किसान आंदोलन को लेकर संतुलित रवैया अख्यितार करे विपक्ष

तीस दिसंबर को उसी लंगर से कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और रेल मंत्री पीयूष गोयल ने खाना खाकर किसानों के दिलों में हल्की ही सही, पैठ जरूर बना ली है. दरअसल तोमर और गोयल के इस कदम को सोशल मीडिया पर किसानों के सामने सरकार की हार के तौर पर पेश किया गया था.

Source: News18Hindi Last updated on: January 1, 2021, 4:14 pm IST
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किसान आंदोलन को लेकर संतुलित रवैया अख्यितार करे विपक्ष
किसान सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आए फैसले को लेकर मंथन कर रहे हैं. (फाइल फोटो)
भारतीय राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण औजार राजनीतिक दलों का अब सिर्फ तीन ही काम रह गया है, अगर विपक्ष में हैं तो सिर्फ सत्ता हासिल करना और उसके जुगाड़ में लगे रहना, अगर सत्ता में हैं तो उसे बचाए रखना और अपने राजनीतिक विरोधी का विरोध करने के लिए हर हथकंडे अपनाना, इसके लिए चाहे उसके सैद्धांतिक और वैचारिक आधार में दरार ही क्यों न पड़ जाए. केरल विधानसभा द्वारा संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पारित करना राजनीतिक दलों के तीसरी श्रेणी के ही कार्य में आता है. दिलचस्प यह है कि संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के बाद पंजाब में उठते विरोध के सुरों के बीच ही खुद को ज्यादा किसान हितैषी बताने की कोशिश में ना धान, गेहूं, चना, दलहन आदि के न्यूनतम समर्थन मूल्य की तर्ज पर आलू, प्याज समेत कुछ सब्जियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य ना सिर्फ घोषित किया, बल्कि उसे लागू भी कर दिया. इसके साथ ही केरल सरकार ने किसानों के लिए बाजार व्यवस्था के तहत कई और सुविधाएं भी दिलाने का ऐलान किया था. लेकिन वामपंथी वैचारिक आधार रखने वाली उसी केरल सरकार को लगने लगा कि इससे कहीं उसकी छवि संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों की समर्थक ना बन जाए, इसलिए उसने इन कानूनों के खिलाफ विधानसभा से प्रस्ताव पारित करा दिया.



अव्वल तो यह बहस होनी चाहिए कि संविधान के मुताबिक भारतीय संप्रभुता की गारंटी जिस संसद को है, क्या उसकी नाफरमानी विधानसभाएं कर सकती हैं? विचार इस पर भी होना चाहिए कि संविधान द्वारा जिस संसद को सर्वोच्च बताया गया है, क्या उसकी सर्वोच्चता को विधानसभाएं अपने प्रस्तावों के जरिए चुनौती दे सकती हैं? लोकतंत्र के नाम पर ऐसे कार्यों को आज के दौर में सहज लोकतांत्रिक प्रक्रिया बताया जा सकता है. उसे लेकर वैचारिक आधार खड़े किए जा सकते हैं. लेकिन यह भी सच है कि भारतीय संविधान ने भारतीय संप्रभुता का गारंटर यानी जमानती और सर्वोच्च पंचायत बनाकर संसद को सर्वोच्च बनाया था. इसके जरिए संविधान ने संसद को लोकतंत्र का सच्चा और सर्वोच्च अक्स बनाने की भी कोशिश की थी. संविधान ने संसद को जो अधिकार दिए हैं, जो उसकी सीमा निर्धारित की है, वह संविधान के भाग पांच के दूसरे अध्याय में दर्ज है. संसद के अधिकार तय करने को लेकर संविधानसभा की जो बहसें हुई थीं, उन पर निगाह डालने पर पता चलता है कि संविधान निर्माताओं की संसद को लेकर क्या सोच थी?



लेकिन आज विरोध के नाम पर जिस तरह विरोध हो रहा है, उसमें वह बहस बेमानी हो गई है. दरअसल केरल में कुछ महीने बाद ही विधानसभा चुनाव हैं. केरल के पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी भले ही सिर्फ तिरूअनंतपुरम की अकेली सीट जीतने में कामयाब रही थी. लेकिन उसने राज्य में 16 प्रतिशत वोट लेकर राजनीतिक दलों को चौंका दिया था. दिलचस्प यह है कि उसने इतना बड़ा वोट बैंक सिर्फ कांग्रेस नीत लोकतांत्रिक मोर्चे का वोट काटकर नहीं बनाया, बल्कि उसने सत्ताधारी वाममोर्चे के वोटबैंक वाले किले में भी सेंध लगाई थी. केरल में भारतीय जनता पार्टी की यह बढ़त अगले विधानसभा चुनाव में बढ़ ना जाए, इसलिए केरल की वामपंथी सरकार ने कम से कम अपने राज्य में भाजपा की छवि किसान विरोधी बनाने की कोशिश के तहत संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के खिलाफ विधानसभा से प्रस्ताव पारित कराया है.



