क्रांति के कदम बढ़ाने की कामनाएं लिए किरदार अवतरित होते हैं और विचार की रोशनी थामे जिंदगी की धूप-छांही दास्तानें सुनाकर ओझल हो जाते हैं. बाकी रह जाते हैं कुछ अहसास और अक्स, जेहानी परतों पर जिनकी दस्तक देर तक सुनाई देती है. भोपाल का रंगमंच नए साल की सर्द शामों को कुछ ऐसी ही गर्मजोशी से भरता रहा. दर्शकों की आमद और शहीद भवन का सभागार इस धारणा को झुठलाते रहे कि मनोरंजन के आधुनिक बाजार ने नाटक जैसी पारंपरिक कला को लील लिया है या बिरादरी को अब नाटक की गरज नहीं.
नाटकों का यह जश्न कोई हंसी-खेल-तमाशा नहीं था. बाकायदा आजादी के इतिहास से उठाए गए नायकों, जनजातीय चेतना और घटनाओं की ज्वलंत बानगियों को समेटता कलात्मक अनुभव था. अपने में मसरूफ रहने वाले शहरियों का इस ओर रूझान साबित करता है कि रंगभूमि पर सक्षम, सार्थक और शालीन हस्तक्षेप की जगह बनी हुई है. बहरहाल, स्वाधीनता संघर्ष के कई बिखरे, अनदेखे और उपेक्षित पहलुओं के संकलन में जुटे मध्यप्रदेश शासन संस्कृति विभाग के स्वराज संस्थान के सालाना नाट्य समागम का यह पड़ाव काफी उम्मीदें समेटे था. अत्युक्ति नहीं कि सधे कदम राहें नापता यह कारवां अब भारत के मौजूदा रंग परिदृश्य में एक आंदोलन की शक्ल ले चुका है. आजादी के अमृत महोत्सव की सरगर्मी में यह समारोह अधिक मानीखेज हो जाता है.
दस से सोलह जनवरी की दरमियानी शामें भोपाल-कटनी सहित दिल्ली, रांची और बनारस के सैकड़ों कलाकार शहीद भवन में दस्तक देते रहे. यह देश का पहला और अकेला समारोह है जो लगभग डेढ़ दशक की आवृत्ति में स्वाधीनता के संग्रामी अतीत को जनजातीय चेतना के साथ ही अन्य अछूते और ज्वलंत पहलुओं के साथ जीवंत करता रहा है. इस दफा अजय मलकानी, प्रवीण चौबे, योगेश तिवारी, सौरभ परिहार, रामजी बाली, भारती शर्मा और आस्था कार्लेकर जैसे निर्देशकों की कल्पना तथा कौशल में रचे-बसे प्रयोगों को देखने का संयोग रहा.
एक तरह से यह हमारे वक्ती दौर में हो रहे रंगकर्म के रूझान, तासीर, अध्यवसाय, दक्षता तथा सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप को देखने-परखने का भी अवसर था. यह भी कि अपनी शैली और मुहावरे में लोक मानस तक पहुंचने तथा उनमें उद्वेलन जगाने की कितनी क्षमता हमारे समय के नाटकों में है. एक तरह से इस बात को जांचने का विकल्प भी देता है ‘जनयोद्धा’ का यह कला मंच, कि भारत के स्वाधीनता संघर्ष को क्या हमने महज कुछ तारीख़ों, घटनाओं और किरदारों तक ही सीमित कर रखा है या कि उपेक्षित, अनदेखे और लगभग भुला दिए गए बहुत से इतिहास की सांसें लौटाने का जतन किया है?
