वतन परस्ती की महक से तारी भारतीय गणतंत्र का उद्घोष करती 26 जनवरी अपने दामन में जाने कितने ही सुनहरी छवियों का ताना-बाना लिए प्रकट होती है लेकिन भारत के हृदय प्रदेश की राजधानी में यह तारीख एक बेमिसाल उत्सव का रूप रचती है. अड़तीस बरसों का सफर पूरा करता यह जलसा 2023 के पड़ाव पर है. एक बार फिर परंपरा का उजाला समेटे देशज संस्कृति के पक्ष में यह पर्व अपनी आवाज बुलंद कर रहा है. मटियारी तहजीब से प्रेम करने वालों के लिए इसकी पहचान अब नई नहीं है. दिलकश मंजरों की दुनिया आबाद करता ‘लोकरंग’ अब फिर दस्तक देने जा रहा है. जनजातीय और लोक कलाओं के इस उमड़ते मेले में जैसे पूरी भारतीय संस्कृति का अंतरंग झांकता है. तीजनबाई के पंडवानी की हुंकार और भारत तथा इजिप्ट और यूक्रेन के परंपरागत नृत्य-संगीत से लेकर भारतीय बंधुओं के कबीर गायन तक अनेक गतिविधियां इस सांस्कृतिक बहुरंग में शुमाल है.
सात दिनों का सांस्कृतिक सैलाब उन तमाम रंगों से सराबोर होगा जिन्हें सदियों की परंपरा में हमारे लोक ने रचा है. भोपाल के रवींद्र भवन के खुले अहाते में सज रही ‘लोकरंग’ की लुभावनी बस्ती में अपनी आमद को लेकर बच्चे, युवा, प्रौढ़ और उम्र दराज सभी आकुल हैं. यक़ीनन इस जलसे का तिलिस्म है ही कुछ ऐसा! यहां आकर आंख और मन अटक जाते हैं. जिंदगी की भूली-बिसरी छवियां नए-नए रूप धरकर सामने आती हैं. जीवन का संगीत भीतर तक बज उठता है और पांव में उठी थिरकन उल्लास जगाने लगती है. गणतंत्र दिवस को लोक संस्कृति की भावात्मक अंतरंगता के बीच मनाने का यह उपक्रम संस्कृति विभाग की जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास परिषद की उस प्रतीज्ञा और पुरूषार्थ का प्रतीक है जिसमें सामूहिकता, सहकार और सौहार्द का लोकतंत्र जीवंत हो उठता हैं.
यही वजह है कि ‘लोकरंग’ सिर्फ पांच दिनों का रस्मी आयोजन भर नहीं है, वह संस्कृति का एक महाअनुष्ठान बन चुका है. पैंतीस से भी ज्यादा बरस बीत गए. एक हरी सी याद उस पगडंडी से जा मिलती है जहां कुछ जनजातीय और लोक कलाकारों तथा शिल्पकारों ने अपनी आमद दर्ज़ करते हुए इस उत्सव का आगाज किया था. दिलचस्प यह कि अनेक पायदान तय करता यह उत्सव परिकल्पना, विस्तार और संयोजन का मानक मंच बन गया. इस बीच राजनीतिक और प्रशासनिक सत्ताएं बदलती रहीं. उनकी हठधर्मिता ने बहुत कुछ जोड़ा-घटाया, पर ‘लोकरंग’ की आत्मा पर खरोंच नहीं आई.
‘लोकरंग’ दरअसल इक्कीसवीं सदी की चौखट पर एक ऐसा सांस्कृतिक समागम है, जिसमें भारत की जनपदीय कलाओं की असल तस्वीर उभरकर सामने आती है. यह लोक संस्कृति के वजूद को एक ऐसे बाजारू दौर में देखने-परखने की पहल है, जब हमारी आकांक्षाओं पर पराई मान्यताओं का मुलम्मा हैं, लेकिन ‘उत्सव’ में उमड़ता जनसैलाब इस धारणा को ध्वस्त करता रहा है. जैसे अपनी ही गुमशुदा तासीर और तस्वीर को पहचानने, उसके साथ बिरमने सारी क़ायनात एक जमीन पर इकठ्ठा हो जाती है. यहां ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष सच्चा लगने लगता है. लोक कलाओं की हैसियत पता चलती है कि अपने बहुआयामी स्वभाव के बावजूद उनकी प्रवृत्ति सामुदायिक है. उनमें मानवीय संवेदना की अजस्त्र धारा प्रवाहित होती है और समय के हर मुकाम पर वे आदमी को उसके आदिम सत्य का आईना दिखा सकती हैं. मानचित्र पर भारत चाहे जितने भी सूबों-सरहदों में बंटा हो, लेकिन यहां की बहुरंगी संस्कृति एकता, आपसदारी और अमन का ही पैगाम देती हैं. जरा आश्चर्य ही होता है कि अपनी-अपनी स्थानिकता में कैद रहने वाली लोक कलाएं जब अपने जनपद की सीमाएं लांघती हैं तो वे सारे जगत की हो जाती हैं. वजह सिर्फ यही कि लोक कलाओं के भीतर सदा ही हरी-भरी मनुष्यता मुस्कुराती रहती है.
