जाहिर है कि इन अठारह सालों की परंपरा और बाद के 71 सालों में यह तारीख भारतीय जनमानस में आजादी और राष्ट्रीयता के प्रतीक के तौर पर इतने गहरे तक स्थापित हो चुकी है कि इस तारीख के दिन भारतीयता की आत्मा पर चोट पहुंचाने की कोशिश अपराधी तक नहीं करते. आतंकवादी और चरमपंथी इसके अपवाद रहे हैं. अपवाद भारतीयता की मौजूदा विचारधारा और सोच के विरोधी भी रहे हैं. लेकिन, वे भी कम से कम राष्ट्रीय प्रतीकों के दिनों को ऐसे कदम उठाने से बचते रहे हैं, जिससे भारतीयता ही नहीं, उसके राष्ट्रीय बोध को चोट नहीं पहुंचे. याद कीजिए, अब तक के गणतंत्र दिवस के इतिहास को, इस दिन अंतरराष्ट्रीय सीमा पर घुसपैठ की कोशिशें होती रही हैं, या फिर सीमा पार से आए नापाक आतंकी ही इस तारीख पर खून बहाने की कोशिश करते रहे हैं.



आजादी के 74 साल के इतिहास में यह पहला मौका है, जब भारत के अंदर खुद को राष्ट्रीय बताने वाली शक्तियों के उकसावे पर देश की राजधानी में खून बहा, राष्ट्रीय प्रतीक लाल किले से छेड़खानी हुई और इस तरह भारतीयता और राष्ट्रीय बोध को घायल किया गया.




तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलनरत किसान संगठनों का संयुक्त मोर्चा 26 जनवरी की घटना के लिए किसी अभिनेता को जिम्मेदार ठहराकर खुद को पाक-दामन साबित करने की जितनी भी कोशिश कर ले, यह तय है कि यह आंदोलन अब वैसी साख नहीं हासिल कर सकता, जिससे वह 26 जनवरी के पहले तक लैस था. आंदोलनकारी अब भी दिल्ली के सिंघु और टीकरी सीमा पर धरना देने के लिए मुतमईन हैं. वे हर मुमकिन संचार माध्यम पर यह घोषणा करते नहीं थक रहे. लेकिन, यह भी सच है कि उनके कथित अनुयायियों ने जिस तरह गणतंत्र दिवस के दिन जिस तरह खून खराबा किया, सड़कों पर ट्रैक्टर दौड़ाया, पुलिस वालों को कुचलने की कोशिश की, महिला पुलिस अधिकारियों तक को पीटा, उसे देश आंदोलित है.



उन लोगों की नजरों से भी आंदोलनकारी गिर चुके हैं, जिनका प्रत्यक्ष ना सही, परोक्ष समर्थन था. 26 जनवरी के दिन दिल्ली के पार्कों में छुट्टी का माहौल रहता है. इस माहौल में कल एक ही चर्चा थी, दिल्ली पुलिस को अब इन आंदोलनकारियों के खिलाफ हर मुमकिन बल प्रयोग करना चाहिए. जाहिर है कि लाल किले पर हमले के बाद जनमत बदल गया था. ऐसे में अगर पुलिस कार्रवाई करती तो तय मानिए कि किसानों के साथ जनता का बड़ा हिस्सा खड़ा नहीं होता.



वैसे 1922 के असहयोग आंदोलन से लेकर अब तक के सारे आंदोलनों से चाहते तो किसानों के नेता ही नहीं, दिल्ली पुलिस के आलाअफसर सीख ले सकते थे. 1922 के असहयोग आंदोलन के दौरान आंदोलनकारी उग्र हो गए और गोरखपुर के चौरीचौरा में पुलिस को थाने में ही बंद करके आग लगा दी थी. उसके बाद गांधी जी ने आंदोलन को ही वापस ले लिया था. गांधी के इस कदम को आजादी के आंदोलन को पीछे ले जाने वाला कदम करार दिया गया था. वैसी उम्मीद तो किसान आंदोलन के नेतृत्व से नहीं की जा सकती, लेकिन वे चाहते तो विरोध को प्रतीकात्मक बना सकते थे. सही मायने में गण की रैली बताकर लोगों को उकसाकर गांव-गांव से ट्रैक्टर बुलाने पर जोर नहीं देते. आंदोलनकारियों के नेता अगर आंदोलन के नाम पर अराजकता फैलने को भांप नहीं पाए तो उनकी अदूरदर्शिता ही कही जाएगी.