बेशक इस सवाल का सकारात्मक उत्तर यहां मिलता है. याद आता है जब इस प्रकल्प का बीज ‘आदि विद्रोही नाट्य समारोह’ के नाम से आंखुआया था. एक नई हिलोर भारत के रंगपटल पर जागी थी. शायद ही ऐसा कोई अग्रणी-मूर्धन्य रंगकर्मी हो जो इस समारोह का हिस्सा न बना हो. स्वराज और स्वाधीनता के पक्ष में नए शोध और सर्वेक्षण की दिशाएं खुलीं. यह चुनौती भी सामने थी कि रंग प्रयोगों की चकाचौंध में इतिहास की प्रामणिकता ग़ुम ना हो जाए! यानी एक सिरे पर मनोरंजन रहे और दूसरा सिरा विचार की उष्मा देता रहे. ऐसा नहीं कि सारे प्रयोग श्रेष्ठता की कसौटी पर खरे ही रहे हों. लचर आलेख, कमजोर निर्देशन और अधपकी प्रस्तुति ने कई बार दर्शकों को निराश भी किया. यहां चयन समिति पर भी सवाल उठते रहे लेकिन विसंगतियों के इस गुबार में उम्मीद के गुल भी महकते रहे. यही कारण है कि इसकी निरंतरता बनी रही.
इस तारतम्य में संस्कृतिकर्मी श्रीराम तिवारी की बुनियादी सूझ और पुरूषार्थ को रेखांकित करना ज़रूरी लगता है. म.प्र. के संस्कृति महकमे के अधीन स्थापित स्वराज संस्थान के संचालक रहते उन्हीं की पहल पर समारोह ने अपना पहला कदम नापा था. दर्शकों और कला आलोचकों से मिले बेहतर प्रतिसाद के बाद इसका आयोजकीय ताना-बाना भी नई शक्ल लेता रहा. भारत भवन और रवींंंद्र भवन के बड़े प्रेक्षागृह से निकलकर अब यह समारोह विधायकों की बस्ती में निर्मित शहीद भवन में स्थानांतरित हो गया है. इसके तकनीकी कारण हो सकते हैं लेकिन दिग्दर्शन की भव्यता और दीप्ति पर भी ज़रूर असर पड़ा है, दर्शकों की प्रतिक्रिया कुछ ऐसा ही बयां करती है.
बहरहाल, इतिहास के गहरे शोधार्थी और स्वराज संस्थान के प्रभारी संतोष कुमार वर्मा चले आ रहे प्रतिष्ठा आयोजन की अहमियत इस बात से आंकते हैं कि आजादी का अतीत रंगमंच के जरिए जन मानस में देशभक्ति का जज्बा जगा सका है. ‘जनयोद्धा’ के रंगदलों को एकजुट करने और प्रबंधन के दायित्वों से जुड़े प्रदीप अग्रवाल इस समारोह को सामूहिकता का उत्सव कहते हैं. देखने की बात ये है कि किसी भी नाटक की परिकल्पना सिर्फ रंगमंच के स्थापत्य तक सीमित नहीं होती. विषय वस्तु, विचार और अभिनय के साथ पूरे कलात्मक प्रभाव की जीवंतता लिए होती है. ‘जनयोद्धा’ के नाटक इस तथ्य की पुष्टि करते हैं.
झारखंड की अस्मिता, सांस्कृतिक विरासत और औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष की कहानी दर्शाते ‘उलगुलान’ नाटक में पाखंड और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध धरती पुत्र तिलका मांझी, बुद्धू भगत, सिद्धू-कान्हू संथाल, बिरसा मुंडा के संघर्ष और बलिदान गाथा को प्रस्तुत किया गया. अपनी वीरता, स्वाभिमान, समर्पण और संकल्पबद्धता के कारण इतिहास में स्मरणीय रहे महानायक बिरसा मुंडा एक ऐसे धर्म की स्थापना करना चाहते थे जहां भय नहीं विश्वास हो और लोग स्वतंत्रता के साथ जीवन जी सके. इसके लिए उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहकर अंग्रेज शासकों को चैन की सांस नहीं लेने दी.
‘उलगुलान’ का सार यही था. नाटक के निर्देशक अजय मलकानी कहते हैं कि उलगुलान नाटक रुढि़गत अर्थों में इतिहास नहीं है. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में गुमनाम शहीद शूरवीरों के गौरवशाली योगदान और झारखंड की साझी विरासत को यहाँ यथार्थवादी शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है.
एक अन्य प्रस्तुति ‘टंट्या गाथा’ को देखना भी रोचक अनुभव था. मध्यप्रदेश की वीरता के जनक्रांति के नायक टंट्या भील की वीरता के आसपास घूमता यह नाटक रंगकर्मी प्रवीण चौबे की कलात्मक उर्जा और कल्पना की मिसाल बना.
