ये समय की रंगभूमि पर ठिठके मधुमास की विदाई का क्षण है. कामनाओं के नए वंदनवार सजाते चैत्र के आगमन की घड़ी भी. भारत का उत्सवधर्मी जीवन उमंगों की उंगली थामे पांव-पांव फिर सपनों की डगर पर चल पड़ा है. पर्व-परंपराओं की चहक-महक के बीच प्रकृति और संस्कृति अपने पूरे परिदृश्य में खिल उठी है. नव संवत्सर का उजास लिए निगाह जब मध्यप्रदेश के निमाड़ अंचल पर जाकर ठिठकती है तो रसभीने गीतों की गंदुमी गागर छलक उठती है. ताल पर ताल देती नृत्य की लयबद्ध थिरकनों का रोमांच उमड़ आता है. सौंधी बयार के झोंके उड़कर दामन से लिपट जाते हैं. जनपदीय संस्कृति अपनी परंपराओं के प्रवाह में लोक आस्था और श्रद्धा का अनोखा रूपक रच देती है. जि़क्र गणगौर का.
विंध्याचल और सतपुड़ा के पांव पखारती सदानीरा नर्मदा के आसपास पूरब और पश्चिमी छोर पर बसा निमाड़ का लोक इन दिनों अपनी सुध-बुध बिसराकर गणगौर की गमक में गुम है. एक अजीब सी लहर है जो तमाम बहकावे, बीहड़ और विचलन से परे अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों में जीवन का सच तलाश रही है. रूह में एक नया राग उतर रहा है, नव संवत्सर के आगमन का और सृजनधर्मी प्रकृति के प्रति अभिवादन और आभार का. यह चैत्र के माथे पर शुभ का चंदन है.गणगौर इसी मधुमय संस्कृति की कोख से जन्मा रंग-बिरंगा उत्सव है. सुखी, समृद्ध और दकमता दांंपत्य यहां खुशहाल जीवन में प्रेम, शृंगार और लालित्य की लालिमा लिए भक्ति में अपने समर्पण की ठौर तलाशता है.
निमाड़ की खेतिहर संस्कृति में परवरिश पाने वाले लोक समाज ने गणगौर को अनुष्ठान की तरह जिया है. यहां स्त्री और पुरूष का सहकार शिव और पार्वती यानी मातृशक्ति का प्रतीक बनकर उभरता है. निमाड़ की लोक आस्था ने इन्हें धणियर राजा और रनुबाई के नामों से पुकारा और सुरीले वैवाहिक जीवन की कामना की. गणगौर की दुनिया गीतों से गमकती है और ताल-ताल पर ताल देती थिरकनों का रोमांच जगाती है. एक ऐसा दर्पण जिसमें भारतीय नारी का नूर एक सुंदर अक्स बनकर उभरता है. गणगौर स्त्री की कामनाओं का सुंदर पर्व है. ये कामनाएं सुखी-समृद्ध, सपनीले, सुरीले, मधुर दांपत्य से जुड़ी हैं. ये कामनाएं गीत बनकर गमकती हैं और नृत्य बनकर ठुमकती हैं. यहां जीवन का राग झरता है. यह राग रोम-रोम में उतरता है. भाव-रस और गंध जे़वर बन जाते हैं. इन सबसे दमकती देह, जीवन की आनंदित लय-ताल पर नर्तन करने लगती है. यह झूमना या झंकृत होना अपनी आवृतियों में उस चरम पर पहुंचता है, जहां प्रार्थना का सबसे उदात्त क्षण आता है.
चैत्र महीने के दसवें दिन से आगामी नौ दिनों तक मध्यप्रदेश के निमाड़ की धरती गणगौर की धन्यता को गाने मचल उठती है. इन गीतों में स्मृतियों की दुनिया खुलती है. स्त्री की सृजन शक्ति, उसकी अभिलाषाएं, उसके सरोकार, उसकी नियति और दैवीय महिमा के दिव्य स्वरूपों को जीवंत होता देखा जा सकता है. इन गीतों की गुंजार फैलती है तो देह अनायास ही थिरक उठती है. एक सिरे पर आध्यात्म के गहरे रंग, अनुष्ठान की पवित्रता, पूजा-प्रार्थना और निवेदन तो दूसरे सिरे पर लोकरंजन में आकंठ डूबा तन-मन एक आदिम सुख की इच्छा से भरकर थिरकने लगता है. रनुबाई यानी निमाड़ की स्त्री को ही अधिष्ठात्री देवी मानकर उसका गुणगान किया जाता है. यहां दूर देश को ब्याही रनुबाई की अपनी सखियों के संग ठिठोली है तो प्रेम, ममत्व, करूणा, वात्सल्य और वियोग भी है.इस दौरान रनुबाई और उसके पति धणियर राजा के सुंदर रथ सजाए जाते हैं. उन्हें पूरे सम्मान से सिर पर धारण कर स्त्रियां उनका यशोगान करती है. अंतर्लय जागती है और अंग-प्रत्यंग में यह महाभाव नृत्य बनकर उभरता है.