इस उत्सव का प्रमुख आकर्षण होता है मुक्ताकाश में बना मुख्य सांस्कृतिक मंच. हर बार यह मंच भारतीय स्थापत्य की बेमिसाल बानगी लिए मूर्त होता है. इस दफा कांचीपुर के कैलाशनाथ मंदिर की प्रतिकृति तैयार हुई है. बताया जाता है कि एक हजार तीन सौ साल पहले यह देवालय कांचीपुर में साकार हुआ था. मान्यता है कि दुनिया भर में मंदिर बनाने की अवधारणा इसी मंदिर से विकसित हुई थी. इसी मंदिर से प्रेरणा लेकर अजंता-एलोरा की गुफाओं में भी मंदिर बना था.ये सच है कि मिट्टी की महक और उसकी महिमा को मुखरित करती कलाओं की एक सुनहरी दुनिया जब मनुष्यता के आसपास अपने अर्थ खोलती है तो जीवन में उत्सव लौट आता है. इस उत्सव के आसपास कामनाएं अपना ठौर तलाशती हैं. समय मुस्कुरा उठता है. ‘लोकरंग’ के आंगन में इसी इंद्रधनुष का सतरंगी सैलाब उमड़ आता है. भारतीय गणतंत्र के नाम लोक संस्कृति, परंपरा के उजाले में प्रकट होती फिर इस बात का यकीन पुख्ता करती है कि प्रकृति और संस्कृति की आपसदारी में ही जीवन का उत्कर्ष है.
छब्बीस से तीस जनवरी तक भोपाल में आयोजित होने वाला यह अड़तीसवां ‘लोकरंग’ तमाम अवसादों को छांटता “नवगति, नवलय, ताल छंद नव” का सनातन संदेश दे रहा है. यह उत्सवी रौनक साबित करती है कि लोक संस्कृति एक सनातन प्रवाह है, एक अंतर्धारा है जो मानवीय जीवन के साथ समय की हर धड़कन से अपना रूहानी रिश्ता बनाती है. लोक संस्कृति को लोक पैदा करता है, लोक ही उसकी हिफाजत करता है और आने वाली पीढि़यों को विरासत की तरह सौंप देता है. दरअसल, लोक संस्कृति का सार इंसानी दुनिया को बेहतर गढ़ना है. इस संस्कृति के साथ जुड़ी होती है विभिन्न कलाएं जो एक परंपरा में अपना रूप गढ़ती हैं. उनमें जीवन की सुंदरता समाई होती हैं. लहक-महक भरे अनूठे अहसास इन कलाओं के दामन में धड़कते हैं. यानी अपने समय की आहटों को जज्ब करती ये लोक कलाएं लोक, आस्था, लोक श्रद्धा और लोक चेतना की मुखर अभिव्यक्ति बन जाती है.जब हम लोक जीवन से साक्षात्कार करते हैं तो उसकी जीवंतता हमें किसी ऐतिहासिक अनुभव की ओर ले जाती है.
इस अनुभव के साथ हमारे सामने आती है स्मृतियां, विश्वास, परंपराएं और वे सारे संदर्भ जिनमें हमारे सामुदायिक जीवन व्यवहार और विकास यात्रा के चिह्न छिपे हैं. जिनमें हमारे जीवन का लालित्य बोध छिपा है. वह इतना अंतरंगी और गहरा है कि कोई बाहरी आक्रमण हमारे इस सुंदर और आदिम दुनिया को नष्ट नहीं कर पाता.यह गतिविधि बाज़ार की महिमा के युग में देसी ढंग से लड़ी जाने वाली एक सांस्कृतिक लड़ाई भर नहीं है, बल्कि विवेकशील ढंग से अपनी लोक परंपरा से सृजनात्मक रिश्ता बनाने की जगह है. यहां आकर हमारी स्मृतियाँ जागती हैं, बुझापन काफूर होता है. अपनी स्वाभाविकता में लौटने की पुकार उठती है. ‘लोकरंग’ की ज़रूरत हर दौर में बनी रहेगी.
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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