प्रकृति की कोख से मौसम के स्वागत गीत फूटे. सूरज की किरणों ने कुंकुम बिखेरा. गौरैया चहकी. कांस फूले. कमल खिले. हंस लौटे. दूब गदरायी. गरबा गूंजा. कजरी में मन की कसक कौंधी. मधुबन में पुरवा की बंसी बजी. धरती के आंगन में हर सिंगार की रांगोली ने शुभ की कामनाएं रचीं. मोर के पांव में नृत्य की थिरकन जागीं. पानी की सतह पर लहरों ने उमंगों का गीत गाया. पिछले दिनों संस्कृति के आंगन में प्रकृति का ऐसा ही महागान गूंजा.
एक मुद्दत बाद भोपाल की बड़ी झील के किनारे बसा कलाओं का घर भारत भवन चहका. शहर के कला रसिकों का रेला उमड़ा. यह ‘संस्कृति और प्रकृति’ की परस्परता में जीवन की सहज-सनातन और शाश्वत आवाज़ों को सुनने-गुनने का अवसर था. विरासत की अनमोल और महान सांस्कृतिक संपदा के प्रति यह धन्यता का उद्घोष था. दिलचस्प यह कि भारत भवन के बुलावे पर साहित्य-कला की बहुमान्य विभूतियों से लेकर प्रतिभाशाली युवा कलाकारों तक रचनात्मकता का अनूठा ताना-बाना तैयार हुआ.
पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह, ओम निश्छल, लीलाधर जगूड़ी, कपिल तिवारी, संतोष चौबे, नर्मदाप्रसाद उपाध्याय, राधावल्लभ त्रिपाठी, मनोज श्रीवास्तव, भूरी बाई, मालिनी अवस्थी, भज्जू श्याम, सुजाता महापात्र, लता मुंशी, कौशिकी चक्रवर्ती, उर्मिला पाण्डे, ज्योति हेगड़े और गौरव हज़ारिका ने मिलकर शब्द, दृश्य, रंग, ध्वनि और नृत्य की लय-गतियों तथा भाव-भंगिमाओं का आत्मीय संसार रचा. सर्जना और विचार की विविध छवियों में यह सार दिखाई दिया कि लालित्य के सृजन के सारे बीज प्रकृति के पास हैं. प्रकृति ही जीवन है और जीवन ही प्रकृति. जीवन के होने और चलते रहने की आकांक्षा ही संस्कृति है.
भारत के सांस्कृतिक अतीत और उसकी परंपराओं पर नज़र जाती है, तो प्रकृति के साथ उसके गहरे सरोकारों के पाठ उजले हो उठते हैं. प्रकृति के रेखाचित्रों में मौसम रंग भरते हैं. गहरी जीवट वाली संस्कृति है इस देश की. हमारी जातीय स्मृतियों की परंपरा प्रकृति से ही हरा-भरा पन पाती हैं. ललित निबंधकार श्रीराम परिहार कहते हैं-
“वृक्ष का दान, नदी के उपकार, धरती की ममता, सूरज की गरमी, चन्द्रमा की शीतलता, पक्षियों की परस्परता, पशुओं की ताक़त, बादलों का बरसकर मिट जाना, हवा का प्राण-प्राण में बहना, अग्नि का ताप और उजाला तथा आकाश का रोज़ रात को मोतियों भरा थाल लेकर जगमगाना.. ये सब वो घटनाएं हैं जो एक सुंदर लय में बंधकर सृष्टि का रूपक रचती हैं.”
जीवन, प्रकृति और संस्कृति की इसी परस्परता ने मनुष्य को एक ऐसे पर्यावरण में जीने के मंत्र दिये जो हज़ारों बरसों की यात्रा में उसका संबल बने रहे. इस अनमोल थाती के आसपास ठहरकर जब हम सोचते हैं तो भीतर सवाल कौंधता है- “क्या आधुनिक विकास के साथ समय में फैली धुंध के चेहरे पर अब भी वही इबारत उभरी है जो “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया” की पवित्र कामना का उद्घोष करती रही है? क्या आज दुनिया का मानचित्र हमें वैसा ही दिखाई देता है जो हमारे पुरखों ने धरती, जल, आकाश, वायु और अग्नि की हमजोली में एक स्वस्थ, ख़ुशहाल और सुखी जीवन की तरह हमें सौंपा था?”
धन्य है ईश्वर, जिसने धरती-आकाश सिरजा. तीन लोक, चौदह भुवन और पाताल बनाये. प्रकृति को रचा. मनुष्य जन्मा. मनुष्य की दृष्टि को विस्तार दिया. हृदय दिया. हृदय को भावनाओं से भर दिया. मस्तिष्क दिया. बुद्धि दी. साथ में विवेक दिया. विचारों का ताना-बाना दिया. सोच-समझ दी. हास-रूदन दिया. आलोक से जगमगाती संवेदना दी. संवेदना की संगिनी करुणा दी. वाणी को गान दिया. गान राग से, रस से, प्राणों से भर गया. यह वाक का वासंती उत्सव था. दृष्टि जहां तक पहंुची, लोक को उसकी पूरी सुन्दरता के साथ नयनों की डिबिया में बंद कर लिया.