इस बीच जिस तरह से दिल्ली में घटनाक्रम बदल रहा है, उससे लगता है कि किसान आंदोलन के सुर और तेवर अब पहले जैसे नहीं रहेंगे. उनमें बदलाव संभव है. वैसे भी सरकार ने साफ कर दिया है कि तीनों कानूनों के गुणदोष की चर्चा के लिए वह विशेषज्ञ समिति बना सकती है. पराली या पुआल जलाने के खिलाफ पर्यावरण अध्यादेश के तहत किसानों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने पर रोक लगाने और भावी बिजली सुधार कानून में किसानों के हितों का ध्यान रखने की आंदोलनकारी किसान संगठनों की मांग को स्वीकार करके केंद्र सरकार तीस दिसंबर को अपना कदम आगे बढ़ा चुकी है. आंदोलनकारी किसान संगठनों का रूख सरकार के खिलाफ अब तक जितना कड़ा रहा है, सरकार के इस कदम के बाद वह ढीला पड़ता नजर आ रहा है. वैसे सरकार तीस दिसंबर को किसानों की तरफ दो कदम और बढ़ाकर मामले को सुलझाने और किसान नेताओं के दिल को बदलने की दिशा में बड़ी एवं कामयाब कोशिश कर चुकी है.



दरअसल सरकार से बातचीत के दौरान किसान नेता अपना लंगर लेकर चलते थे. तीस दिसंबर को उसी लंगर से कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और रेल मंत्री पीयूष गोयल ने खाना खाकर किसानों के दिलों में हल्की ही सही, पैठ जरूर बना ली है. दरअसल तोमर और गोयल के इस कदम को सोशल मीडिया पर किसानों के सामने सरकार की हार के तौर पर पेश किया गया था. लेकिन किसान संगठनों ने इसे नकारते हुए स्पष्ट कर दिया कि इसमें ना तो किसी की जीत हुई है और ना ही हार. जाहिर है कि आंदोलनकारी किसानों के रूख में आया यह लचीलापन किसान आंदोलन में बदलाव को भी जाहिर कर रहा है.



ऐसे में सवाल यह है कि अगर किसानों के साथ केंद्र सरकार सहमति के किसी बिंदु पर पहुंच जाती है तो फिर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब जैसे कांग्रेस शासित और केरल जैसे वाममोर्चा शासित राज्यों की विधानसभाओं द्वारा संसद के कदम पर लगाए गए प्रश्नचिन्हों का क्या होगा? क्या राज्य सरकारें अपने यहां फिर से कोई प्रस्ताव पारित कराएंगी या फिर अपने पुराने ही रूख पर अटल रहेंगी?



किसान संगठनों के आंदोलन के बीच हुए कई राज्यों के स्थानीय निकायों के चुनावों में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी को बढ़त मिली है, उससे स्पष्ट है कि किसान आंदोलन का आम लोगों पर ज्यादा असर नहीं है. हरियाणा के स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा को भले ही कर्नाटक और राजस्थान जैसी सफलता नहीं मिली हो, लेकिन हरियाणा के स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजे भाजपा को पूरी तरह खारिज किए जाने का भी संदेश नहीं देते. ऐसा नहीं कि किसान नेता इस तथ्य को नहीं समझते. एक हिंदी अखबार को दिए इंटरव्यू में एक किसान नेता ने भी माना था कि उनके आंदोलन से भाजपा के समर्थन आधार की राजनीति को बहुत चोट नहीं मिलने जा रही. ऐसे में विपक्षी राजनीति को सोचना होगा कि उसके कदम कितने जायज हैं? इसलिए बेहतर तो यही होता कि विपक्षी राजनीति भी किसान संगठनों के आंदोलन को लेकर कम से कम संतुलित रूख अख्तियार करती. ताकि भविष्य में अगर कोई असहज राजनीतिक स्थिति उत्पन्न होती है तो उन्हें अपनी आंख ना चुराना पड़े.



(ये लेखक के निजी विचार हैं)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
उमेश चतुर्वेदी

उमेश चतुर्वेदीपत्रकार और लेखक

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय. देश के तकरीबन सभी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले उमेश चतुर्वेदी इस समय आकाशवाणी से जुड़े है. भोजपुरी में उमेश जी के काम को देखते हुए उन्हें भोजपुरी साहित्य सम्मेलन ने भी सम्मानित किया है.

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First published: January 1, 2021, 4:14 pm IST

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