लोक की ज्ञान परंपरा के सच को एक बार फिर परिभाषित करने और उसे अमल में लाने की राजनीतिक कवायद इन दिनों सिर उठा रही है. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति सांस्कृतिक जड़ों को खंगाल रही है. जीवन के आदर्श मूल्यों के जो पाठ विरासत की ज़र्द पोथियों में बरसों से अनबांचे रहे, उनकी जिल्द पर चढ़ी धूल एक बार फिर बुहारी जा रही है. बुनियादी सच के पास लौटना निश्चय ही शुभ का प्रतीक है.
इस सुगबुगाहट के बीच उन रचनात्मक प्रयत्नों की ओर बरबस ही निगाह जाती है जिनका लक्ष्य हमारी सांस्कृतिक परंपरा को अपने पुरूषार्थ में थामने वाले शिल्पकारों की कला तथा हुनर को जिज्ञासा भर देखने की रही है. देखने की इस प्रक्रिया में सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना भी जुड़ता रहा जिससे मिलकर भारत की देशज ज्ञान परंपरा की असल तासीर और तस्वीर नमूदार होती है. भारत के सुदूर जनपदों के रहवासी अपने बहुरंगी संसार में जीते हुए कितनी सहज कलात्मकता के रूपक में बदल जाते हैं. अनायास लालित्य की लालिमा से उनका संसार दीप्त होता रहता है. यही उनकी पहचान और यही उनका पेशा भी बन जाता है. समय के अनेक अंतरालों में परंपरा के इन पहरूओं के भीतर भी संवेदना ने करवट ली. कुछ नया कौंधा. जरूरतों और आग्रहों के बीच उनकी कल्पना ने नए पंख पसारे. नई सृजन शक्ति जागी. पीढि़यां बदलती गईं पर परंपरा के गर्भ से उठा मनुष्यता का पैगाम हमेशा नवाचारों में शुमार रहा.
तमाम चिंताओं और चुनौतियों के बीच अपनी मटियारी चहक-महक से तारी कला और कलाकारों की सुध लेने का काम पिछले तीन-चार दशकों में जिन शोधार्थियों ने गंभीरतापूर्वक किया है उनमें निर्मला डोसी एक अग्रणी नाम है. अपनी रूचियों, रूझानों, प्रश्नों और जिज्ञासाओं की ज़मीन पर उन्होंने भारत की देशज कलाओं के मानचित्र को मनोयोग से पढ़ने का प्रयत्न किया. इस राह पर चलते करीब चालीस बरस पार किए. तिश्नगी कुछ ऐसी उन पर तारी है कि श्रांत भवन में टिके रहना उन्हें रास नहीं आता. उनके इस अनथक सफर की तस्दीक करते रहे हैं बेशकीमती दस्तावेज. यानी वो किताबें जिनके सफहों पर भारतीय कला की असल तस्वीरें शाया हैं. इस तारतम्य में यह जानना भला लगता है कि उनकी हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘इतिहास के पन्नों पर कलाओं के नक्श’ को महाराष्ट्र साहित्य अकादेमी ने पुरस्कार के लिए चुना है.
हालांकि निर्मलाजी के लिए पुरस्कार का यह पहला रोमांच नहीं है. 2014 और 2019 में भी लोक कला पर लिखी उनकी कृतियों को पुरस्कार मिल चुका है. इनसे से भी पहले 1989 में जेएनयू श्रेष्ठ पटकथा लेखन के लिए उनके नाम पर मोहर लगा चुका है. हिंदी की लिखने-पढ़ने वाली बिरादरी निर्मला डोसी को कई तरह से जानती-पहचानती है. वे कथाकार हैं. कवि हैं. रेडियो के लिए अनेक विषयों पर आलेख लिखती रही हैं. साहित्य-कला की विभूतियों से भेंटवार्ताओं की लंबी शृंखला उन्होंने पिरोई है. मुंबई में रहते इन दिनों ‘चौपाल’ के मंच पर सक्रिय हैं.