लोक अपने पुण्य-पर्वों में धरती, आकाश, वायु, जल, अग्नि को प्राथमिकता से अलग-अलग घड़ियों में पूजता है. उनका आह्वान करता है. इसी तरह समाज के प्रत्येक वर्ग की सहभागिता उनके कर्मों या उनके द्वारा गढ़ी गयी वस्तुओं की उपस्थिति से ही लोक अनुष्ठान को पूर्ण करती है. प्रत्येक घर-गांव का लोक-देवता किसी तीर्थ या देवालय स्थित देव के समान ही लोकमन की आराधना का आराध्य है. वहीं लोक-देवता लोक के घर-गृहस्थी-दुनियादारी से जुड़े सुख-दुःख का प्रत्यक्षदर्शी, सुखदाता, दुःखकर्ता और मंगलकर्ता है.
सारे अनुष्ठानों में पावनता गोबर लिपी धरती पर ही आमंत्रित होती है. गाय का गोबर, गाय का दूध, गाय के दूध का दही, दही का घी, खेत से उपजा अन्न लोक संस्कृति के कदली खम्भ हैं. गाय माता इसी महत्ता से लोक-जीवन और लोक-संस्कृति की पोषक है. लोक संस्कृति के प्रकाण्ड अध्येता और हाल ही पद्मश्री अलंकरण के लिए चयनित डा. कपिल तिवारी लोक की अपनी सहज लेकिन जीवन के प्रति गूढ़ ज्ञान से भरी परंपरा को महान निधि की तरह स्वीकारते हैं.
समय और जीवन, जीवन की परम्परा कोई ठहरी हुई स्थिर चीज़ नहीं है. ग्रामीण क्षेत्रों में भी जीवन बदलता है, समय बदलता है, ढंग बदलते हैं. भारतीय लोक अपनी प्रकृति और विरासत को हर परिवर्तन के साथ ढाल लेता है और उसे गतिशील रखता है. उसकी जिजीविषा और रचने की क्षमता अकूत है. वह जीवन से शिकायत नहीं करता.
कितनी खूबसूरत बात है कि लोक जीवन, पर्यावरण को अपने परिवार, समाज और पूरे जीवन के अंतरंग तथा बहिरंग का हिस्सा मानता रहा है. उसके मूल्य, विश्वास, आस्था, श्रद्धा और सांस्कृतिक परंपराओं में प्रकृति तथा पर्यावरण से उसके गहरे रिश्तों के सुरीले साक्ष्य मिलते हैं. भारत के तमाम जनपदीय गीतों में सूरज, चांद, आसमान, बादल, पंछी, धरती समंदर, नदी, वनस्पति, पशु-पक्षी और जंगलों से आत्मीय संवाद हैं.
कालिदास के ‘ऋतु संहार’ से लेकर भूपेन हजारिका के असमिया गीत- “ओ गंगा बहती हो क्यों” और तुलसी की रामचरित मानस के किष्किंधा काण्ड के पावस वर्णन से लेकर निमाड़ी गीत “रिमझिम-रिमझिम मेहुरो बरसे सावन महीनो आयो जी” तक सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना पर्यावरण के संदेशों से सुगंधित है. दरअसल यह जीवन प्रकृति का दिया वरदान है. वह मित्र है. बेहतर और खुशहाल जीवन जीने का आश्वासन है.
संगीत, नृत्य, चित्र, वाणी में प्रकृति बोलती है. न्यूटन जैसे विज्ञानी ने गुरूत्वावर्षण का सिद्धांत प्रकृति से ही सीखा. प्रकृति की कोख से ही फूटी कविता. प्रकृति ने ही पलभर से वसंत की उम्मीद जगाई. कथाकार प्रेमचंद ने कहा था- “साहित्य में आदर्श का वही स्थान है जो जीवन से प्रकृति का.” वैदिक संस्कृति भी प्रकृति की पैरोकार रही है. ग़ौरतलब है कि वेदों की पाठशाला में प्रकृति के ही मंत्र गूंजते हैं. अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की भीतरी तहों में प्रकृति के सहचर बनकर जीवन गतिमान रहता है.
प्रकृति है तो पर्व हैं. तीज-त्योहार हैं. व्रत हैं. संस्कार हैं और इन सब में झांकना रहता है जीवन के समानांतर एक और जीवन. एक पुख्ता जीवन. आदर्श जीवन.
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
और भी पढ़ेंबैचलर्स और ट्रैवलर्स के बेहद काम का है ये इलेक्ट्रिक कुकर, इडली, मैगी, चाय, मोमोज सब बनाता है, कीमत भी मामूली!
रवींद्र जडेजा की गेंदबाजी पर नहीं था भरोसा, फाइनल में धोनी के खिलाफ उतरे और तोड़ दिया माही का सपना
Samantha ने किया Naga Chaitanya के तलाक की वजह का खुलासा, बोली- मैं खुद को दोषी मानने, या मारने की...