उधर, दैवीय अनुष्ठान के क्रम में बांस की छोटी टोकनियों में रखी मिट्टी में गेहूं के जवारे फूटने लगते हैं. ये हरे-भरे जवारे जीवन में अंकुराती उम्मीदों का प्रतीक होते हैं. गणगौर के लोकाचार को देखें तो ये जवारे नौवें दिन गांव के ही जलाशय में पूरी श्रद्धा के साथ सिरा दिए जाते हैं. गोधुली का यह मुहूर्त गणगौर को विदा कहने का भी होता है. पूरा गांव भीगीं आंखें लिए इन भावुक क्षणों का साक्षी बनता है.मृदंग, ढोल, थाली और ताली में लयबद्ध स्त्रियों का उल्लास देखते ही बनता है. वे अपने घर के आंगन में रथों को एक निश्चित स्थान पर प्रतिष्ठित करती हैं और उनके सामने झालरिया देती है. झालरिया यानी नृत्यांजलि. इस दौरान सहज ही निगाह रनुबाई और धणियर राजा के रथ शृंगार पर जा टिकती है. पूरा शृंगार पारंपरिक गरिमा लिए होता है. चमकीली गोटा किनारे वाली साड़ी, चटखदार चुनरी, छीट का लहंगा और सिर से पांव तक गहनों से लदकद रनुबाई की आभा बरबस ही आंखों में बस जाती है. इस पर्व में शरीक होने वाली हर कन्या और स्त्री ऐसा ही श्रृंगार करती है.
लोक स्मृति कहती है कि गणगौर का संबंध होलिका से रहा है. राजस्थान और मालवा में एक कथा प्रचलित है- हिरण्यकश्यप नाम का एक राजा था, जो नास्तिक था. वह स्वयं को भगवान मानता था पर उसका पुत्र प्रहलाद आस्तिक था. राजा प्रहलाद को फूटी आंख भी नहीं चाहता था. उसने उसे मरवा डालने के अनेक प्रयत्न किये पर सब विफल रहे. अंत में बहन होलिका को यह कार्य सौपा जो अपने साथ उसे लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई. इस चिता में बड़ी विचित्र घटना घटी कि जिस होलिका को अग्नि स्नान का वरदान था, वह जल मरी और प्रहलाद बच गया. होलिका की जलने की खबर चारों ओर फैल गई. हिरण्यकश्यप का जीना दूभर हो गया. उधर, होली के पति इसर ने चढ़ाई कर दी. हिरण्यकश्यप घबराया. मंत्री, ज्योतिषी, तांत्रिक इकट्ठे हुए. सबने अपनी-अपनी अटकलों से होलिका को जीवित करने का भरसक प्रयत्न किया. पर यह कार्य हुआ बालिकाओं द्वारा, जिन्होंने होली की राख के पिंड बनाकर अपने गीत-मंत्रों से उनकी पूजा आरंभ कर दी. कहते हैं कि सातवें दिन से ही लड़कियों को यह लगा कि पिंडों में प्राण पड़ने शुरू हो गए हैं.
इधर, लड़कियों के घरों में धन-धान्य, सुख आनंद की बढ़ोत्तरी होनी आरंभ हो गई जो स्वाभाविक था उनकी माताएं भी उनके अनुष्ठान के साथ अधिक श्रद्धा-आस्था के साथ जुड़ गई. पंद्रहवें दिन पूजा करने वाली एक स्त्री को स्वप्न दिया कि तुम मुझे एक काठ प्रतिमा बनाकर उसे अच्छे वस्त्र आभूषणों से अलंकृत कर देना. मैं गौरा के रूप में जीवित हो उठूंगी. इस तरह गणगौर सबके बीच की होकर भी सबसे ऊपर के शिखर पर पहुंचने वाली स्त्री थी, जिसने परंपरा की रक्षा करते हुए, एक उदात्त चरित्र को गढ़ लिया था.
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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