लगभग दो-सौ पन्नों में बंधा यह ग्रंथ चौबीस अध्यायों को समेटता हुआ हमारे वक्ती दौर की उन नायक छवियों को रौशन करता है जिन्होंने अपनी आंचलिकता के भूगोल में रहते हुए वहां पनपी और परवान चढ़ी कलाओं ने नाता जोड़ा. निर्मला जी इन कलाकारों से गुफ्तगू करती हुई ये भी खुलासा करती हैं कि यह नातेदारी सतही नहीं, रचनात्मक उत्तरदायित्व का परिचय देती है. विरासत के वटवृक्ष को हरा-भरा रखने की गारंटी देते हैं ये कलाकार. यह किताब भारत के लोक में समृद्ध हुई हस्तकला के किवाड़ खोलती है. राजस्थान, असम, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, मध्यप्रदेश और कर्नाटक राज्यों के मुख्तलिफ रंग यहां एक कतार में खड़े दिखाई देते हैं. ये तहजीब के रंग हैं. पुरखों ने बड़ी जतन से अपनी धरती और आबोहवा से राब्ता जोड़ती रवायतों को अपने हुनरमंद हाथों से नई-नई शक्लों में ढाला.
निर्मला जी ने बड़े जतन से कला के इन कारिंदों के काम को देखा. उनके मन की टोह ली और कुछ अफसानों, यादों तथा तजुर्बों के रास्ते सच की शिनाख्त की. इन्हीं पन्नों पर अपने मनोगत साझा करते हुए लेखिका अपना सार इस पंक्ति में तलाशती हैं कि समाज में संतुलन बनाने वाले पुल होती हैं कलाएं. निश्चय ही कलाओं के सरोकार यही साबित करते हैं. लेकिन इन देशज कलाओं के सामने आज सुविधा और दुविधा के दो राहे पर खड़ा है- बाजार. बाजार के साथ चली आई अत्याधुनिक मशीनें और टेक्नालॉजी भी, जिसने कलाओं के पारम्परिक मानवीय ‘मूल्य’ और व्यावसायिक ‘मुद्रा’ का द्वंंद्व पैदा कर दिया है. निर्मला डोसी इस विमर्श को साधती हुई कला और कलाकारों का सम्यक ब्योरा पेश करती हैं.
निर्मला जी बताती हैं कि पारंपरिक हस्तशिल्प के शोध के दौरान अब तक सवा सौ से अधिक लोक कलाकारों से मिलने का सुयोग हुआ. तकरीबन सभी कलाकार उम्र की आंच में तपे तथा कई दशकों से अपने कलाकर्म में संत की तरह लगे हुए हैं. राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शिल्प गुरु तथा पद्मश्री का खिताब पाए इन दुर्लभ लोगों से मिल कर हर्ष, हैरत तथा विषाद एक साथ उपजते हैं.
शहरी चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे गांव, खेड़ों, ढाणियों में रह कर जीवन की न्यूनतम जरूरतें भी मुश्किल से पाने वाले इन किरदारों की कलानिष्ठा देख कर हैरत होती है. निर्मलाजी इस प्रवाह में जोड़ती हैं कि यही लोग हमारे देश की समृद्ध कलाओं का संरक्षण तथा संवर्धन कर रहे हैं.
सौंदर्य के शाहकार रचने वाले ये विलक्षण कारीगर, आजादी के इतने वर्षों के बाद भी अपना जीवन-स्तर जरा भी ऊंचा नहीं उठा पाएं, यह देख कर दु:ख होता है. प्रत्येक कलाकार के पास अपनी कला विषयक जानकारी के साथ, उस गुजरे वक्त का इतिहास, भूगोल तथा समय को मापने का प्रमाणिक यंत्र मिलता है. उम्र की आंच में तपे इन वरिष्ठ कलाकारों के अनुभव, ज्ञान तथा प्रयोग की मुखर बयानी को हम संरक्षित कर लेते हैं तो वे ही इतिहास बनेंगे तथा उससे कलाओं को लुप्त होने से पहले ही बचाया जा सकेगा और कला के विद्यार्थी तथा शोधार्थी उससे लाभ उठा सकेंगे.
बकौल लेखिका, माना कि आज अंगुली के इशारे पर ‘गूगल बाबा’ जानकारियों के ढेर लगा देता है, किंतु जो जानकारी, ‘व्यक्ति विशेष’ के मुंह से सुनकर, समझ कर और पूछ कर मिलती है. वह अनमोल होती है. शत-प्रतिशत प्रमाणिक भी.
‘लिखा हुआ रह जाता है, बाकि सब बह जाता है.’
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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