योगेंद्र यादव तो यहां तक कहते रहे कि ट्रैक्टर आंदोलनकारी दिल्ली का दिल जीतने आ रहे हैं, दिल्ली जीतने नहीं. लेकिन जिस तरह की कार्रवाई आंदोलनकारियों ने की, उससे एक बारगी भी नहीं लगा कि वे दिल जीतने नहीं आए हैं.




भारत में दिल जीतने की परंपरा तलवार, लाठी और सरिए के जरिए हासिल करने की नहीं रही है. करूणा, सेवा, प्यार, अनुशासन और सम्मान देकर यहां दिल जीतने की परंपरा रही है. चाहे नांगलोई की सीमा हो या फिर चिल्ला सीमा या फिर सिंघु बार्डर, हर जगह जिस तरह आंदोलनकारी आगे बढ़ रहे थे, उससे यही लग रहा था कि ये हुजूम दिल्ली को जीतने और उसे सबक सिखाने आया है.



रही बात दिल्ली पुलिस के अधिकारियों की तो अगर वे किसानों से अनुशासन और करूणाभाव की उम्मीद लगा रखे थे तो वे या तो भोले हैं या फिर पुलिस सेवा के बुनियादी पाठ और सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं. दिल्ली पुलिस यह कहकर नहीं बच सकती कि चूंकि उसी दिन उसका बड़ा हिस्सा राजपथ पर पारंपरिक परेड कार्यक्रम को पूरा कराने में जुटा हुआ था. लेकिन, उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि जानबूझकर आंदोलनकारियों ने 26 जनवरी का दिन इसीलिए चुना था, क्योंकि उन्हें पता था कि दिल्ली की ज्यादातर फोर्स राजपथ पर व्यस्त होगी. इसलिए दिल्ली पुलिस को वैकल्पिक योजना बनानी चाहिए थी, यह ठीक है कि आततायी बनी भीड़ की मार-कुटाई से बचने के लिए उसके जवानों ने गोली की बौछार करने की बजाय लालकिले की बीस फीट की खाई में कूदकर अपनी टांग तुड़ाना ज्यादा उचित समझा. लेकिन, नादिरशाही सेना की तरह उन्मादी बनी भीड़ का अंदाजा लगाने और उसे प्रभावी तरीके से ना रोक पाने के लिए दिल्ली पुलिस सवालों के घेरे में रहेगी. यह दंश उसे चुभता भी रहेगा.





योगेंद्र यादव इस आंदोलन की सफलता के लिए लोगों से अपील करते हुए कहते रहे हैं कि अगर इस बार किसान आंदोलन सफल नहीं हुआ तो अगले बीस साल तक किसान आंदोलन खड़ा नहीं हो पाएगा. बीस साल का वक्त लंबा होता है और लोकतंत्र ही नहीं, इतिहास में भी कोई बात अंतिम नहीं होती, लेकिन इतना तय है कि हिंसक आंदोलन के बाद यह स्पष्ट है कि अब यह आंदोलन लंबा नहीं खिंच पाएगा. अब तो सरकारी तंत्र को इस हिंसा ने मौका दे दिया है. कहा जा सकता है कि 26 की घटना के बाद इस आंदोलन को काबू करने को प्रभावी कदम उठाने के लिए तंत्र अब स्वतंत्र है.



नोट- (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार है.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
उमेश चतुर्वेदी

उमेश चतुर्वेदीपत्रकार और लेखक

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय. देश के तकरीबन सभी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले उमेश चतुर्वेदी इस समय आकाशवाणी से जुड़े है. भोजपुरी में उमेश जी के काम को देखते हुए उन्हें भोजपुरी साहित्य सम्मेलन ने भी सम्मानित किया है.

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First published: January 27, 2021, 4:29 pm IST

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