प्रवीण के मन में सात वर्षों से टंट्या मामा के जीवन चरित पर एक एकल नाट्य प्रस्तुति करने का विचार चल रहा था. इस सपने को साकार करने के लिए निमाड़ अंचल की लोक समृद्ध परंपरा, शिल्प, गीत-संगीत का मिश्रण करते टंट्या गाथा एकल प्रस्तुति तैयार हो पाई है. वसंत निरगुणे की पटकथा, मारिस लाजरस का कर्णप्रिय संगीत, स्वस्तिका चक्रवर्ती एवं प्रवीण चौबे के गीत, विकास सिरमोलिया, सौरभ, जीत, मनीष अहिरवार का संगीत संयोजन एवं कमल जैन की प्रकाश परिकल्पना ने प्रस्तुति को और भी मनमोहक बना दिया.
स्वाधीनता आंदोलन के एक अहम किरदार रामप्रसाद बिस्मिल की जांबाजी के कि़स्सों को सुनना-देखना भी उपलब्धि रहा. योगेश तिवारी इसके निर्देशक थे. सादात भारती ने इसके दृश्यों को प्रकाश के बिंबों से प्रभावी बनाया.रामप्रसाद बिस्मिल एक ऐसा चरित्र है जिसने हिंदुस्तान की आजादी के लिए मजबूत आधार तैयार किया. महज 30 वर्ष की आयु में उन्हें फिरंगियों के खिलाफ जंग छेड़ने के जुर्म में फांसी का फंदा चूमना पड़ा. शंभुधन फोंग्लो भारतीय मातृभूमि में जन्मे ऐसे वीर नायक हैं जिनकी हूंकार आज भी नागालैंड में सुनाई पड़ती है. डिमासा जाति के वीर योद्धा थे शंभुधन जिन्होंने अंग्रेजों के खि़लाफ़ मोर्चा खोलकर उन्हें देश से भागने के लिए मजबूर कर दिया और आंदोलन को एक नयी दिशा दी.
इस नाटक के निर्देशक सौरभ परिहार के अनुसार ‘शंभुधन फोंग्लो’ रंगभूमि पर पहली बार मंचित हुआ. भारत के क्रांतिकारियों के बारे में वे विगत दो वर्षों से अध्ययन कर रहे थे. नाटक में डिमासा जाति के त्योहार, रस्म-रिवाज़, संस्कृति एवं अनुष्ठान से भी दर्शक परिचित हुए. लोह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए योगदान एवं राष्ट्र के पुनर्निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता नाटक दरअसल पटेल की शख्सियत का पुनर्पाठ था. इसे वाराणसी के रामजी बाली ने बड़े ही मनोयोग से तैयार किया है.
समारोह की छठी शाम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल नई दिल्ली के कलाकारों ने भारती शर्मा निर्देशित नाटक “खूब लड़ी मर्दानी: सुभद्रा की जुबानी” का मंचन किया. सुभद्रा कवियत्री ही नहीं थीं बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका अतुलनीय योगदान रहा. गौर करने का पहलू ये है कि आजादी की लड़ाई में ऐसी अनगिनत वीरांगनाओं ने भाग लिया जिनसे देश आज भी अनभिज्ञ है. सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवन कथा के साथ ही फूलो-झानो, उदा देवी, अजीजन जैसी वीरांगनाओं की कथाओं को भी प्रस्तुति में रेखांकित किया गया.
‘जनयोद्धा’ की सातवीं और आखिरी छवि एक ऐसे नायक के आदर्शों का बखान था जिन्हें इतिहास लोकमान्य तिलक के नाम से जानता-पहचानता है. आस्था कार्लेकर ने इस चरित्र को लयशाला रंग समूह पुणे के कलाकारों के साथ उद्घाटित किया. नृत्य और नाट्य की मिली-जुली शैलियों में निबद्ध यह प्रस्तुति तिलक के अनेक पहलुओं को स्वाधीनता के संदर्भों में उजागर करती रही.
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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